अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
ग्री॒ष्मो हे॑म॒न्तः शिशि॑रो वस॒न्तः श॒रद्व॒र्षाः स्वि॒ते नो॑ दधात। आ नो॒ गोषु॒ भज॒ता प्र॒जायां॑ निवा॒त इद्वः॑ शर॒णे स्या॑म ॥
स्वर सहित पद पाठग्री॒ष्म: । हे॒म॒न्त: । शिशि॑र: । व॒स॒न्त: । श॒रत् । व॒र्षा: । सु॒ऽइ॒ते । न॒: । द॒धा॒त॒ । आ । न॒: । गोषु॑ । भज॑त । आ । प्र॒ऽजाया॑म् । नि॒ऽवा॒ते । इत् । व॒: । श॒र॒णे । स्या॒म॒ ॥५५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रीष्मो हेमन्तः शिशिरो वसन्तः शरद्वर्षाः स्विते नो दधात। आ नो गोषु भजता प्रजायां निवात इद्वः शरणे स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठग्रीष्म: । हेमन्त: । शिशिर: । वसन्त: । शरत् । वर्षा: । सुऽइते । न: । दधात । आ । न: । गोषु । भजत । आ । प्रऽजायाम् । निऽवाते । इत् । व: । शरणे । स्याम ॥५५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब सम्पत्ति प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(वसन्तः) वसन्तकाल [चैत्र, वैशाख] (ग्रीष्मः) घाम ऋतु [ज्येष्ठ, आषाढ़] (वर्षाः) बरसा [श्रावण, भाद्रमास] (शरत्) शरद् ऋतु [आश्विन, कार्तिक] (हेमन्तः) शीत काल [आग्रहायण, पौष] (शिशिरः) उतरता शीतकाल [माघ, फाल्गुन] यह तुम सब (नः) हमें (स्विते) अच्छे प्रकार प्राप्त कुशल में (दधात) स्थापित करो। (नः) हमें (गोषु) गौ आदि पशुओं में (आ) और (प्रजायाम्) प्रजा में (आ) सब ओर से (भजत) भागी करो, (वः) तुम्हारे (इत्) ही (निवाते) हिंसारहित (शरणे) शरण में (स्याम) हम रहें ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य प्रत्येक ऋतु में उचित आहार-विहार करके गौ आदि पशुओं और पुत्र पौत्र भृत्य प्रजाओं सहित सुखी रहें ॥२॥
टिप्पणी
२−(ग्रीष्मः) घर्मग्रीष्मौ। उ० १।१४९। इति ग्रसु अदने−मक्, ग्रीभावः षुगागमश्च। निदाघः। ज्येष्ठाषाढात्मकः कालः (हेमन्तः) अ० ३।११।४। आग्रहायणपौषात्मकः कालः (शिशिरः) अजिरशिशिर०। उ० १।५३। इति शश प्लुतगतौ−किरच्, उपधाया इत्वम्। माघफाल्गुनमासात्मकशीतान्तः कालः (वसन्तः) अ० ३।११।४। चैत्रवैशाखात्मकः पुष्पकालः (शरत्) अ० १।१०।२। आश्विनकार्तिकात्मकः कालः (वर्षाः) वर्ष वर्षणमस्त्यासु। वर्ष−अर्शआदिभ्योऽच्, टाप्। यद्वा। व्रियन्ते। वृतॄवदि०। उ० ३।६२। इति वृञ् वरणे−स, टाप्। श्रावणभाद्रात्मको मेघकालः (स्विते) सुष्ठु प्राप्ते कुशले (नः) अस्मान् (दधात) धत्त। स्थापयत (आ) समुच्चये (नः) अस्मान् (गोषु) गवादिपशुषु (भजत) भागिनः कुरुत (आ) समन्तात् (प्रजायाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिरूपे जने (निवाते) वा गतिहिंसनयोः−क्त। अहिंसिते (इत्) एव (वः) युष्माकम् (शरणे) रक्षणे (स्याम) भवेम ॥
विषय
गौ, प्रजा, निवात-शरण
पदार्थ
१. (ग्रीष्मः हेमन्तः शिशिरः वसन्त: शरद् वर्षा:) = गर्मी, हेमन्त, शिशिर, वसन्त, शरद और वर्षा-ये छह-की-छह ऋतुएँ (न:) = हमें (स्विते) = सुष्टु प्राप्तव्य धन में व उत्तम आचरण में (दधात) = धारण करें। हम ऋतुचर्या का ध्यान करते हुए उस-उस ऋतु के अनुसार ही अपनी दैनिक चर्चा को बनाएँ। २. हे ग्रीष्म आदि ऋतुओ! (न:) = हमें (गोषु प्रजायाम् आभजत) = उत्तम गौ आदि पशुओं में तथा सन्तानों में भागी बनाओ। हमारे घरों में उत्तम गौएँ हों और हम उत्तम प्रजावाले हों। हे ऋतुओ! हम (वः) = आपके (निवाते) = वातादि के उपद्रवों से रहित (शरणे इत्) = गृह में ही (स्याम) = हों-निवास करनेवाले हों।
भावार्थ
ऋतुओं के अनुकूल आचरण करते हुए हम उत्तम 'गौओं, प्रजाओं व वात आदि के उपद्रवों से शून्य' गृहोंवाले हों।
भाषार्थ
(ग्रीष्मः) ग्रीष्म ऋतु, (हेमन्तः) हेमन्त ऋतु, (शिशिरः) शिशिर ऋतु, (वसन्तः) वसन्त ऋतु (शरद्) शरद ऋतु, (वर्षा:) वर्षा ऋतु हैं, [इन ऋतुओं में] [हे देवाः (मन्त्र १)] हे दिव्य व्यापारियों! (न:) हुमें (स्विते= सु, इते) सुगमता से अभीष्ट फल की प्राप्ति के निमित्त (दधात) हमें धारित-पोषित करो। (नः) हमें (गोषु, प्रजायाम्) गौओं और सन्तानों में तुम (आ भजत) पूर्णतया भागी बनाओ, तथा (निवाते) झंझावात आदि से रहित अन्तरिक्ष में (वः इत्) तुम्हारे ही (शरणे) आश्रय में (स्याम) हम हों।
टिप्पणी
[वायुयानों द्वारा अन्तरिक्षीय नव व्यापारी, सिद्ध व्यापारियों के प्रति कहते हैं कि तुम हमें अपना आश्रय प्रदान करो, ताकि हम सुगमता से, व्यापार द्वारा अभीष्ट फलों की प्राप्ति कर सकें। मन्त्र (१) से "देवाः" पद की अनुवृत्ति मन्त्र (२) की व्याख्या में आवश्यक प्रतीत होती है। स्विते= सु+इण् गतौ+ क्त, सप्तम्येकवचन। गति प्राप्त्यर्थक है। अभीष्ट फल है धन प्राप्ति। शरणम्= आश्रम। श्रिञ् सेवायाम् (भ्वादिः)]।
विषय
उत्तम मार्गों से जाने और सुख से जीवन व्यतीत करने का उपदेश।
भावार्थ
काल पर विचार करके उससे उपस्थित विपत्तियों से बच कर सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करने का उपदेश करते हैं। (ग्रीष्मः हेमन्तः शिशिरः वसन्तः शरद् वर्षा) ग्रीष्म, हेमन्त, शिशिर, वसन्त शरद और वर्षाकाल ये छः ऋतु हैं। हे छहों ऋतुझो ! तुम (नः) हमें (स्विते) सुख से गुजरने वाले जीवन में ही (दधातु) रखो। कभी कष्ट में न डालो। (नः) और हमारे (गोषु) गवादि पशुओं और (प्रजायाम्) प्रजा-पुत्र आदि में भी (आ भजत) सुख का वितरण करो। हम सदा (व: निवाते) प्रबल वायु के झकोरों या उपद्रवों से रहित आप (शरणे) छहों ऋतुओं के अनुकूल घर में (स्याम) रहें, निवास करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। १ विश्वेदेवा देवताः, २, ३ रुद्रः। १, ३ जगत्यौ, २ त्रिष्टुप्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Highest Path to Follow
Meaning
O Vishvedevas, divinities of the world, lead us and establish us in a state of peace and progress with total well being and prosperity throughout the year over the seasons of summer, cold winter, cool winter, spring, autum and rains. Share with us the gifts of lands and cows among a peaceful progressive community and, under your leadership and protection, let us enjoy a life of peace and happiness without any winds of violence and disturbance.
Subject
Rudrah
Translation
Summer, winter, cold season, spring, autumn and rains - may you keep us in perfect weal. Grant us our share of kine and ' Children. May we enjoy your, unperturbed shelter. ( Six seasons : Grigma, Hemanta, Sisira, -Vasanta, Sarad, and Varsa)
Translation
Let the seasons—summer, Winter, Dew-time, spring, Autumn and rainy season maintain us in well-being, let them allow our share of cattle and children. May we enjoy, O learned men! your unassailed protection.
Translation
Maintain us in well-being Summer, Winter, Dew-time, Spring, Autumn, and Rainy season. Grant us happiness in cattle and children. May we enjoy your unassailed protection.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(ग्रीष्मः) घर्मग्रीष्मौ। उ० १।१४९। इति ग्रसु अदने−मक्, ग्रीभावः षुगागमश्च। निदाघः। ज्येष्ठाषाढात्मकः कालः (हेमन्तः) अ० ३।११।४। आग्रहायणपौषात्मकः कालः (शिशिरः) अजिरशिशिर०। उ० १।५३। इति शश प्लुतगतौ−किरच्, उपधाया इत्वम्। माघफाल्गुनमासात्मकशीतान्तः कालः (वसन्तः) अ० ३।११।४। चैत्रवैशाखात्मकः पुष्पकालः (शरत्) अ० १।१०।२। आश्विनकार्तिकात्मकः कालः (वर्षाः) वर्ष वर्षणमस्त्यासु। वर्ष−अर्शआदिभ्योऽच्, टाप्। यद्वा। व्रियन्ते। वृतॄवदि०। उ० ३।६२। इति वृञ् वरणे−स, टाप्। श्रावणभाद्रात्मको मेघकालः (स्विते) सुष्ठु प्राप्ते कुशले (नः) अस्मान् (दधात) धत्त। स्थापयत (आ) समुच्चये (नः) अस्मान् (गोषु) गवादिपशुषु (भजत) भागिनः कुरुत (आ) समन्तात् (प्रजायाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिरूपे जने (निवाते) वा गतिहिंसनयोः−क्त। अहिंसिते (इत्) एव (वः) युष्माकम् (शरणे) रक्षणे (स्याम) भवेम ॥
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