अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
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वि॑जेष॒कृदिन्द्र॑ इवानवब्र॒वोस्माकं॑ मन्यो अधि॒पा भ॑वे॒ह। प्रि॒यं ते॒ नाम॑ सहुरे गृणीमसि वि॒द्मा तमुत्सं॒ यत॑ आब॒भूथ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒जे॒ष॒ऽकृत् । इन्द्र॑:ऽइव । अ॒न॒व॒ऽब्र॒व: । अ॒स्माक॑म् । म॒न्यो॒ इति॑ । अ॒धि॒ऽपा: । भ॒व॒ । इ॒ह । प्रि॒यम् । ते॒ । नाम॑ । स॒हु॒रे॒ । गृ॒णी॒म॒सि॒ । वि॒द्म । तम् । उत्स॑म् । यत॑: । आ॒ऽब॒भूथ॑ ॥३१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवोस्माकं मन्यो अधिपा भवेह। प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं यत आबभूथ ॥
स्वर रहित पद पाठविजेषऽकृत् । इन्द्र:ऽइव । अनवऽब्रव: । अस्माकम् । मन्यो इति । अधिऽपा: । भव । इह । प्रियम् । ते । नाम । सहुरे । गृणीमसि । विद्म । तम् । उत्सम् । यत: । आऽबभूथ ॥३१.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संग्राम में जय पाने का उपदेश।
पदार्थ
(मन्यो) हे क्रोध ! (अनवब्रवः) नीच वचन न बोलनेवाला, (विजेषकृत्) विजय करनेवाला तू (इन्द्रः इव) बड़े प्रतापी पुरुष के समान (इह) यहाँ पर (अस्माकम्) हमारा (अधिपाः) बड़ा स्वामी (भव) हो। (सहुरे) हे शक्तिमान् (ते) तेरा (प्रियम्) प्रिय (नाम) नाम (गृणीमसि) हम सराहते हैं। (तम्) उस (उत्सम्) स्रोता [परमेश्वर को] (विद्म) हम जानते हैं (यतः) जिससे (आबभूथ) तू आकर प्रकट हुआ है ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य अदीन वचन बोलते हैं, वे ही विजयी होकर कीर्त्ति पाते हैं ॥५॥
टिप्पणी
५−(विजेषकृत्) वृतॄवदि०। उ० ३।६२। इति जि जये-स। विजेषस्य विजयस्य कर्ता (इन्द्रः इव) प्रतापी पुरुषो यथा (अनवब्रवः) अन्+अव+ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-पचाद्यच्। निपातनात्साधुः। अनवनतवचनः। उन्नतवचनः (अस्माकम्) (मन्यो) हे क्रोध (अधिपाः) पा रक्षणे-विच्। अधिकं पालकः (भव) (इह) अत्र संग्रामे (प्रियम्) प्रीतिकरम् (ते) तव (नाम) (सहुरे) म० २। हे शक्तिमन् (गृणीमसि) गॄ शब्दे। गृणीमः स्तुमः (विद्म) जानीमः (तम्) (उत्सम्) अ० ३।२४।४। निर्झरम्। कूपम्। परमेश्वरमित्यर्थः (यतः) यस्मात्स्थानात् (आ बभूथ) आगत्य प्रादुर्बभूविथ ॥
विषय
'ज्ञान की चरमसीमा' प्रभु
पदार्थ
१. हे (मन्यो) = ज्ञान ! तू (विजेषकृत्) = विजय प्राप्त करनेवाला है (इन्द्रः इव) = एक जितेन्द्रिय पुरुष की भांति तुझे (अनब्रवः) = हुँकार द्वारा पराजित करके भगाया नहीं जा सकता | काम - क्रोधादि की हुँकार तुझे उसी प्रकार भयभीत नहीं कर पाती जैसेकि एक दितेद्रिय पुरुष को आसुरवृत्तियाँ पराजित नहीं कर पाती | हे ज्ञान ! तू (इह) = इस जीवन - यज्ञ में (अस्माकम्) = हमारा (अधिपः भव) = रक्षक हो | २. हे (सहुरे) = शत्रुओं का मार्षक करनेवाले ज्ञान ! हम (ते) = तेरे प्रियम = प्रिय (नाम गृण मसि ) = नाम उचचारण करते हैं | अर्थात ज्ञान की महिमा को हृदय में अंकित करने के लिए आपका स्तवन कटे हैं और ज्ञान के महत्त्व जी समझते हुए (तम् उत्सम्) = यस स्त्रोत को भी (विझ्) = जानते हैं यतः आबभूथ = जहाँ से कि यह ज्ञान उत्पन्न होता है | इस ज्ञान के स्त्रोत प्रभु का ज्ञान ही ज्ञान की चरमसीमा है | यहाँ पहुँचने पर सब पापों का ध्वंस हो जाता है |
भावार्थ
ज्ञान काम आदि का प्रभाव व ध्वंस करता है | यही हमारा रक्षक है | ज्ञान के स्त्रोत प्रभु का दर्शन ही ज्ञान की चरमसीमा है , एवं ज्ञान - प्राप्ति ही उपासना है |
भाषार्थ
(विजेषकृत) विजयकारी (इन्द्रः इव) सम्राट् के सदृश, (अनवब्रवः) विरोध में अवचनीय (मन्यो) हे बोधयुक्त क्रोध! तू (इह) इस संग्राम में (अस्माकम्) हमारा (अधिपाः) अधिपालक अर्थात रक्षक नेता (भव) हो; (सहुरे) हे पराभव करनेवाले। (ते) तेरे (प्रियं नाम) प्रियनाम [मन्यु] का (गृणीमसि) हम उच्चारण करते हैं, स्तवन करते हैं। (तम, उत्सम) उस स्रोत को (विद्म) हम जानते है, (यतः) जहाँ से तु (आवभूथ) आ प्रकट हुआ है।
टिप्पणी
[इन्द्रः= सम्राट् "इन्द्रश्च सम्राट्" (यजु:० ८।३७)। अनवब्रवः-= अ+न्+अव+ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि (अदादि:)। अभिप्राय यह कि जैसे विजय द्वारा प्राप्त अधिकार के विरोध में सम्राट् अवचनीय अनिन्दनीय होता है, वैसे हे मन्यु! तुझ द्वारा विजय प्राप्त अधिकार के विरोध में तू भी व्यक्त वाणी में, अवचनीय है, अर्थात् निन्दनीय नहीं होता। प्रियं नाम= मन्यु का नाम अर्थात् बोधयुक्त क्रोध प्रिय नाम है, बोध रहित क्रोधप्रिय नहीं, यह हानिकारक है। उत्सम्= हदयस्रोतः हदय, रक्तरूपी आपः, का स्रोत है= जहां से मन्यु की उत्पत्ति होती है। हृदय रक्तरूपी आपः का स्रोत है, यथा (अथर्व० १०।२।११)।]
विषय
मन्यु, सेनानायक, आत्मा।
भावार्थ
हे मन्यो ! सेनानायक ! (इन्द्रः-इव) राजा के समान (विजेषकृत्) विजयशील होता हुआ (अ-नव-ब्रवः) सनातन युद्ध मार्गों का उपदेष्टा है। तू (इह) इस राष्ट्र में (अस्माकम्) हमारा (अघि-पाः) रक्षक (भव) हो। हे (सहुरे) सहनशील ! शत्रु का पराजय करनेहारे ! (ते प्रियं नाम) तेरे प्रति प्रिय वचनों का हम निश्चय से (गृणीमसि) उच्चारण करते हैं। (तम्) उस (उत्सं) उत्पत्ति स्थान को (विद्म) हम जानते हैं (यतः) जहां से तू भी (आ-बभूथ) उत्पन्न हुआ है, अर्थात् तू भी उसी राष्ट्र का है जिस राष्ट्र की कि हम प्रजा हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ। २, ४ भुरिजौ। ५- ७ जगत्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
High Spirit of Passion
Meaning
Uncontradicted, irreproachable, victorious like Indra, O Manyu, be our protector and promoter here throughout life. For sure, O spirit of courage, forbearance and victory, we adore you, dear and adorable for all. We know where you arise from, fountain head of the lust for life, inspiration and victory: Dharma and universal love of life.
Translation
O Wrath or fury, you are maker of victorious. Like the resplendent king, Indra, not to be talked down you lead to victory. Now ,may you become our master here. o conquering one, we do praise your pleasing name. We know the fount out of which you are born.
Translation
Let this zeal which is unyielding and bringing victory like a mighty commander, be here our sovran ruler. Let us praise the dear name of this victorious incitement and we know the spring from which this is born.
Translation
O persevering general, never using a language of despair, bringing victory like the king, be thou here our Sovran ruler. To thy dear name, O victory, we sing praises. We know the spring from which thou art come hither.
Footnote
Here: In this battlefield. Spring: The divine transcendental source i.e., God. It may also mean, thou belongest to the same country of which we are the subjects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(विजेषकृत्) वृतॄवदि०। उ० ३।६२। इति जि जये-स। विजेषस्य विजयस्य कर्ता (इन्द्रः इव) प्रतापी पुरुषो यथा (अनवब्रवः) अन्+अव+ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-पचाद्यच्। निपातनात्साधुः। अनवनतवचनः। उन्नतवचनः (अस्माकम्) (मन्यो) हे क्रोध (अधिपाः) पा रक्षणे-विच्। अधिकं पालकः (भव) (इह) अत्र संग्रामे (प्रियम्) प्रीतिकरम् (ते) तव (नाम) (सहुरे) म० २। हे शक्तिमन् (गृणीमसि) गॄ शब्दे। गृणीमः स्तुमः (विद्म) जानीमः (तम्) (उत्सम्) अ० ३।२४।४। निर्झरम्। कूपम्। परमेश्वरमित्यर्थः (यतः) यस्मात्स्थानात् (आ बभूथ) आगत्य प्रादुर्बभूविथ ॥
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