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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बृहच्छुक्र देवता - त्वष्टा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सर्वतोरक्षण सूक्त
    1

    सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सं शि॒वेन॑। त्वष्टा॑ नो॒ अत्र॒ वरी॑यः कृणो॒त्वनु॑ नो मार्ष्टु त॒न्वो॒ यद्विरि॑ष्टम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । वर्च॑सा । पय॑सा । सम् । त॒नूभि॑: । अग॑न्महि । मन॑सा । सम् । शि॒वेन॑ । त्वष्टा॑। न:॒ । अत्र॑ । वरी॑य: । कृ॒णो॒तु॒ । अनु॑ । न॒: । मा॒र्ष्टु॒ । त॒न्व᳡: । यत् । विऽरि॑ष्टम् ॥५३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं वर्चसा पयसा सं तनूभिरगन्महि मनसा सं शिवेन। त्वष्टा नो अत्र वरीयः कृणोत्वनु नो मार्ष्टु तन्वो यद्विरिष्टम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । वर्चसा । पयसा । सम् । तनूभि: । अगन्महि । मनसा । सम् । शिवेन । त्वष्टा। न: । अत्र । वरीय: । कृणोतु । अनु । न: । मार्ष्टु । तन्व: । यत् । विऽरिष्टम् ॥५३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    स्वास्थ्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (वर्चसा) अन्न के साथ, (पयसा) विज्ञान के साथ (सम्) यथावत्, (तनूभिः) शरीरों के साथ (सम्) यथाविधि, और (शिवेन) मङ्गलकारी (मनसा) मन के साथ (सम् अगन्महि) हम संगत हुए हैं। (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वर (नः) हमारे लिये (अत्र) यहाँ पर (वरीयः) अति विस्तीर्ण धन (कृणोतु) करे और (नः) हमारे (तन्वः) शरीर का (यत्) जो (विरिष्टम्) विविध कष्ट है, उसे (अनु मार्ष्टु) शुद्ध करता रहे ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने कृपा करके हमें अन्न, विद्या, और मननशक्ति पहिले से दी है, हम उन सब से यथावत् उपकार लेकर अपने सब कष्ट दूर करें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० २।२४ ॥

    टिप्पणी

    ३−(सम्) सम्यक् (वर्चसा) अन्नेन−निघ० २।७। (पयसा) पय गतौ−असुन्। विज्ञानेन (सम्) यथाविधि (तनूभिः) शरीरैः (सम् अगन्महि) समो गम्यृच्छिभ्याम्। पा० १।३।२९। इत्यात्मनेपदम्। संगता अभूम (मनसा) अन्तःकरणेन (शिवेन) कल्याणकरेण (त्वष्टा) अ० २।५।६। त्वष्टा त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणस्त्वक्षतेर्वा स्यात्करोतिकर्मणः−निरु० ८।१३। विश्वकर्मा परमात्मा (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) अस्मिन् गृहे (वरीयः) अ० १।२।२। उरुतरम्। विस्तीर्णतरं धनम् (कृणोतु) करोतु (अनु) अनन्तरम् (न) अस्माकम् (मार्ष्टु) मृजूष् शुद्धौ। शोधयतु (तन्वः) शरीरस्य (यत्) यावत् (विरिष्टम्) रिष हिंसायाम्−भावे क्तः। विहिंसनम्। विविधं दुःखम् ॥

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    विषय

    वर्चस व शिव-मन

    पदार्थ

    १. हम (वर्चसा) = शरीरगत दीसि से (पयसा) = देहावस्थिति-निमित्त पयोवत् सारभूत रस से (सम् = -सङ्गत हों। (तनूभिः) = शरीर के सब हस्त-पाद आदि अवयवों से (सम् अगन्महि) = सङ्गत हों तथा (शिवेन मनसा सम्) = शोभन अन्त:करण से सङ्गत हों। २. (त्वष्टा) = वह ज्ञानदीस निर्माता प्रभु (न:) = हमारे लिए (अत्र) = इस जीवन में (वरीय:) = उत्तम 'सत्य, यश, श्री' को (कृणोतु) = करे। (न:) = हमारे (तन्व:) = शरीर का (यत् विरिष्टम) = जो रोगार्त अङ्ग हो, उसे (अनुमाष्ट) = शुद्ध कर दे।

    भावार्थ

    हम वर्चस, पयस, स्वस्थ अङ्गों व शिव मन से सङ्गत हों। प्रभु हमें उत्कृष्ट 'सत्य, यश व श्री' को प्राप्त कराए और सब रोगों को दूर कर दे। ___ विशेष-ऊँची-से-ऊँची स्थिति में पहुँचकर हम 'ब्रह्मा' बनें। यही अगले दो सूक्तों का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (वर्चसा) शारीरिक कान्ति और (पयसा) माता के दूध के (सम्, अगन्महि) साथ हम संगत हुए हैं, (तनूभिः) स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण तनुओ, अथवा तनू के सर्वाङ्गों के साथ (सम्) हम संगत हुए हैं, (शिवेन, मनसा) शिव संकल्पों वाले मन के साथ (सम्) हम संगत हुए हैं। (त्वष्टा) कारीगर अर्थात् जगत् का घड़ने वाला परमेश्वर (अत्र) इस नवजीवन में (वरीयः) उरुतम उद्देश्य (कृणोतु) सफल करे, तथा (तन्वः) तनू सम्बन्धी (नः) हमारा (यद्) जो (विरिष्टम्) क्षतविक्षत है उसे (अनुमार्ष्टु) अनुकूल रूप में शुद्ध करे, ठीक करे।

    टिप्पणी

    [पुनर्जन्म हो जाने पर यह प्रार्थना परमेश्वर से की गई है। उरुतम उद्देश्य है, मोक्ष प्राप्ति।]

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    विषय

    रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हम लोग (वर्चसा) तेज और ब्रह्मवर्चस से, (पयसा) उत्तम पुष्टिकारक बल से, (तनूभिः) उत्तम शरीरों से और (शिवेन) शुभ (मनसा) मन से (सं सं सं-अगन्महि) भली प्रकार युक्त रहें। (त्वष्टा) सर्वोत्पादक प्रभु (अत्र) इस लोक में (नः) हमें (वरीयः) सब से उत्तम, वरण करने योग्य धन, ज्ञान, यश (कृणोतु) प्राप्त करावे और (यत्) जो (नः तन्वः) हमारे शरीर का (विरिष्टमम्) विशेष प्रकार से पीड़ित भाग हो उसका (अनु मार्ष्टु) स्वयं अनुमार्जन करे, उसे अनुकूलता से रोगरहित करे। अर्थात् प्रथम हम अपने अंगों को साफ़ रक्खें। तब ईश्वर भी हमारे शरीरों को रोग से मुक्त रक्खेगा।

    टिप्पणी

    (तृ० च०) ‘त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायोऽनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम्’। इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहच्छुक्र ऋषिः। नाना देवताः। १ जगती। २-३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health Protection by Nature

    Meaning

    Let us go on united with honour and lustre, with nourishment for body, mind and soul, with body and limbs in perfect form, and with a mind at peace. May Tvashta, divine architect of body forms, make us better and higher, and cleanse and purify whatever part of our being is wanting.

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    Translation

    May we be blessed with intellectual lustre, vigour, bodies and noble mind. May liberally giving cosmic architect (tvastr) make us superior here and remove every blemish: from our bodies. (Also Yv. VIIl.14)

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    Translation

    We are again united with vigor, with knowledge and action, with limbs and body and with noble mind. May All-creating God give us excellent wealth and may be smooth whatever deficiency I have in my body

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    Translation

    May we be united with splendor, strength, nice bodies, and happy mind. May God grant us excellent riches, knowledge and fame, and remove each deformity from our body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सम्) सम्यक् (वर्चसा) अन्नेन−निघ० २।७। (पयसा) पय गतौ−असुन्। विज्ञानेन (सम्) यथाविधि (तनूभिः) शरीरैः (सम् अगन्महि) समो गम्यृच्छिभ्याम्। पा० १।३।२९। इत्यात्मनेपदम्। संगता अभूम (मनसा) अन्तःकरणेन (शिवेन) कल्याणकरेण (त्वष्टा) अ० २।५।६। त्वष्टा त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणस्त्वक्षतेर्वा स्यात्करोतिकर्मणः−निरु० ८।१३। विश्वकर्मा परमात्मा (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) अस्मिन् गृहे (वरीयः) अ० १।२।२। उरुतरम्। विस्तीर्णतरं धनम् (कृणोतु) करोतु (अनु) अनन्तरम् (न) अस्माकम् (मार्ष्टु) मृजूष् शुद्धौ। शोधयतु (तन्वः) शरीरस्य (यत्) यावत् (विरिष्टम्) रिष हिंसायाम्−भावे क्तः। विहिंसनम्। विविधं दुःखम् ॥

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