अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
अ॒न्यत्रा॒स्मन्न्युच्यतु सहस्रा॒क्षो अम॑र्त्यः। यं द्वेषा॑म॒ तमृ॑च्छतु॒ यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमिज्ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । नि । उ॒च्य॒तु॒ । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्ष: । अम॑र्त्य: । यम् । द्वेषा॑म् । तम् । ऋ॒च्छ॒तु॒ । यम् । ऊं॒ इति॑ । द्वि॒ष्म: । तम् । इत् । ज॒हि॒ ॥२६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्यत्रास्मन्न्युच्यतु सहस्राक्षो अमर्त्यः। यं द्वेषाम तमृच्छतु यमु द्विष्मस्तमिज्जहि ॥
स्वर रहित पद पाठअन्यत्र । अस्मत् । नि । उच्यतु । सहस्रऽअक्ष: । अमर्त्य: । यम् । द्वेषाम् । तम् । ऋच्छतु । यम् । ऊं इति । द्विष्म: । तम् । इत् । जहि ॥२६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कष्ट त्यागने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(सहस्राक्षः) सहस्रों [दोषों] में दृष्टि रखनेवाला, (अमर्त्यः) मनुष्यों का हित न करनेवाला [विघ्न] (अस्मत्) हम से (अन्यत्र) दूसरों में (नि) नित्य (उच्यतु) प्राप्त हो। (यम्) जिसको (द्वेषाम) हम बुरा जानें, (तम्) उसको (ऋच्छतु) वह [विघ्न] प्राप्त हो। और (यम्) जिसको (उ) ही (द्विष्मः) हम बुरा जानते हैं, (तम्) उसको (इत्) ही (जहि) नाश कर ॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को अनेक दोषों के कारण बढ़े हानिकारक विघ्न रोकते हैं, इस लिये मनुष्यों को पुरुषार्थपूर्वक विघ्न हटाना योग्य है ॥३॥
टिप्पणी
३−(अन्यत्र) पापात्मसु (अस्मत्) अस्मत्तः। सुकर्मभ्यः (नि) नितराम् (उच्यतु) उच समवाये। गच्छतु (सहस्राक्षः) अ० ३।११।३। सहस्रेषु बहुषु दोषेषु अक्षि दृष्टिर्यस्य सः (अमर्त्यः) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति यत्। मर्त्येभ्यो मनुष्येभ्योऽहितः (यम्) विघ्नम् (द्वेषाम) अप्रीतिं करवाम (तम्) (ऋच्छतु) प्राप्नोतु (यम्) (उ) अवधारणे (द्विष्मः) अप्रीतिं कुर्मः (तम्) (इत्) एव (जहि) नाशय ॥
विषय
सहस्त्राक्षः अमर्त्य
पदार्थ
१. यह (सहस्त्राक्ष:) = [सहस्र-सहस्वत्-निरु० ३.२.४] इन्द्रियों पर प्रबल होनेवाले (अमर्त्यः) = नष्ट न होनेवाला-जिसका विनाश बड़ा कठिन है-वह पाप (अस्मत्) = हमसे (अन्यत्र) = अन्य स्थान में ही (न्युच्यतु) = निवासवाला हो। २. यह पाप तो (तम् ऋच्छतु) = उसे प्राप्त हो (यम्) = जिससे (द्वेषाम) = हम प्रीति नहीं करते। (उ) = निश्चय से (यं द्विष्मः) = जिससे हम प्रीति नहीं करते, हे (पाप्मन्) ! (तम् इत्) = उसे ही तू जहि-नष्ट करनेवाला हो-('हिंस्त्र: स्वपापेन विहिंसितः खलु साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते।')
भावार्थ
यह प्रबल पाप हमसे दूर ही निवास करे। जो सबका अप्रिय है, वही इस पाप से नष्ट किया जाए।
विशेष
अपने से पाप को दूर करनेवाला, अपने को ज्ञानाग्नि में परिपक्व करनेवाला यह *भृगु' अगले तीन सूक्तों का ऋषि है। यह सर्वनियन्ता प्रभु को 'यम' के रूप में स्मरण करता है।
भाषार्थ
(सहस्राक्षः) हजारों का क्षय करने वाला, (अमर्त्यः) न मारा जाने वाला पाप, (अस्मत् अन्यत्र) हम से भिन्न व्यक्ति में (न्युच्यतु =नि उच्यतु) नितराम् समवाय सम्बन्ध में चिपटा रहे। (यम्) जिस पापी के साथ (द्वेषाम) हम प्रीति नहीं करते (तम्) उसे ( ऋच्छतु) प्राप्त हो, ( यम् उ ) जिस के साथ ही ( द्विष्मः ) हम प्यार नहीं करते ( तम् इत् ) उसे ही (जहि) हे पाप तू नष्ट कर, उस का ही हनन कर।
टिप्पणी
[सहस्राक्षः = सहस्र+आ+क्षः (क्षि क्षये, भ्वादिः)। पापवृत्तियां कठिनाई से क्षीण होती हैं अतः इन्हें अमर्त्य कहा है। मन्त्र में अप्रीति करने का बहुत्व है, और अप्रिय का एकत्व। सामाजिक जीवन में समाज, जिस पापी को समाज में रहने से आपत्तिजनक समझे उसे मृत्युदण्ड दे सकता है। मानो पाप ही पापी का हनन कर रहा है।
विषय
पाप के भावों पर वश करना।
भावार्थ
(अमर्त्यः) मनुष्यों के अयोग्य पाप (सहस्राक्षः) हज़ारों का जो क्षय करता है (अस्मत्) हमसे (अन्यत्र) पृथक् (नि-उच्यतु) ही रहे। (यं द्वेषाम) जिस मार्ग के प्रति हम प्रेम नहीं करते (तम् ऋच्छतु) उसी मार्ग में वह रहे (यम् उ द्विष्मः) जिस मार्ग के साथ हम सन्मार्गियों का अनुराग नहीं (तम् इत्) उस मार्ग का (जहि) नाश ही हो जाय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। पाम्पा देवता। १, ३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
Undying is evil as much as life itself. It has a thousand eyes to watch its victims. Let it be away from us and there proclaim itself. Whatever we hate, there let it be. O energy of sin, negative as you are, destroy the negativities that we hate.
Translation
May the thousand-eyed and immortal (wickedness) dwell somewhere else other than with us. May it go to him, whom we hate. May you destroy him, whom we hate.
Translation
Let the immortal tendency accompanied by thousands of other evils, go from us to other places. Let it go to sin which we discard and let it smite evil which we hate.
Translation
O sin, unworthy of man, the annihilator of thousands, go thou for away from us. Dwell thou in the course of action we dislike. Demolish thou the Tine of conduct we shun!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अन्यत्र) पापात्मसु (अस्मत्) अस्मत्तः। सुकर्मभ्यः (नि) नितराम् (उच्यतु) उच समवाये। गच्छतु (सहस्राक्षः) अ० ३।११।३। सहस्रेषु बहुषु दोषेषु अक्षि दृष्टिर्यस्य सः (अमर्त्यः) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति यत्। मर्त्येभ्यो मनुष्येभ्योऽहितः (यम्) विघ्नम् (द्वेषाम) अप्रीतिं करवाम (तम्) (ऋच्छतु) प्राप्नोतु (यम्) (उ) अवधारणे (द्विष्मः) अप्रीतिं कुर्मः (तम्) (इत्) एव (जहि) नाशय ॥
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