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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
    1

    यत्ते॒ अपो॑दकं वि॒षं तत्त॑ ए॒तास्व॑ग्रभम्। गृ॒ह्णामि॑ ते मध्य॒ममु॑त्त॒मं रस॑मु॒ताव॒मं भि॒यसा॑ नेश॒दादु॑ ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । अप॑ऽउदकम् । वि॒षम् । तत् । ते॒ । ए॒तासु॑ । अ॒ग्र॒भ॒म् । गृ॒ह्णामि॑ । ते॒ । म॒ध्य॒मम् । उ॒त्ऽत॒मम् । रस॑म् । उ॒त । अ॒व॒मम् । भि॒यसा॑ । ने॒श॒त् । आत् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ ॥१३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते अपोदकं विषं तत्त एतास्वग्रभम्। गृह्णामि ते मध्यममुत्तमं रसमुतावमं भियसा नेशदादु ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । अपऽउदकम् । विषम् । तत् । ते । एतासु । अग्रभम् । गृह्णामि । ते । मध्यमम् । उत्ऽतमम् । रसम् । उत । अवमम् । भियसा । नेशत् । आत् । ऊं इति । ते ॥१३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दोषनिवारण के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो कुछ (ते) तेरा (अपोदकम्) जल [रुधिर] का सुखानेवाला (विषम्) विष है, (ते) तेरे (तत्) उसको (एतासु) इन [नाड़ियों] के भीतर (अग्रभम्) मैंने पकड़ लिया है। (ते) तेरे (मध्यमम्) मध्य के, (उत्तमम्) ऊपर के (उत) और (अवमम्) नीचे के (रसम्) रस को (गृह्णामि) मैं पकड़ता हूँ। (आत्) और (ते) वह तेरा (उ) निश्चय करके (भियसा) भय से (नशत्) नष्ट हो जावे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य विषरूपी आत्मदोषों को सर्वथा नष्ट करे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यत्) यत्किञ्चित् (ते) तव (अपोदकम्) अपगतजलम् (विषम्) (तत्) (ते) तव (एतासु) नाडीषु वर्तमानम् (अग्रभम्) अहं गृहीतवान् (गृह्णामि) आददे (ते) तव (मध्यमम्) मध्यदेशे भवम् (उत्तमम्) उपरिदेशे भवम् (रसम्) विषप्रभावम् (उत) अपि च (अवमम्) अवद्यावमा०। उ० ५।५४। इति अव रक्षणादौ−अम। अधमम् (भियसा) भूरञ्जिभ्यां कित्। उ० ४।२१७। ञिभी−असुन्। भयेन (नेशत्) नश्येत् (आत्) अनन्तरम् (उ) अवश्यम् (ते) तव रसः ॥

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    विषय

    विष की रुधिरशोषकता

    पदार्थ

    १. हे सर्प! (यत्) = जो (ते) = तेरा (अप उदकम्) = [जल से रहित] रुधिर को सुखा देनेवाला (विषम्) = विष है, (ते) = तेरे (तत्) = उस विष को (एतासु अग्रभम्) = इन नाड़ियों में पकड़ लेता हूँ। इसे इसप्रकार बाँध-सा देता हूँ कि यह सारे शरीर में फैल न जाए। २. मैं (ते) = तेरे (उत्तमं मध्यमम् उत अवमं रसम्) = प्रबल, मध्यम व निचली कोटि के, अर्थात् सामान्य विष को भी गृहामि-वश में करने का प्रयत्न करता हूँ। (आत् उ) = अब निश्चय से (ते) = तेरे (भियसा) = भय से भी (नेशत्) = मनुष्य नष्ट हो जाता है, अतः मैं तेरे नाममात्र अंश को भी दूर करने का प्रयत्न करता हूँ।

    भावार्थ

    सर्पविष रुधिर का शोषण कर देता है। इसे नाड़ियों में जहाँ-का तहाँ रोकने का प्रयत्न किया जाए। यह सारे शरीर में फैल न जाए। अब इसे शरीर से बाहर निकालने का यत्न किया जाए। इसके थोड़े-से अंश के भी शरीर में रह जाने से विनाश का भय होता है।

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    भाषार्थ

    (ते) तेरा (यत्) जो (अपोदकम्१) शरीर के रस-रक्त रूपी उदक को अपगत कर देनेवाला सुखा देनेवाला (विषम्) विष है (ते तत्) तेरे उस विष को (एतासु) इन नाड़ियों में (अग्रभम् ) मैंने पकड़ लिया है, फैलने नहीं दिया । (ते) तेरे (उत्तमम् ) ऊपर के भाग तक (मध्यमम्) शरीर के मध्यभाग तक, (उत) तथा (उत्तमम्) नीचे के भाग-टाँगों तक फैल जानेवाले (रसम्) विषरस को ( गृह्णामि) मैं पकड़ लेता हूँ, (ते ) तेरा विषरस (आत् उ) तवनन्तर (नेशत् ) नष्ट हो जाए, (भियसा) जैसे कि व्यक्ति भय के कारण नष्ट हो जाता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्रप्रवक्ता विषचिकित्सक है, या मनोबलवाला व्यक्ति है।] [१. अथवा तेत विष उदक-रहित हो जाए, द्रवरूप न रहे ताकि काटते समय तु सूखे विष का संचार न कर सके। अपोदकग् = waterless, (ह्विटिनी)।]

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    विषय

    सर्प विष चिकित्सा।

    भावार्थ

    हे नाग ! (यत्) जो तेरा (अप-उदकं) जल से रहित, रुधिर को सुखाने वाला शुद्ध (विषं) विष है (तत् ते) उस तेरे विष को (एतासु) इन नाड़ियों में भी (अग्रभम्) मैं पकड़ लूं, ऐसा थाम लूं कि वह शरीर में अधिक नहीं फैले। (ते उत्तमं, मध्यमं उत अवमं रसम्) तेरे प्रबल अर्थात् तीव्र कोटि के और निकृष्ट कोटि के इस विष को भी (गृह्णामि) मैं वश कर लेता हूं। (आत् उ) इतने पर भी यदि विष का थोड़ा बहुत अंश शरीर में न हो तो भी मनुष्य (ते भियसा) केवल तेरे भयमात्र से भी (नेशत्) नष्ट हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-३, जगत्यौ। २ आस्तारपंक्तिः। ४, ७, ८ अनुष्टुभः। ५ त्रिष्टुप्। ६ पथ्यापंक्तिः। ९ भुरिक्। १०, ११ निचृद् गायत्र्यौ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Snake Poison

    Meaning

    Your poison that is dehydrating and burning the blood in the blood vessels, I seize and draw out. I draw out your poison which may be of medium, high or low intensity and which must disappear by the force of the antidote.

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    Translation

    Your poison, that is dehydrating, I seize within these. I take your mid-most, and upmost power. Let the lowest power disappear due to my fear alone.

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    Translation

    I take that poison of the snake which makes the blood dry in these nerves. I take the middle-most, highest, lowest fluid of snake. Let it be spent lest the victim of snake die by reason of fear.

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    Translation

    O snake, I stop thy blood-sucking venom in the veins, and prevent it from spreading further in the body. I control thy poison of extreme, medium and ordinary intensity. Even when there is no trace of poison in the body, sometimes the victim dies out of thy fear alone.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यत्) यत्किञ्चित् (ते) तव (अपोदकम्) अपगतजलम् (विषम्) (तत्) (ते) तव (एतासु) नाडीषु वर्तमानम् (अग्रभम्) अहं गृहीतवान् (गृह्णामि) आददे (ते) तव (मध्यमम्) मध्यदेशे भवम् (उत्तमम्) उपरिदेशे भवम् (रसम्) विषप्रभावम् (उत) अपि च (अवमम्) अवद्यावमा०। उ० ५।५४। इति अव रक्षणादौ−अम। अधमम् (भियसा) भूरञ्जिभ्यां कित्। उ० ४।२१७। ञिभी−असुन्। भयेन (नेशत्) नश्येत् (आत्) अनन्तरम् (उ) अवश्यम् (ते) तव रसः ॥

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