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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः देवता - मन्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
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    सह॑स्व मन्यो अ॒भिमा॑तिम॒स्मै रु॒जन्मृ॒णन्प्र॑मृ॒णन्प्रेहि॒ शत्रू॑न्। उ॒ग्रं ते॒ पाजो॑ न॒न्वा रु॑रुध्रे व॒शी वशं॑ नयासा एकज॒ त्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सह॑स्व । म॒न्यो॒ इति॑ । अ॒भिऽमा॑तिम् अ॒स्मै । रु॒जन् । मृ॒णन् । प्र॒ऽमृ॒णन् । प्र । इ॒हि॒ । शत्रू॑न् । उ॒ग्रम् । ते॒ । पाज॑: । न॒नु । आ । रु॒रु॒ध्रे॒ । व॒शी । वश॑म् । न॒या॒सै॒ । ए॒क॒ऽज॒ । त्वम् ॥३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्व मन्यो अभिमातिमस्मै रुजन्मृणन्प्रमृणन्प्रेहि शत्रून्। उग्रं ते पाजो नन्वा रुरुध्रे वशी वशं नयासा एकज त्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्व । मन्यो इति । अभिऽमातिम् अस्मै । रुजन् । मृणन् । प्रऽमृणन् । प्र । इहि । शत्रून् । उग्रम् । ते । पाज: । ननु । आ । रुरुध्रे । वशी । वशम् । नयासै । एकऽज । त्वम् ॥३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (मन्यो) हे क्रोध ! (अस्मै) इस पुरुष के लिये (अभिमातिम्) अभिमानी शत्रु को (सहस्व) दबा दे, और (शत्रून्) वैरियों को (रुजन्) तोड़ता हुआ, (मृणन्) मारता हुआ, (प्रमृणान्) कुचलता हुआ (प्रेहि) चढ़ाई कर। (ते) तेरे (उग्रम्) उग्र (पाजः) बल को (ननु) कभी नहीं (आ रुरुध्रे) वे रोक सके। (एकज) हे एक [परमात्मा] से उत्पन्न हुए (वशी) बलवान् (त्वम्) तू [उनको] (वशम्) वश में (नयासै) लेआ ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य क्रोध करके अभिमान आदि शत्रुओं को जीतकर अपनी इन्द्रियों को वश में रक्खे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(सहस्व) अभिभव (मन्यो) म० १। हे क्रोध ! (अभिमातिम्) अ० २।६।३। अभिमन्तारं शत्रुम् (अस्मै) अस्य जनस्य हितार्थम् (रुजन्) भञ्जन् (मृणन्) हिंसन् (प्रमृणन्) प्रकर्षेण नाशयन् (प्रेहि) प्रगच्छ (शत्रून्) शातयितॄन् वैरिणः (उग्रम्) प्रचण्डम् (ते) त्वदीयम् (पाजः) पातेर्बले जुट् च। उ० ४।२०३। इति पा रक्षणे-असुन्, जुट् च। बलम्-निघ० २।९। (ननु) न नुदति, प्रेरयतीति। हरिमितयोर्द्रुवः। उ० १।३४। इति न+णुद प्रेरणे-कु, स च डित्। प्रश्नेनैव (आ) समन्तात् (रुरुध्रे) रुधिर् आवरणे लिटि छान्दसं रूपम्। रुरुधिरे। रुद्धवन्तः। आवृतवन्तः केचित्शत्रवः (वशी) वशयिता स्वतन्त्रः (वशम्) अधीनत्वम् (नयासै) लेटि रूपम्। नय। प्रापय शत्रून् (एकज) एकस्मात्परमेश्वराज्जात ! (त्वम्) ॥

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    विषय

    ज्ञान द्वारा अभिमान का विनाश

    पदार्थ

    १. हे (मन्यो) = ज्ञान! तू (अस्मै) = हमारे लिए (अभिमातिम्) = अभिमानरूप शत्रु को (सहस्व) = कुचल डाल। (शत्रून्) = इन काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (रुजन्) = भग्न करते हुए (मृणन्) = कुचलते हुए और (प्रमृणन्) = एकदम मसलते हुए (प्रेहि) = प्रकर्षेण आगे बढ़नेवाला हो। २. (ते पाज:) = तेरी शक्ति (उग्रम्) = अत्यन्त तेजोमय है| यह (नु) = अब न (आरूरुजरे) = रोकी नहीं जा सकती अथवा यह निश्चय से शत्रुओं का निरोध करती है| (त्वम्) = तु (एकज) = अकेला ही (वाशी) = सब शत्रुओं को वश में करनेवाला है और (वशं नयासा) = सब शत्रुओं को वशीभूत करता है |

    भावार्थ

    ज्ञानोपार्जन द्वारा हम अभिमानरूप शत्रु को दूर करें | यह ज्ञान हमारे काम - क्रोधादि सब शत्रुओं जी भस्म कर दे |

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    भाषार्थ

    (मन्यो) हे बोधयुक्त क्रोध! (अस्मै) इस राजा के लिए (अभिमातिम्) अभिमानी शत्रु को (सहस्व) पराभूत कर, (रुजन्) शत्रुदल का भग्न करता हुआ, (मृणन्) मारता हुआ, (प्र मृणन्) कुचलता हुआ तू (शत्रून्) शत्रुओं की ओर (प्रेहि) जा। हे मन्यु! (ते) तेरा (पाजः) बल (उग्रम्) उग्र है। (न, नु) निश्चय से नहीं (रुरुध्रे) अवरुद्ध किया जाता, तू (वशी) शत्रुओं को वश में करनेवाला है, (एकज) हे अकेला उत्पन्न ! (त्वम्) तू (वशम् नयासा) शत्रुओं को वश में ला।

    टिप्पणी

    [एकज= सम्बोधन में है। अकेले मन्यु की उग्र शक्ति का कथन हुआ है। नि:सहाय, अकेला-मन्यु भी शत्रु की पराजय सकता है-यह दर्शाया है। मन्यु के बिना सेना भी निःशक्त है। पाज: बलनाम (निघं० २।९); पा+अज:= जोकि निज पक्ष का पालक है, और शत्रु का प्रक्षेपक है (अज गतिक्षेपणयोः) (भ्वादिः)। नयासा= नयासै, लेट, आट्।]

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    विषय

    मन्यु, सेनानायक, आत्मा।

    भावार्थ

    हे मन्यो ! अर्थात् हे सेनानायक ! (अस्मै) इस राजा के (अभिमातिम्) शत्रु को (सहस्व) पराजित कर और (शत्रून्) शत्रुओं को (रुजन्) तोड़ता फोड़ता, (मृणन्, प्र-मृणन्) रोंदता पीसता हुआ उन तक (प्रेहि) जा पहुंच, उन पर चढ़ाई कर। (ननु) क्या वे (ते उग्रं पाजः) तेरे उग्र, प्रचण्ड बल को (आ ररुध्रे) रोंक सकते हैं ? नहीं, क्योंकि हे (एक-ज) अद्वितीय ! (त्वम्) तू (वशी) सब पर वश करने हारा होकर उन सब को (वशं नयासै) अपने वश में ले आता है। अध्यात्म पक्ष में—योगी अपने आत्मा को कहता है-मन्यो ! ज्ञानवान् ! आत्मन् ! इस आत्मा के अभिमान अहंकार को वश कर। काम, क्रोध आदि शत्रुओं के बल को बार २ तोड़, उनको दबा, पीस और आगे बढ़, तेरे प्रचण्ड बल को ये नहीं सह सकते। तू उन पर एकला वश कर लेता है।

    टिप्पणी

    कबीर सोई सूरमा जाके पांचों हाथ। जाके पांचों बस नहीं तेहि गुरु संग न जाय॥ सूरमा का अङ्ग ५४॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ। २, ४ भुरिजौ। ५- ७ जगत्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    High Spirit of Passion

    Meaning

    O wrath of justice, rectitude and dispensation, arise, challenge the adversaries for our system, breaking, smashing, eliminating the forces of negation. Blazing is your force and courage, none to obstruct and stop your advance. You are the master, all in control, leader of the forces of predominance, sole one born of divinity without an equal.

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    Translation

    O Wrath, may you overwhelm the arrogant enemy for us. Come-on breaking killing, battering and slaughtering the foes. Formidable is your might and it can certainly be not impeded by any one. O born of one only, you are the controller and you put all others under you control. (Also Rg.X.84.3)

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    Translation

    Let this warm emotion slay the foeman of this King, let it march forward breaking, slaying, crushing down the enemies. They surely cannot hinder its impetuous vigor and let this sole controlling incitement reduce them to subjugation.

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    Translation

    O persevering general, conquer the foe of this king. Go forward, breaking, slaying, crushing down the foemen. They cannot hinder thine impetuous vigor: mighty, sole born, reduce them to subjection!

    Footnote

    Sole born: Having none to equal thee in strength, unequalled, unparalleled.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सहस्व) अभिभव (मन्यो) म० १। हे क्रोध ! (अभिमातिम्) अ० २।६।३। अभिमन्तारं शत्रुम् (अस्मै) अस्य जनस्य हितार्थम् (रुजन्) भञ्जन् (मृणन्) हिंसन् (प्रमृणन्) प्रकर्षेण नाशयन् (प्रेहि) प्रगच्छ (शत्रून्) शातयितॄन् वैरिणः (उग्रम्) प्रचण्डम् (ते) त्वदीयम् (पाजः) पातेर्बले जुट् च। उ० ४।२०३। इति पा रक्षणे-असुन्, जुट् च। बलम्-निघ० २।९। (ननु) न नुदति, प्रेरयतीति। हरिमितयोर्द्रुवः। उ० १।३४। इति न+णुद प्रेरणे-कु, स च डित्। प्रश्नेनैव (आ) समन्तात् (रुरुध्रे) रुधिर् आवरणे लिटि छान्दसं रूपम्। रुरुधिरे। रुद्धवन्तः। आवृतवन्तः केचित्शत्रवः (वशी) वशयिता स्वतन्त्रः (वशम्) अधीनत्वम् (नयासै) लेटि रूपम्। नय। प्रापय शत्रून् (एकज) एकस्मात्परमेश्वराज्जात ! (त्वम्) ॥

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