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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
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    यदि॑ चि॒न्नु त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ रणे॑रणे अनु॒मद॑न्ति विप्राः। ओजी॑यः शुष्मिन्त्स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्दु॒रेवा॑सः क॒शोकाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । चि॒त् । नु। त्वा॒ । धना॑ । जय॑न्तम् । रणे॑ऽरणे । अ॒नु॒ऽमद॑न्ति । विप्रा॑: । ओजी॑य: । शु॒ष्मि॒न् । स्थि॒रम् । आ ।त॒नु॒ष्व॒ । मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । दु॒:ऽएवा॑स: । क॒शोका॑: ॥२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि चिन्नु त्वा धना जयन्तं रणेरणे अनुमदन्ति विप्राः। ओजीयः शुष्मिन्त्स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्दुरेवासः कशोकाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । चित् । नु। त्वा । धना । जयन्तम् । रणेऽरणे । अनुऽमदन्ति । विप्रा: । ओजीय: । शुष्मिन् । स्थिरम् । आ ।तनुष्व । मा । त्वा । दभन् । दु:ऽएवास: । कशोका: ॥२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) जो (चित्) निश्चय करके (विप्राः) पण्डित जन (रणेरणे) प्रत्येक रण में (नु) शीघ्र (धना) धनों को (जयन्तम्) जीतनेवाले (त्वा) तेरे (अनु मदन्ति) पीछे-पीछे आनन्द पाते हैं। (शुष्मिन्) हे बलवन् परमात्मन् ! (ओजीयः) अधिक बलवान् (स्थिरम्) स्थिर मोक्षसुख (आ) सब ओर से (तनुष्व) फैला। (दुरेवासः=दुरेवाः) दुष्ट गतिवाले (कशोकाः) परसुख में शोक करनेवाले जन (त्वा) तुझ को (मा दभन्) न सतावें ॥४॥

    भावार्थ

    बुद्धिमान् मनुष्य विघ्नों को हटाकर कठिन-कठिन कार्य सिद्ध करके स्थिर सुख पाते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(यदि) सम्भावनायाम् (चित्) एव (नु) क्षिप्रम् (त्वा) त्वाम् (धना) धनानि (जयन्तम्) जयेन प्राप्नुवन्तम् (रणेरणे) सर्वस्मिन् युद्धे (अनुमदन्ति) अनुसृत्य हृष्यन्ति (विप्राः) मेधाविनः (ओजीयः) ओजस्वि−ईयसुन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। इति विनो लुक्, टिलोपः। बलवत्तरम् (शुष्मिन्) हे बलवन् (स्थिरम् निश्चलं मोक्षसुखम् (आ) समन्तात् (तनुष्व) विस्तारय (मा दभन्) मा हिंसन्तु (त्वा) त्वाम् (दुरेवासः) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति दुर्+इण् गतौ−वन्, असुक्। दुर्गतयः पुरुषाः (कशोकाः) कं सुखम्−निघ० ३।६। के परसुखे शोकः खेदो येषां ते ॥

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    विषय

    लक्ष्मी के साथ विष्णु

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि (नु) = अब (चित्) = निश्चय से (विप्रा:) = जानी पुरुष (रणेरणे) = प्रत्येक संग्राम में धना (जयन्तं त्वा) = धनों का विजय करनेवाले आपको (अनुमदन्ति) = अनुकूलता से स्तुत करते हैं तो हे (शुष्मिन्) = शत्रु-शोषक बलवाले प्रभो! आप (ओजीयः) = ओजस्वितावाले (स्थिरम्) = स्थिर धन को (आतनुष्व) = हमारे लिए विस्तृत करो। हमें धन प्राप्त हो। हमारा धन हमारी ओजस्विता को बढ़ानेवाला हो और चित्तवृत्ति को स्थिर करनेवाला हो। २. इसके कारण हमारे जीवनों में (दुरेवास:) = दुर्गमनवाले-अशुभ आचरणवाले (कशोका:) = [क-शोकाः] पर-सुख में शोक करनेवाले ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि के भाव (त्वा मा दभन्) = आपको हिंसित न कर दें, अर्थात् धनों में आसक्त होकर हम आपको न भूल जाएँ।

    भावार्थ

    हम धनों के विजेता प्रभु का स्मरण करें। प्रभु-स्मरण के साथ प्राप्त धन हमारे अन्दर स्थिर ओज को प्राप्त करानेवाले हों। धनों में आसक्त होकर हम ईष्या-द्वेष आदि में फंसकर प्रभु को न भूल जाएँ।

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    भाषार्थ

    हे सद्गृहस्थ ! (यदि चित् तु) यदि अब (रणेरणे) देवासुर-संग्रामों में, (धना जयन्तम्) आसुरी सम्पत्ति को जीतते हुए (त्वा) तुझे, (विप्राः) मेधावी लोग (अनुमदन्ति) अनुमोदन करते हैं, तो (शुष्मिन्) हे बलशाली ! (ओजीयः) निज ओजस्वी धनुष् को (स्थिरम्) स्थिर रूप में (आ तनुष्व ) ताने रख, ताकि (दुरेवास:) दुर्गंतिवाले, (कशोकाः) दुर्गति के निवासरूप असुर (त्वा) तुझे ( मा दभन् ) हित न करें।

    टिप्पणी

    [यदि मोक्ष और सांसारिक मार्ग इन दोनों पर चलते हुए [ मन्त्र ३] तुझे आसुरी भावनाएँ बाधा उपस्थित करती हैं, और उन बाधाओं को जिस विधि से तू परास्त करता है और विप्र लोग यदि उस विधि का अनुमोदन करते हैं, तो आसुरी भावनाओं को पराजित करते रहने के लिए निज आध्यात्मिक शस्त्रास्त्रों को सदा सुसज्जित रख । नु= सम्प्रति, अब; यथा "नू चित् इति निपातः पुराणनवयोः” (निरुक्त ४ । ३। १७ ), मन्त्रपठित नु चित्=नू चित् (निरुक्त) । दुरेवास:- दुरेवाः, दुर् + एवा: एवै:= अयनैः (निरुक्त २।७।२५) कशोका:= कश ( गति, दुर्गति)+ ओकस घर । अन्यत्र पाठ है "यातुधाना दुरेवाः"। "रणे-रणे" में द्विरुक्ति है । देवासुर - संग्राम में नानाविध असुर हैं, यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि । इनकी पराजय के लिए नाना प्रकार के युद्ध करने होते हैं, और नानाविध शस्त्रास्त्रों का अवलम्बन करना होता है। यथा काम के पराजय के लिए शस्त्रास्त्र हैं, पवित्र विचार, महात्माओं का संग, सच्छास्त्रों का स्वाध्याय, उपन्यासों को न पढ़ना, कामोद्दीपक दृश्यों को न देखना, न कामोद्दीपक रागों को सुनना आदि । इसी प्रकार अन्य आसुरी भावों में भी इनपर विजय के लिए भिन्न-भिन्न शस्त्रास्त्र हैं। क्रोध के सम्बन्ध में शस्त्रास्त्र है, क्षमा । समग्र सूक्त आध्यात्मिक भावनाओं और साधनों से ओत-प्रोत है।

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यदि चित् नु) जब (धना जयन्तं) धन सम्पत्तियों के समान योगज विभूतियों पर विजय करते हुए तुझ योगाभ्यासी आत्मा को देखकर (रणे-रणे) प्रत्त्येक देवासुर संग्राम में (विप्राः) मेधावी विद्वान् लोग और आत्मा के इन्द्रियगण (अनु-मदन्ति) तेरे विजय के साथ हर्षित होते हैं। हे (शुष्मिन्) बलवन् ! हे (ओजीयः) सब में अधिक शक्तिशालिन् ! सब पर आतङ्क रखने वाले। तू राजा के समान अपने को योगसाधन में (स्थिरम्) स्थिर अविचल, कूटस्थ, (आ तनुष्व) बनाये रख। (त्वा) तुझ को (कशोकाः) व्यथाएं और (दूरेवासः) दुर्गतियां (मा दभन्) योग-मार्ग में व्यथित न करें।

    टिप्पणी

    “तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।” (कठ० उप०)।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिव अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-८ त्रिष्टुभः। ९ भुरिक् परातिजागता त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma, the Highest

    Meaning

    Thus with joy in every battle of life, on every occasion of life grateful people and vibrant sages celebrate and exalt you, winner, creator and giver of wealth and excellence. Illustrious lord of shattering power, expand the common-wealth of permanent values. Let not the crooked and fiendish forces on the prowl suppress the creative gifts of divine generosity.

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    Translation

    Verily, the pious sages praise you, O giver of wealth in your repeated wars and contests. O omnipotent God, may you extend your firmness; may not malignant and wicked ever harm you. (Also Rg. X.120.4)

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    Translation

    The learned persons when win the worldly and unworldly wealth in the battle of life, exult in Thee, O Lord Almighty; Please extend your perpetual lustrous happiness to us. The persons who are malevolent and jealous cannot inflict any harm to Thee.

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    Translation

    If verily in every war the sages joy and exalt in thee who winnest treasures, with mightier power, strong king, extend thy firmness: let not sinful and sorrowful persons harm thee!

    Footnote

    Thee refers to the king.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(यदि) सम्भावनायाम् (चित्) एव (नु) क्षिप्रम् (त्वा) त्वाम् (धना) धनानि (जयन्तम्) जयेन प्राप्नुवन्तम् (रणेरणे) सर्वस्मिन् युद्धे (अनुमदन्ति) अनुसृत्य हृष्यन्ति (विप्राः) मेधाविनः (ओजीयः) ओजस्वि−ईयसुन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। इति विनो लुक्, टिलोपः। बलवत्तरम् (शुष्मिन्) हे बलवन् (स्थिरम् निश्चलं मोक्षसुखम् (आ) समन्तात् (तनुष्व) विस्तारय (मा दभन्) मा हिंसन्तु (त्वा) त्वाम् (दुरेवासः) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति दुर्+इण् गतौ−वन्, असुक्। दुर्गतयः पुरुषाः (कशोकाः) कं सुखम्−निघ० ३।६। के परसुखे शोकः खेदो येषां ते ॥

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