अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 113/ मन्त्र 3
द्वा॑दश॒धा निहि॑तं त्रि॒तस्याप॑मृष्टं मनुष्यैन॒सानि॑। ततो॒ यदि॑ त्वा॒ ग्राहि॑रान॒शे तां ते॑ दे॒वा ब्रह्म॑णा नाशयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठद्वा॒द॒श॒ऽधा । निऽहि॑तम् । त्रि॒तस्य॑ । अप॑ऽमृष्टम् । म॒नु॒ष्य॒ऽए॒न॒सानि॑ । तत॑: । यदि॑। त्वा॒। ग्राहि॑: । आ॒न॒शे । ताम् । ते॒ ।दे॒वा: । ब्रह्म॑णा । ना॒श॒य॒न्तु॒ ॥११३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठद्वादशऽधा । निऽहितम् । त्रितस्य । अपऽमृष्टम् । मनुष्यऽएनसानि । तत: । यदि। त्वा। ग्राहि: । आनशे । ताम् । ते ।देवा: । ब्रह्मणा । नाशयन्तु ॥११३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप शुद्ध करने का उपदेश।
पदार्थ
(द्वादशधा) बारह [मन और बुद्धि सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों] में (निहितम्=०−तानि) ठहरे हुए (मनुष्यैनसानि) मनुष्यों के पाप (त्रितस्य−त्रितेन) त्रित परमेश्वर करके [वेद द्वारा] (अपमृष्टम्=०−ष्टानि) शुद्ध किये गये हैं। (ततः) इस पर भी (यदि) जो... म० १ ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य इन्द्रियों के विकार से उत्पन्न पापों को वेदज्ञान द्वारा विद्वानों के सत्सङ्ग से सर्वथा शोधकर सदा सुखी रहें ॥३॥ इत्येकादशोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
३−(द्वादशधा) द्वादशसु मनोबुद्धिसहितेषु दशसु ज्ञानकर्मेन्द्रियेषु (निहितम्) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इति बहुवचनस्यैकवचनम्। निहितानि। नितरां धृतानि। (त्रितस्य) तृतीयायाः षष्ठी। त्रितेन परमेश्वरेण (अपमृष्टम्) अपमृष्टानि। शोधितानि (मनुष्यैनसानि) अनसन्तान्नपुंसकाच्छन्दसि। पा० ५।४।१०३। इति टच्। मनुष्यपापानि। अन्यद् यथा−म० १ ॥
विषय
मनुष्यैनसानि
पदार्थ
१. (मनुष्यैनसानि) = मनुष्यों में आजानेवाले पाप (द्वादशधा) = बारह प्रकार के-पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों तथा मन और बुद्धि में (निहितम्) = स्थापित हुए हैं। हम इन्द्रियों, मन व बुद्धि से ही पाप कर बैठते हैं-('इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते')। ये सब पाप (त्रितस्य) = ज्ञान, कर्म व उपासना' का विस्तार करने से (अपमृष्टम्) = धुल जाते हैं। [त्रीन् तनोति] 'काम, क्रोध व लोभ'-इन तीनों को तैर जानेवालों के ये पाप नष्ट हो जाते हैं [त्रीन् तरति]। २. हे मनुष्य! (यदि) = यदि तुझमें (ग्राहिः) = गठिया आदि रोग (आनशे) = व्याप्त होते हैं तो (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (ते) = तेरे (ताम्) = उस ग्राहीरूप रोग को (ब्रह्मणा नाशयन्तु) = ज्ञान के द्वारा नष्ट कर डालें। ज्ञान से पापों का परिमार्जन [सफ़ाया] होता है और तब पापमूलक सब रोग भी विनष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ
हम ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मन व बुद्धि से हो जानेवाले पापों को 'ज्ञान, कर्म व उपासना' में लगकर नष्ट करनेवाले हों। ज्ञान के द्वारा ग्राही आदि रोग दूर हो जाएँ।
विशेष
पूर्ण नीरोग, निष्पाप व ज्ञानी बनकर यह 'ब्रह्मा' बनता है। अगले दो सूक्तों का ऋषि यह 'ब्रह्मा' ही है।
भाषार्थ
(त्रितस्य) तीन अवयवों वाले विस्तृत प्रकृतितत्त्व का (अपमृष्टम्) मार्जन द्वारा पृथक् हुआ पाप है (मनुष्यैनसानि) मनुष्यनिष्ठ नाना पाप और यह अपमृष्ट पाप (द्वादशधा) १२ प्रकार से (निहितम्) मनुष्यों में स्थापित हुआ है। (ततः) उन मनुष्यों के सम्पर्क से (त्वा) तुझे (यदि, ग्राहिः, आनशे) यदि पाप की जकड़न प्राप्त हुई है, तो (ते) तेरी (ताम्) उस ग्राहि को (देवाः) वैदिक विद्वान् (ब्रह्मणा) वेद विधि द्वारा अर्थात् वेदोपदेश द्वारा (नाशयन्तु) विनष्ट करें।
टिप्पणी
[त्रितः= तीन अवयवों वाला विस्तृत प्रकृति तत्त्व। तीन अवयव हैं सत्त्व, रजस् और तमस् और यह प्रकृति तत्त्व संसार में सूर्य, चन्द्र ग्रह, नक्षत्र और ताराओं तथा आकाश गङ्गा आदि रूपों में फैला हुआ है। त्रितः= त्रि+ तन् (विस्तारे) +ड: (औणादिक), डित होने से टि का लोप। शेष व्याख्या सूक्त के मन्त्र (१) में कर दी हैं। द्वादशधा= ५ पाप ज्ञानेन्द्रियों द्वारा, ५ कर्मन्द्रियों द्वारा, १ मानसिक विचारों द्वारा और १ माता पिता के रजस् और वीर्य द्वारा प्राप्त। यह "पित्र्य" एनस् है।]
विषय
पाप अपराध का विवेचन और दण्ड।
भावार्थ
(द्वादशधा) बारह प्रकार से (निहितम्) पाप स्थित रहता है, (त्रितस्य) इस पाप से तर गये का (अपसृष्टम्) वह पाप नष्ट हो जाता है, (मनुष्य-एनसानि) इस प्रकार मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, (ततः) तब भी हे जीव (यदि) अगर (त्वा) तुझे (ग्राहिः) बन्धनमय अविद्या (आनशे) लग जाय (ते) तेरे (तां) उस बन्धन को (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेद के द्वारा (देवाः) विद्वान् पुरुष (नाशयन्तु) दूर करें। पांच कर्मेन्द्रिय पाँच ज्ञानेन्द्रिय, और मन और बुद्धि ये १२ स्थान पाप के हो सकते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। पूषा देवता। १,२ त्रिष्टुभौ। पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom by Knowledge
Meaning
Twelve-fold are evils and negativities posited on humanity over five perceptive organs, five volitional organs, mind and intellect, and they are washed off by the lord of all time past, present and future. Then, O man, if sin and evil come and take you on, let brilliant sages cleanse you of that by divine knowledge.
Translation
The sin wiped off the mind (trita) and laid on men is kept in twelve forms (places). If due to that any disease has seized you, may the enlightened ones, with their knowledge, make that vanish from you.
Translation
The twelve kinds of sins committed by human-beings are laid in the soul which resides in three kinds of bodies. O man! if there comes bondage to you from that let the learned men make it disappear through the knowledge enclothed in the Vedic speech.
Translation
The sins of human beings, which God hath washed away, lie stored in twelve different places. Even then if, O soul, nescience has caught thee in its grip, the learned through Vedic knowledge shall remove it and free thee!.
Footnote
Twelve different places: five karama Indriyas, five jnan Indriyas; mind, and intellect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(द्वादशधा) द्वादशसु मनोबुद्धिसहितेषु दशसु ज्ञानकर्मेन्द्रियेषु (निहितम्) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इति बहुवचनस्यैकवचनम्। निहितानि। नितरां धृतानि। (त्रितस्य) तृतीयायाः षष्ठी। त्रितेन परमेश्वरेण (अपमृष्टम्) अपमृष्टानि। शोधितानि (मनुष्यैनसानि) अनसन्तान्नपुंसकाच्छन्दसि। पा० ५।४।१०३। इति टच्। मनुष्यपापानि। अन्यद् यथा−म० १ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal