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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मृगारः देवता - प्रचेता अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    1

    यथा॑ ह॒व्यं वह॑सि जातवेदो॒ यथा॑ य॒ज्ञं क॒ल्पय॑सि प्रजा॒नन्। ए॒वा दे॒वेभ्यः॑ सुम॒तिं न॒ आ व॑ह॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । ह॒व्यम् । वह॑सि । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । यथा॑ । य॒ज्ञम् । क॒ल्पय॑सि । प्र॒ऽजा॒नन् । ए॒व । दे॒वेभ्य॑: । सु॒ऽम॒तिम् । न॒: । आ । व॒ह॒ । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा हव्यं वहसि जातवेदो यथा यज्ञं कल्पयसि प्रजानन्। एवा देवेभ्यः सुमतिं न आ वह स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । हव्यम् । वहसि । जातऽवेद: । यथा । यज्ञम् । कल्पयसि । प्रऽजानन् । एव । देवेभ्य: । सुऽमतिम् । न: । आ । वह । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे उत्पन्न पदार्थों के जाननेवाले परमेश्वर ! (यथा) जिस प्रकार से (हव्यम्) देने वा खाने योग्य अन्न को (वहसि) तू पहुँचाता है, (यथा) जिस प्रकार से (यज्ञम्) पूजनीय कर्म को (प्रजानन्) अच्छे प्रकार जानता हुआ (कल्पयसि) तू रचता है। (एव) वैसे ही (देवेभ्यः) दिव्य गुणों के लिये (सुमतिम्) सुमति (नः) हमें (आवह)) पहुँचा, (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) पीड़ा से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने पुष्टिकारक और सुखदायक अन्न सूर्य आदि पदार्थ उत्पन्न करके हम पर बड़ा उपकार किया है, उसके गुणों को जानकर विज्ञानपूर्वक अपनी धार्मिक बुद्धि बढ़ावें और दुष्कर्मों से पृथक् रहकर जीवनलाभ ठावें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यथा) येन प्रकारेण (हव्यम्) अ० ३।३।४। हु दानादनयोः-यत्। दातव्यं भोक्तव्यं वान्नम् (वहसि) प्रापयसि (जातवेदः) अ० १।७।२। जातानामुत्पन्नानां वेदितः (यज्ञम्) यजनीयं पूजनीयं कर्म (कल्पयसि) विरचयसि (प्रजानन्) प्रकर्षेणावगच्छन् (एव) एवम्। तथा (देवेभ्यः) दिव्यगुणानां प्राप्तये (सुमतिम्) धार्मिकां बुद्धिम् (नः) अस्मान् (आवह) द्विकर्मकः। प्रापय। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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    विषय

    हव्य-यज्ञ-सुमतिं

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञः, सर्वव्यापक प्रभो! [जातं जातं वेत्ति, जाते जाते विद्यते वा]यथा-जैसे (हव्यं वहसि) = आप हमारे लिए (हव्य) = यज्ञिय-पवित्र पदार्थों को प्राप्त कराते हो और (प्रजानन्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले होते हुए आप यथा जैसे (यज्ञं कल्पयसि) = हमारे जीवनों में यज्ञ को सिद्ध करते हैं (एव) = इसीप्रकार (देवेभ्य:) = माता-पिता व आचार्यरूप देवों से (न:) = हमारे लिए (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (आवह) = प्राप्त कराइए। २. इसप्रकार हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हुए-हमारे यज्ञों को सिद्ध करते हुए तथा सुमति को प्राप्त कराते हुए (स:) = वे आप (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चत) = पाप से मुक्त करें।

    भावार्थ

    प्रभु हमें पवित्र यज्ञिय पदार्थों को प्राप्त कराएँ। प्रभु हमारे यज्ञों को सिद्ध करें। प्रभु हमें उत्तम माता-पिता व आचार्यों से सुमति प्राप्त कराएँ। इसप्रकार प्रभु हमें पापों से मुक्त करें।

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ! (यथा) जिस प्रकार (हव्यम्) हमारे भक्ति हव्य को (वहसि) तू प्राप्त करता है, (यथा) जिस प्रकार (प्रजानन्) जानता हुआ (यज्ञम्) हमारे उपासना यज्ञ को (कल्पयसि) तू सामर्थ्ययुक्त करता है, (एवा) इसी प्रकार (देवेभ्यः) दिव्यगुणी आचार्य आदि देवों से (न:) हमें (सुमतिम्) सुमति को (आ वह) प्राप्त करा, (सः) वह अग्नि (न:) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतु) छुड़ाएं।

    टिप्पणी

    ['जातवेदः' तथा 'प्रजानन्' पद द्वारा अग्नि है प्रज्ञावान् परमेश्वर, न कि भौतिक जड़ अग्नि। कल्पयसि= कृपू सामर्थ्ये (भ्वादिः)। वहसि=वह प्रापणे (भ्वादिः)।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (जात-वेदः) समस्त पदार्थों में व्यापक और सब पदार्थों के ज्ञाता प्रभो ! (यथा) जिस प्रकार से तू (हव्यं वहसि) देने और स्वीकार करने योग्य पदार्थ को नाना जीवों और पञ्चभूतों में एक दूसरे के पास ले जाता और समर्पित करता है और (प्र-जानन्) खूब अच्छी प्रकार सब विधि, नियम आदि जानता हुआ (यथा) जिस २ प्रकार से (यज्ञ) इस परस्पर संगत, संसक्त, सृष्टिरूप यज्ञ को (कल्पयसि) रचता है, बनाता है (एवा) उसी प्रकार (नः) हमारे (देवेभ्यः) विद्वानों और ज्ञानी पुरुषों, इन्द्रियों और दिव्य पदार्थों में भी (सु-मतिम्) उत्तम शुभ मति को (आ वह) प्राप्त करा। (सः) वह प्रभु (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतु) मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। इतः परं सप्त मृगारसंज्ञानि सूक्तानि तत्र नाना देवताः। ३ पुरस्ता-ज्ज्योतिष्मती। ४ अनुष्टुप्। ६ प्रस्तार पंक्तिः॥ १-२, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Deliverance from Sin

    Meaning

    O Jataveda, all knowing, all pervasive power and presence, as you carry the input of yajnic havi, carry it to the divinities, and accomplish the form and function of yajna with full knowledge, so bring us, too, noble knowledge and wisdom and save us from sin and distress.

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    Translation

    O knower of all, as you carry the oblations and as you arrange the sacrifice knowing every detail, so may you convey the favour of the enlightened ones to us. As such, may he free us from sin.

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    Translation

    As this Jatvedas, the fire present in all the created objects, conveys the oblations offered to other physical forces, as this accomplishes the Yajna being manifest in all stages so it make us attain the right knowledge for acquiring the wonderful qualities. Let it be the source of keeping us away from the grief and troubles.

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    Translation

    O God, the knower of all created objects, just as Thou givest us edible food; O Omniscient Lord, just as Thou fashionest the Yajna of the universe, so bestow fine intellect on our learned persons. May He deliver us from sin!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यथा) येन प्रकारेण (हव्यम्) अ० ३।३।४। हु दानादनयोः-यत्। दातव्यं भोक्तव्यं वान्नम् (वहसि) प्रापयसि (जातवेदः) अ० १।७।२। जातानामुत्पन्नानां वेदितः (यज्ञम्) यजनीयं पूजनीयं कर्म (कल्पयसि) विरचयसि (प्रजानन्) प्रकर्षेणावगच्छन् (एव) एवम्। तथा (देवेभ्यः) दिव्यगुणानां प्राप्तये (सुमतिम्) धार्मिकां बुद्धिम् (नः) अस्मान् (आवह) द्विकर्मकः। प्रापय। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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