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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शुनः शेप देवता - मन्याविनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मन्याविनाशन सूक्त
    1

    स॒प्त च॒ याः स॑प्त॒तिश्च॑ सं॒यन्ति॒ ग्रैव्या॑ अ॒भि। इ॒तस्ताः सर्वा॑ नश्यन्तु वा॒का अ॑प॒चिता॑मिव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । च॒ । या: । स॒प्त॒ति: । च॒ ।स॒म्ऽयन्ति॑ । ग्रैव्या॑: । अ॒भि । इ॒त: । ता: । सर्वा॑: । न॒श्य॒न्तु॒ । वा॒का: । अ॒प॒चिता॑म्ऽइव ॥२५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त च याः सप्ततिश्च संयन्ति ग्रैव्या अभि। इतस्ताः सर्वा नश्यन्तु वाका अपचितामिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । च । या: । सप्तति: । च ।सम्ऽयन्ति । ग्रैव्या: । अभि । इत: । ता: । सर्वा: । नश्यन्तु । वाका: । अपचिताम्ऽइव ॥२५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (सप्त) सात (च च) और (सप्ततिः) सत्तर (याः) जो पीड़ायें (ग्रैव्याः अभि) कण्ठ की नाड़ियों में (संयन्ति) सब ओर से व्यापती हैं (ताः सर्वाः) वे सब म० १ ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सप्त च सप्ततिश्च) सप्ताधिकसप्ततिसंख्यकाः (ग्रैव्याः) गम्भीराञ्ञ्यः। पा० ४।३।५८। इति बाहुलकात् ग्रीवा−ञ्य। ग्रीवासु भवा नाडीः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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    विषय

    नाड़ियों के विकार का निराकरण

    पदार्थ

    १. (या:) = जो (पञ्च च पञ्चाशत् च) = पाँच और पचास पीड़ाएँ (मन्याः अभि) = गले के पृष्ठ भाग की नाड़ियों में (संयन्ति) = व्याप्त होती हैं, (ताः सर्वाः) = वे सब (इत:) = यहाँ से इसप्रकार (नश्यन्त) = नष्ट हो जाएँ, (इव) = जैसे विद्वानों के सामने (अपचितां वाका:) = मूखों के वचन। २. (या:) = जो (सप्त च समतिः च) = सात और सत्तर पीड़ाएँ (ग्रैव्या: अभि) = गले की नाड़ियों में (संयन्ति) = व्याप्त हो जाती हैं, वे सब यहाँ से उसी प्रकार नष्ट हो जाएँ (इव) = जैसेकि ज्ञानियों के सामने (अपचिताम् वाका:) = मूखों के वचन नष्ट हो जाते हैं। (या:) = जो (नव च नवतिश्च) = नौ और नव्वे पीडाएँ (स्कन्ध्या: अभि) = कन्धों की नाडियों में (संयन्ति) = व्याप्त हो जाती हैं, वे सब यहाँ से इसप्रकार नष्ट हो जाएँ जैसेकि ज्ञानियों के सामने मूखों के वचन नष्ट हो जाते हैं।

    भावार्थ

    'मन्या, ग्रैव्य व स्कन्ध्य' नाड़ियों में विकार के कारण गण्डमाला का रोग प्रकट होता है। नाना प्रकार की फुसियों या गिलटियों से बना यह रोग जल के ठीक प्रयोग से दूर किया जाए, तभी जीवन सुखी होगा।

    विशेष

    शरीर के रोगों की भाँति मानस रोगों को दूर करनेवाला यह व्यक्ति 'ब्रह्मा' बनता है-बड़ा-एकदम निष्पाप । यही अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (याः) जो (सप्त च) सात और (सप्तति: च ) सत्तर (ग्रैव्याः) ग्रीवा की ग्रन्थियां (अभि) ग्रीवा के पीछे की ओर (संयन्ति) परस्वर साथ-साथ लगी हुई हैं (ताः सर्वाः) वे सब ( इत: ) इस प्रयोग से ( नश्यन्तु) नष्ट हो जांय (वाका अपचितामिव) पूर्ववत्।

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    विषय

    कण्ठमाला रोग का निदान और चिकित्सा।

    भावार्थ

    और (याः) जो (ग्रैव्याः) गर्दन में होनेवाली (सप्ते च सप्ततिः च) ७७ (सतहत्तर) प्रकार की गंडमालाएं (अभि संयन्ति) गर्दन पर आ जाती हैं (ताः) वे भी (अप चिताम् वाका: इव) बुरे माद्दे के संचय से उत्पन्न फोड़ों के समान होती हैं। (ताः सर्वाः इतः नश्यन्तु) वे सब इस गर्दन भाग से नष्ट हो जायं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप ऋषिः। मन्याविनाशनं देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manya-Vinashanam

    Meaning

    Let all the seven and seventy outgrowths and ailments of the throat which together afflict the patient be cured and disappear from here as words and wishes of ignorant fools disappear in the air.

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    Translation

    The seven and the seventy (pains), that go towards the region of neck, may all of them vanish from here like noises of noxious flying insects. (7-->70) (graivya abhi-towards neck)

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    Translation

    Let all the seven and seventy excrescences which develop round the upper vertebrae etc. etc.

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    Translation

    May all the seventy-seven afflictions that appear in the throat, depart and vanish hence away, like the words of the weak.

    Footnote

    Seventy-seven: Manifold.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सप्त च सप्ततिश्च) सप्ताधिकसप्ततिसंख्यकाः (ग्रैव्याः) गम्भीराञ्ञ्यः। पा० ४।३।५८। इति बाहुलकात् ग्रीवा−ञ्य। ग्रीवासु भवा नाडीः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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