अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
ऋषिः - अङ्गिरा
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - त्रिपदार्षी बृहती
सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
1
भूते॑ ह॒विष्म॑ती भवै॒ष ते॑ भा॒गो यो अ॒स्मासु॑। मु॒ञ्चेमान॒मूनेन॑सः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठभूते॑ । ह॒विष्म॑ती । भ॒व॒ । ए॒ष: । ते॒ । भा॒ग: । य: । अ॒स्मासु॑ । मु॒ञ्च । इ॒मान् । अ॒मून् । एन॑स: । स्वाहा॑ ॥८४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
भूते हविष्मती भवैष ते भागो यो अस्मासु। मुञ्चेमानमूनेनसः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठभूते । हविष्मती । भव । एष: । ते । भाग: । य: । अस्मासु । मुञ्च । इमान् । अमून् । एनस: । स्वाहा ॥८४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप से मुक्ति का उपदेश।
पदार्थ
(भूते) हे चिन्तायोग्य [अलक्ष्मी !] [हमारे लिये] (हविष्मती) देने और लेने योग्य क्रियावाली (भव) हो, (एषः) यह (ते) तेरा (भागः) सेवनीय व्यवहार है, (यः) जो (अस्मासु) हम लोगों के बीच होवे। “(इमान्) इन [इस जन्मवाले] और (अमून्) उन [अगले वा पिछले जन्मवाले] जीवों को (एनसः) पाप से (मुञ्च) मुक्त करदे, (स्वाहा) यह सुन्दर वाणी है” ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य तीव्र तप अर्थात् पूर्ण पुरुषार्थ करके भूत भविष्यत् और वर्तमान क्लेशों के फल को नाश करके सुखी होवे ॥२॥
टिप्पणी
२−(भूते) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति चौरादिको भू चिन्तने−क्तिच्। आमन्त्रितस्य च। पा० ६।१।१९८। इति आदिरुदात्तः। हे चिन्तनीये निर्ऋते (हविष्मती) दातव्यग्राह्यक्रियायुक्ता (भव) (एषः) वक्ष्यमाणः−मुञ्चेमानम् (ते) तव (भागः) भजनीयः स्वीकरणीयो व्यवहारः (यः) (अस्मासु) अस्माकं मध्ये भवतु (मुञ्च) विसृज (इमान्) इदानीन्तनान् जीवान् (अमून्) दूरस्थान् पूर्वपरजन्मनि वर्तमानान् (एनसः) पापात्। कष्टात् (स्वाहा) सुवाणी। सुप्रार्थना ॥
विषय
हविष्मती 'भूमि'
पदार्थ
१. 'निर्ऋति' पाप-देवता है, तो 'भूति' ऐश्वर्य की देवता है। हे (भूते) = ऐश्वर्य की देवते! [विभूतिभूतिरैश्वर्यम्] तू (हविष्मती भव) = हविवाली हो। हम तुझे प्राप्त करके त्यागपूर्वक अदन [खाने]-वाले बनें। (एष:) = यह ही (ते भाग:) = तेरा सेवनीय व्यवहार है, (यः अस्मासु) = जो हममें हो, अर्थात् हम सदा तेरा त्यागपूर्वक ही अदन करनेवाले हैं। २. हे ऐश्वर्य! तू (इमान् अमून्) = इनको और उनको-श्रमिकों व पूंजीपतियों को (एनसः मुञ्च) = पाप से मुक्त कर। इनमें से कोई भी लोभ से तेरा ग्रहण करनेवाला न हो, सब त्यागपूर्वक ही तेरा अदन करें। इस पापवृत्ति से छुटने के लिए हम (स्वाहा) = आत्मसमर्पण करनेवाले व त्यागशील बनें।
भावार्थ
हमारा ऐश्वर्य त्याग की वृत्ति से युक्त हो। सम्पत्ति का त्यागपूर्वक अदन ही सेवनीय व्यवहार है। त्यागवृत्ति होने पर यह ऐश्वर्य हमें पाप में नहीं फंसाता। त्याग की वृत्ति होने पर "श्रमिक और पूँजीपति' दोनों का ही व्यवहार ठीक बना रहता है।
भाषार्थ
(भूते) हे भूतकालसम्बन्धिनी कृच्छ्रापत्ति ! (हविष्मती) हमारी हवि को ग्रहण करनेवालो (भव) तू हो जा, (एष:) यह हवि (ते भागः) तेरा भाग है [तेरा आंशिक स्वरूप है, तू ही तद्रूप है] जो कि (अस्मासु) हम में है। (इमान्) इन्हें अर्थात् शिष्यों को (अमून्) तथा उन्हें [जो कि इन से अतिरिक्त है] (एनसः) पाप से (मुञ्च) मुक्त कर दे, (स्वाहा) तदर्थ हम परमेश्वरार्पित आहुतियां प्रदान करते हैं।
टिप्पणी
[कृच्छ्रापत्ति को कवित्वशैली में सम्बोधित करके सद्गुरु कहता है कि 'इस में कृच्छ्रापत्ति विद्यमान है, वह तू ही आंशिकरूप में विद्यमान है। तू तो सर्वत्र व्याप्त प्राणियों में विद्यमान है। तेरे नाम पर हमने हवि प्रदान की है, उसे तू स्वीकार कर। और मेरे इन शिष्यों और उन भावी शिष्यों को पापकर्म करने से मुक्त कर, छुड़ा।' जैसे-जैसे यज्ञिय कर्म किये जाते हैं वैसे-वैसे पापकर्मों का क्षय होते जाना स्वाभाविक ही है]।
विषय
आपत्ति और कष्टों के पापों से मुक्त होने की प्रार्थना।
भावार्थ
हे भूते ! संभूते ! आत्मा के देह में उत्पन्न होने के कारणरूप ! तू (हविष्मती) हवि अर्थात् अन्न, व भोग्य पदार्थों से सम्पन्न (भव) हो। (एषः) यही (ते) तेरा (भागः) भाग = सेवन करने योग्य यथार्थ है (यः) जो (अस्मासु) हम प्राणियों में विद्यमान है (इमान्) इन इहलोक के वासी और (अमून्) उन; उस लोक में शरीर छोड़कर जाने वाले सब जीवों को (एनसः) पाप से (मुञ्च) मुक्त कर, (स्वाहा) हमारी यही उत्तम प्रार्थना है। प्राणी उत्पन्न हों तो उनकों उत्तम अन्न आदि भोग्य पदार्थ प्राप्त हों। और वे सब जीव कुप्रवृत्ति से मुक्त होकर पाप से दूर रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अङ्गिरा ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। १ भुरिक् जगती। २ त्रिपदा आर्ची बृहती। ३ जगती। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतृऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Adversity or Destiny
Meaning
offer of will, intelligence and action, that’s your rightful share among us in life, and go, release these and those ensnared who suffer from the sin of belief and inaction. This is the voice of truth in thought, will and action.
Translation
O (distress) present everywhere, may you accept our oblations. This is your share, which is with in us, May you release these as well as those from the (bonds of) sin.
Translation
Let this misery of ignorance be full of all sorts of enjoyments in this world. This is its only share which is inherent among us, the mundane people and let it free us from the sin. Whatever is uttered herein is true.
Translation
O sorrowful poverty, be enriched with food-stufis, here, among us is thy allotted portion. Free us from sin in this life as well as in future life! This is our pious prayer.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(भूते) क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति चौरादिको भू चिन्तने−क्तिच्। आमन्त्रितस्य च। पा० ६।१।१९८। इति आदिरुदात्तः। हे चिन्तनीये निर्ऋते (हविष्मती) दातव्यग्राह्यक्रियायुक्ता (भव) (एषः) वक्ष्यमाणः−मुञ्चेमानम् (ते) तव (भागः) भजनीयः स्वीकरणीयो व्यवहारः (यः) (अस्मासु) अस्माकं मध्ये भवतु (मुञ्च) विसृज (इमान्) इदानीन्तनान् जीवान् (अमून्) दूरस्थान् पूर्वपरजन्मनि वर्तमानान् (एनसः) पापात्। कष्टात् (स्वाहा) सुवाणी। सुप्रार्थना ॥
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