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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृगु देवता - यमः, निर्ऋतिः छन्दः - जगती सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
    1

    हे॒तिः प॒क्षिणी॒ न द॑भात्य॒स्माना॒ष्ट्री प॒दं कृ॑णुते अग्नि॒धाने॑। शि॒वो गोभ्य॑ उ॒त पुरु॑षेभ्यो नो अस्तु॒ मा नो॑ देवा इ॒ह हिं॑सीत्क॒पोतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हे॒ति: । प॒क्षिणी॑ । न । द॒भा॒ति॒ । अ॒स्मान् । आ॒ष्ट्री इति॑ । प॒दम् । कृ॒णु॒ते॒। अ॒ग्नि॒ऽधाने॑ । शि॒व: । गोभ्य॑: । उ॒त । पुरु॑षेभ्य: । न॒: । अ॒स्तु॒ । मा । न॒: । दे॒वा॒: । इ॒ह । हिं॒सी॒त् । क॒पोत॑: ॥२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हेतिः पक्षिणी न दभात्यस्मानाष्ट्री पदं कृणुते अग्निधाने। शिवो गोभ्य उत पुरुषेभ्यो नो अस्तु मा नो देवा इह हिंसीत्कपोतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हेति: । पक्षिणी । न । दभाति । अस्मान् । आष्ट्री इति । पदम् । कृणुते। अग्निऽधाने । शिव: । गोभ्य: । उत । पुरुषेभ्य: । न: । अस्तु । मा । न: । देवा: । इह । हिंसीत् । कपोत: ॥२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पक्षिणी) पक्षपातवाली (हेतिः) चोट (अस्मान्) हमें (न)(दभाति) दबावे। (आष्ट्री) व्याप्त सभा के बीच (अग्निधाने) विद्वानों के स्थान पर [वह विद्वान्] (पदम्) अपना अधिकार (कृणुते) करता है। (देवाः) हे विद्वानो ! (कपोतः) स्तुतियोग्य पुरुष (नः) हमारी (गोभ्यः) गउओं के लिये (उत) और (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (शिवः) मङ्गलकारी (अस्तु) होवे। और (नः) हमें (इह) यहाँ पर (मा हिंसीत्) न दुःख देवे ॥३॥

    भावार्थ

    जिस सभा में सभापति वेदानुगामी न्यायकारी होता है, वहाँ के सभासद अन्यायी पक्षपाती नहीं होते और न दुःख उठाते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(हेतिः) हवनशक्ति (पक्षिणी) पक्षपातयुक्ता (नः) निषेधे (दभाति) लेटि रूपम्। हिनस्तु (अस्मान्) सदस्यान् (आष्ट्री) भ्रस्जिगमिनमि०। उ० ४।१६०। इति अशू व्याप्तौ−ष्ट्रन् वृद्धिश्च, ङीप्। सुपां सुलुक्० पा० ७।१।३९। इति सप्तम्याः पूर्वसवर्णः, प्रगृह्य च। आष्ट्र्यां व्याप्तायां सभायाम् (पदम्) अधिकारम् (कृणुते) करोति (अग्निधाने) अग्नीनां विदुषां स्थाने (शिवः) सुखकरः (गोभ्यः) गवादिपशुभ्यः (उत) अपि च (पुरुषेभ्यः) मनुष्यादिप्राणिभ्यः (नः) अस्माकम् (अस्तु) (नः) अस्मान् (इह) अस्यां सभायाम् (मा हिंसीत्) न हन्तु (कपोतः) म० १। स्तुत्यो विद्वान् ॥

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    विषय

    प्रभु स्मरण व यज्ञशीलता

    पदार्थ

    १. प्रभु-स्मरण होने पर (पक्षिणी हेति:) = परिग्रह-सम्बन्धी लोभ-वन-लोभवृत्तिरूप वन (अस्मान्) = हमें (न दभाति) = हिंसित नहीं करता। (आष्ट्री) = [अश व्यासी] कमों में व्याप्त रहनेवाला यह प्रभुभक्त (अग्निधाने) = [हविर्धाने] अग्निहोत्र करने के स्थानभूत कमरे में (पदं कृणुते) = पग रखता है, अर्थात् सदा यज्ञशील बनता है। ऐसा होने पर (नः गोभ्य:) = हमारी गौओं के लिए (उत) = और (पुरुषेभ्यः) = घर के सब व्यक्तियों के लिए (शिवः अस्तु) = वे प्रभु कल्याण करनेवाले हों। २. हे (देवा:) = ज्ञानी पुरुषो। (न:) = हमें (क-पोतः) = वे आनन्द के समुद्र प्रभु (इह) = इस जीवन में (मा हिंसीत्) = हिंसित न करें। हम प्रभु से दण्डनीय न होकर प्रभु से अनुग्रहणीय हों।

    भावार्थ

    लोभ से ऊपर उठकर हम यज्ञशील बनें। यह यज्ञशीलता हमारा कल्याण करेगी और हमें प्रभु से अनुग्रहणीय बनाएगी।


     

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    भाषार्थ

    (हेतिः) प्रेषित हुआ वज्ररूप, (पक्षिणी) अल्प पक्षी की आकृतिवाला वायुयान (अस्मान् ) हमें (न) नहीं (दभाति) हिंसित करता है, (आष्ट्री) ऋषि अर्थात् आयुधरूप वायुयान (अग्निधाने) युद्धाग्नि के निधान रूप संग्राम भूमि में (पदम्) निज चरण को (न) नहीं (कृणुते) स्थापित करता है। (नः) वह हमारी (गोभ्यः) गौओं के लिये ( उत) तथा (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (शिवः) कल्याणकारी ( अस्तु) हो, (देवा:) हे दिव्य अधिकारियो ! (कपोतः ) वायुयान ( इह) यहां अर्थात् हमारे राष्ट्र में (नः) हमें (मा हिंसीत्) न हिसित करे ।

    टिप्पणी

    [हेतिः= हि गतौ (स्वादिः), प्रेषित अस्त्ररूप । हेतिः वज्रनाम (निघं. २।२०)। पक्षिणी =अल्पकाय वाला वायुयान, दो पक्षों को फैलाए, उड़ते हुए पक्षी के समान प्रतीत होता है । यह शक्तिशाली परराष्ट्र का वायुयान है जिसमें परराष्ट्र का दूत है, जोकि दूत्यकर्म के लिये हमारे राष्ट्र में आया है, न कि हमारी हिंसा के लिये। ऐसी भावना मन्त्र में प्रकट की है। वायुयान जब भूमि पर उतरते हैं तो निज स्थान में उन्हें ले जाने के लिये उन के पद अर्थात् चरण भी होते हैं। अधिकारियों से कहा है कि तुम इस प्रकार वायुयान के अधिकारियों के साथ वर्ताव करो ताकि वे युद्ध न करने पाएं। आष्ट्रो =ऋष्टि: आयुधम् । यथा "शतमुष्टीरयस्मयोः" (अथर्व० ४।३७।८)। आष्ट्री पद ऋष्टि का ताद्वित प्रयोग प्रतीत होता है ]।

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    भाषार्थ

    (हेतिः) प्रेषित हुआ वज्ररूप, (पक्षिणी) अल्प पक्षी की आकृतिवाला वायुयान (अस्मान्) हमें (न) नहीं (दभाति) हिंसित करता है, (आष्ट्री) ऋषि अर्थात् आयुधरूप वायुयान (अग्निधाने) युद्धाग्नि के निधान रूप संग्राम भूमि में (पदम्) निज चरण को (न) नहीं (कृणुते) स्थापित करता है। (नः) वह हमारी (गोभ्यः) गौओं के लिये ( उत) तथा (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (शिवः) कल्याणकारी (अस्तु) हो, (देवा:) हे दिव्य अधिकारियो ! (कपोतः) वायुयान ( इह) यहां अर्थात् हमारे राष्ट्र में (नः) हमें (मा हिंसीत्) न हिसित करे ।

    टिप्पणी

    [हेतिः= हि गतौ (स्वादिः), प्रेषित अस्त्ररूप । हेतिः वज्रनाम (निघं. २।२०)। पक्षिणी =अल्पकाय वाला वायुयान, दो पक्षों को फैलाए, उड़ते हुए पक्षी के समान प्रतीत होता है । यह शक्तिशाली परराष्ट्र का वायुयान है जिसमें परराष्ट्र का दूत है, जोकि दूत्यकर्म के लिये हमारे राष्ट्र में आया है, न कि हमारी हिंसा के लिये। ऐसी भावना मन्त्र में प्रकट की है। वायुयान जब भूमि पर उतरते हैं तो निज स्थान में उन्हें ले जाने के लिये उन के पद अर्थात् चरण भी होते हैं। अधिकारियों से कहा है कि तुम इस प्रकार वायुयान के अधिकारियों के साथ वर्ताव करो ताकि वे युद्ध न करने पाएं। आष्ट्री =ऋष्टि: आयुधम् । यथा "शतमुष्टीरयस्मयीः" (अथर्व० ४।३७।८)। आष्ट्री पद ऋष्टि का ताद्वित प्रयोग प्रतीत होता है ]।

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    विषय

    राज और राजदूतों का आदर।

    भावार्थ

    (पक्षिणी) पंखों से युक्त (हेतिः) आयुध, बाण या सेना (अस्मान्) हमें (न दभाति) नहीं विनाश करे। (आष्ट्री) शक्तिमान् राजा (अग्निधाने) अग्निशाला में (पदं कृणुते) पैर रक्खे, और वहां विद्वान् दूत से अग्नि की साक्षी में बात करे। (नः) हमारे (गोभ्यः) गौओं और (पुरुषेभ्यः) मनुष्यों के लिए भी (शिवः) कल्याण (अस्तु) हो। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषों ! (कपोतः) पूर्वोक्त लक्षणवान् विद्वान् दूत-सूचक (इह) यहां (नः मा हिंसीत्) हमें विनाश न करे। इस मन्त्र के अनुसार प्राचीन काल में राजा लोग प्रायः अग्निशाला में दूतों की बातें सुना करते थे। देवाः = विद्वान् लोक जो राजसभाओं के सभासद हैं। निर्ऋतिः = शत्रु का आक्रमण रूप विपत्ति। पक्षिणी हेतिः = सेना जिसके दोनों पक्ष कहाते हैं।

    टिप्पणी

    ‘आष्ट्र्यां पदं कृणुते’, ‘शं नो गोभ्यः पुरुषेभ्यश्चास्तु’, ‘यो नः हिंसीदिहदेवा कपोताः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिर्वा देवता। १, २ जगत्यौ। २ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    News and Response

    Meaning

    Let not the flying missile, daunt or deceive us. Let the messenger have a place in the assembly hall. Let every thing be good for our people and for our lands, cows and culture of freedom. O devas, leaders of light and wisdom, let not the messenger and the message any way injure our pride of honour and freedom.

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    Translation

    May this winged weapon not harm us, I settle on the fire place in the kitchen. May it be propitious to our cows and to our meni. O enlightened ones, may this pigeon (kapota) do not harnn to us here.

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    Translation

    Let not the winged missile of army Over-come us, let the learned priest always occupy his seat in the place of yajna fire, may there be atmosphere of welfare for our cattle’s and for our men, let not, O learned men! this Pigeon be the source of trouble for us.

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    Translation

    Let not the thirst for partiality distract us. Let this learned person who visits us establish his authority in the famous assembly full of learned persons. O godly persons, let this person far-sighted like a pigeon bring welfare to our men and cattle. Let him forbear to harm us in this assembly.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(हेतिः) हवनशक्ति (पक्षिणी) पक्षपातयुक्ता (नः) निषेधे (दभाति) लेटि रूपम्। हिनस्तु (अस्मान्) सदस्यान् (आष्ट्री) भ्रस्जिगमिनमि०। उ० ४।१६०। इति अशू व्याप्तौ−ष्ट्रन् वृद्धिश्च, ङीप्। सुपां सुलुक्० पा० ७।१।३९। इति सप्तम्याः पूर्वसवर्णः, प्रगृह्य च। आष्ट्र्यां व्याप्तायां सभायाम् (पदम्) अधिकारम् (कृणुते) करोति (अग्निधाने) अग्नीनां विदुषां स्थाने (शिवः) सुखकरः (गोभ्यः) गवादिपशुभ्यः (उत) अपि च (पुरुषेभ्यः) मनुष्यादिप्राणिभ्यः (नः) अस्माकम् (अस्तु) (नः) अस्मान् (इह) अस्यां सभायाम् (मा हिंसीत्) न हन्तु (कपोतः) म० १। स्तुत्यो विद्वान् ॥

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