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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मृगारः देवता - प्रचेता अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    1

    येन॒ ऋष॑यो ब॒लमद्यो॑तयन्यु॒जा येनासु॑राणा॒मयु॑वन्त मा॒याः। येना॒ग्निना॑ प॒णीनिन्द्रो॑ जि॒गाय॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । ऋष॑य: । ब॒लम् । अद्यो॑तयन् । यु॒जा । येन॑ । असु॑राणाम् । अयु॑वन्त । मा॒या: । येन॑ । अ॒ग्निना॑ । प॒णीन् । इन्द्र॑: । जि॒गाय॑ । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन ऋषयो बलमद्योतयन्युजा येनासुराणामयुवन्त मायाः। येनाग्निना पणीनिन्द्रो जिगाय स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । ऋषय: । बलम् । अद्योतयन् । युजा । येन । असुराणाम् । अयुवन्त । माया: । येन । अग्निना । पणीन् । इन्द्र: । जिगाय । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (येन) जिस (युजा) मित्र परमेश्वर के साथ (ऋषयः) ऋषिः लोगों ने (बलम्) बल (अद्योतयन्) प्रकाशित किया है, और (येन) जिसके साथ (असुराणाम्) असुरों की (मायाः) मायाओं [छलों] को (अयुवन्त) हटाया है। और (येन) जिस (अग्निना) सर्वव्यापक परमेश्वर के साथ (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष ने (पणीन्) कुव्यवहारी मनुष्यों को (जिगाय) जीता है, (सः) वह (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥५॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा का आश्रय लेकर सूक्ष्मदर्शी महात्माओं ने सत्य का प्रकाश और असत्य का नाश किया है और जिस पर विश्वास करके प्रतापी मनुष्यों ने दुष्टों को जीता है, उसी परमात्मा की शरण लेकर हम विघ्नों को हटा कर सुख पावें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(येन) अग्निना परमेश्वरेण (ऋषयः) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० २।१। साक्षात्कृतधर्म्माणः। सन्मार्गदर्शकाः। अतीन्द्रियार्थदर्शिनः (बलम्) सामर्थ्यम् (अद्योतयन्) द्युत दीप्तौ णिचि लङि रूपम्। अदीपयन् (युजा) सख्या, मित्रेण सह (असुराणाम्) सुरविरोधिनाम्। खलानाम् (अयुवन्त) यु मिश्रणामिश्रणयोः−आत्मनेपदं छान्दसम्। अयुवन्। पृथक् कृतवन्तः (मायाः) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति माङ् माने-य। टाप्। प्रज्ञाः-निघ० ३।९। छलानि। मिथ्याजालान् (अग्निना) परमात्मना (पणीन्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पण व्यवहारे स्तुतौ च-इन्। पणिर्वणिग्भवति पणिः पणनात्-निरु० २।१७। कुव्यवहारिणः पुरुषान् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् पुरुषः (जिगाय) जि जये-लिट्। जितवान् अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥

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    विषय

    बलद्योतन+माया-हनन+पणि-पराजय

    पदार्थ

    १. (येन युजा) = जिस मित्र के द्वारा-जिससे युक्त होकर (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (बलम् अद्योतयन्) = अपने बल को घोतित करते हैं और (येन) = जिसके द्वारा (असुराणाम्) = असुर वृत्तियों की (मायाः) = व्यामोहन शक्तियों को (अयुवन्त) = देव लोग अपने से पृथक् करते हैं और (येन अग्निना) = जिस अग्रणी प्रभु के द्वारा (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (पणीन् जिगाय) = वणिक् वृत्तियों को कृपणता के भावों को जीतता है, (स:) = वे प्रभु (नः) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतु) = मुक्त करें।

    भावार्थ

    प्रभु मित्रता में बल की वृद्धि होती है, असुरभाव हमें मोहित नहीं कर पाते, हम कार्पण्य से दूर रहते हैं। इसप्रकार प्रभु-मित्रता हमें पापों से बचाती है।

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    भाषार्थ

    (येन युजा) जिसके सहयोग द्वारा (ऋषयः) ऋषियों ने (बलम्) निजबल को (अद्योतयन्) चमकाया, (येन) जिसके सहयोग द्वारा (असुराणाम्) देवासुर-संग्राम में आसुरभावों की (मायाः) छल-कपट की प्रवृत्तियों को उन्होंने (अयुवन्त) निज जीवनों से पृथक् किया, (येन अग्निना) जिस अग्नि द्वारा (इन्द्रः) विशुद्धावस्था में जीवात्मा ने (पणीन्) निज दुर्व्यवहारों को (जिगाय) जीता, (सः) वह परमेश्वराग्नि (नः) हमें (अंहस:) पाप से (मुञ्चतु) छुड़ाएं।

    टिप्पणी

    [अयुवन्त= यु अमिश्रणे (अदादिः)। पणीन्= पण व्यवहारे (भ्वादिः); दुर्व्यवहार मन्त्र में अभिप्रेत हैं।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    जिस प्रकार इस अग्नि की सहायता से बल या शक्ति को पदार्थ विज्ञानवेत्ता उत्पन्न कर लेते और नाना प्रकार के बल सामर्थ्य के अद्भुत चमत्कारी कार्य करते हैं और दुष्टों का विनाश करते हैं उसी प्रकार (येन) जिस परमात्मा के (युजा) सहायक होने से (ऋषयः) विज्ञान के सत्य तत्वों को गहराई पर भी देख लेने वाले (बलम्) अपने परम आत्मसामर्थ्य को (अद्योतयन्) प्रकाशित करते हैं। और (येन) जिसकी सहायता से (असुराणाम्) प्राणों में रमण करने वाली इन्द्रियों की (मायाः) ज्ञान और कर्मवृत्तियों को (अयुवन्त) पृथक् २ कर के उनको वश करते हैं। अथवा ‘असुर’ बलवान् प्राणों के वेगों को वश करते हैं। और (येन) जिस (अग्निना) अग्नि के बल पर (इन्द्रः) जीव (पणीन्) व्यवहार करने वाले इन्द्रियों को (जिगाय) वश करता है (सः नः अंहसः मुञ्चतु) वह हमें पाप से मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। इतः परं सप्त मृगारसंज्ञानि सूक्तानि तत्र नाना देवताः। ३ पुरस्ता-ज्ज्योतिष्मती। ४ अनुष्टुप्। ६ प्रस्तार पंक्तिः॥ १-२, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Deliverance from Sin

    Meaning

    May Agni, divine friendly power by which visionary sages light up their power of the mind and spirit, by which the uncanny forces of the evil are thrown off, and by which Indra, the mighty soul, wins over the stinginess, fear and negativities of small minds and social forces, that Agni, we pray, may save us from sin and distress.

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    Translation

    With whom as a friend the seers (the Rishis) showed their strength; with whom the enlightened ones broke through the wiles (maya) of the self-seekers; with whom, the fire-divine, the resplendent self wins over the barterers (pani). As such, may he free us from sin.

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    Translation

    This is the fire whereby the Cognitive and active Organs of the body strengthen their splendor, through Whose cooperation the activities of Vital airs are distinguished, with which Indra, the mighty sun conquered the Panis, the clouds.

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    Translation

    May that God deliver us from sin, through Whose aid the sages give their power new splendor, and keep aloof the devices of devilish people, and through Whose aid the soul subdues the sinners.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(येन) अग्निना परमेश्वरेण (ऋषयः) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० २।१। साक्षात्कृतधर्म्माणः। सन्मार्गदर्शकाः। अतीन्द्रियार्थदर्शिनः (बलम्) सामर्थ्यम् (अद्योतयन्) द्युत दीप्तौ णिचि लङि रूपम्। अदीपयन् (युजा) सख्या, मित्रेण सह (असुराणाम्) सुरविरोधिनाम्। खलानाम् (अयुवन्त) यु मिश्रणामिश्रणयोः−आत्मनेपदं छान्दसम्। अयुवन्। पृथक् कृतवन्तः (मायाः) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति माङ् माने-य। टाप्। प्रज्ञाः-निघ० ३।९। छलानि। मिथ्याजालान् (अग्निना) परमात्मना (पणीन्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पण व्यवहारे स्तुतौ च-इन्। पणिर्वणिग्भवति पणिः पणनात्-निरु० २।१७। कुव्यवहारिणः पुरुषान् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् पुरुषः (जिगाय) जि जये-लिट्। जितवान् अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥

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