अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 84/ मन्त्र 4
ऋषिः - अङ्गिरा
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
1
अ॑य॒स्मये॑ द्रुप॒दे बे॑धिष इ॒हाभिहि॑तो मृ॒त्युभि॒र्ये स॒हस्र॑म्। य॒मेन॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒न उ॑त्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒य॒स्मये॑ । द्रु॒ऽप॒दे । बे॒धि॒षे॒ । इ॒ह । अ॒भिऽहि॑त: । मृ॒त्युऽभि॑: । ये । स॒हस्र॒म् । य॑मेन॑ । त्वम् । पि॒तृऽभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । इ॒मम् ॥८४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयस्मये द्रुपदे बेधिष इहाभिहितो मृत्युभिर्ये सहस्रम्। यमेन त्वं पितृभिः संविदान उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयस्मये । द्रुऽपदे । बेधिषे । इह । अभिऽहित: । मृत्युऽभि: । ये । सहस्रम् । यमेन । त्वम् । पितृऽभि: । सम्ऽविदान: । उत्ऽतमम् । नाकम् । अधि । रोहय । इमम् ॥८४.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप से मुक्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (इह) यहाँ पर (मृत्युभिः) मृत्यु के कारणों से (ये) जो (सहस्रम्) सहस्र प्रकार है (अभिहितः) घिरा हुआ तू (अयस्मये) लोहे से जकड़े हुए (द्रुपदे) काठ के बन्धन में (वेधिषे=बध्यसे) बँध रहा है। (यमेन) नियम से (पितृभिः) पालन करनेवाले ज्ञानियों से (संविदानः) मिला हुआ (त्वम्) तू (इमम्) इस पुरुष को (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) आनन्द में (अधि रोहय) ऊपर चढ़ा ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य पापों के कारण बड़े-बड़े कष्ट उठाते हैं, वे विद्वानों से ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पद प्राप्त करें ॥४॥ यह मन्त्र अ० ६।६३।३। में आ चुका है ॥
टिप्पणी
४−(अयस्मये द्रुपदे) इत्येषा व्याख्याता−अ० ६।६३−३ ॥
पदार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या ६.६३.३ पर द्रष्टव्य है।
विशेष
आचार्यों व पितरों के सम्पर्क में ज्ञानी बनकर पाप-बन्धन से मुक्त होनेवाला यह व्यक्ति 'अथर्वा' बनता है-संसार के विषयों से न डाँवाडोल होनेवाला है। यही अगले पाँच सूक्तों का ऋषि है।
भाषार्थ
[हे निर्ऋति !] (अयस्मये) लोहसदृश सुदृढ़ (द्रुपदे) काष्ठनिर्मित पादबन्धन में (वेधिष) तू जब विद्ध कर देती है, तब (ये सहस्रम्) जो सहस्रबिध मृत्युएं हैं उन (मृत्युभिः) मृत्युओं के द्वारा (इह) इस भूलोक में (अभिहितः) जीवात्मा बद्ध हो जाता है। हे मुमुक्षु ! (त्वम्) तु जब (यमेन) नियन्ता परमेश्वर और (पितृभिः) माता-पिता-आचार्यरूपी रक्षकों के साथ (संविधान:) ऐक्यमत का प्राप्त होता है तब हे निर्ऋति ! तु (इमम्) इस (मुमुक्षु) को (उत्तमं नाकम्) सर्वोत्तम नाक पर (अधिरोहय) चढ़।
टिप्पणी
[जीवात्मा निर्ऋति के कारण विद्ध हो जाता है और नित्य होने के कारण अनादिकाल से हजारों योनियों में जन्म पा कर, सहस्रविध कृच्छ्रापतियों को भोगता, और अपने को बंधा हुआ अनुभव कर मुमुक्षु हो जाता है और नियन्ता परमेश्वर और पितरों द्वारा प्रदत्त मति के साथ ऐक्यमत को प्राप्त हो जाता है, तदनुकूल अपनी मति बना लेता है; तब निर्ऋति इस मुमुक्षु को नाक अर्थात् मोक्ष पद पर अधिरूढ करती है। नाकम् = न+अ+ कम् (सुखम्)। मोक्ष में न तो सांसारिक सुख होता है न किसी प्रकार सुखाभाव ही। अपितु मोक्ष में इन दोनों से भिन्न आनन्दानुभूति होती है। मोक्ष में जीवात्मा का संग परमेश्वर के साथ रहता है और वह परमेश्वरीय आनन्दमात्रा में लीन रहता है। परमेश्वर और पितरों का शिक्षानुसार तदनुरूप मति वाला हुआ भी मुमुक्षु जब तक सांसारिक सुख-दुःखों से विरक्त नहीं होता तब तक वह 'नाक' को प्राप्त नहीं होता। इसलिये 'नाक' पर अधिरोहण में अन्तिम कारण निर्ऋति कहा है। मन्त्र में अपेक्ष्य निर्ऋति पद स्त्रीलिङ्ग में है और 'संविदान:' पद पुंलिङ्ग में है। अतः मन्त्र में दो का वर्णन हुआ है एक का नहीं]।
विषय
आपत्ति और कष्टों के पापों से मुक्त होने की प्रार्थना।
भावार्थ
व्याख्या देखो [ ६। ६३। ३ ]
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अङ्गिरा ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। १ भुरिक् जगती। २ त्रिपदा आर्ची बृहती। ३ जगती। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतृऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Adversity or Destiny
Meaning
O law of karmic destiny, you bind man in iron chains to the post of sufferance here in life where he pines in pain and fear of death a thousand ways. O Spirit of action in divine freedom, abiding with Yama and parental sages of past and present, pray raise this humanity to the heights of highest freedom and eternal joy-
Translation
May you bind a man to the iron-peg, then in this world, he stays surrounded with deaths, which are thosands, (O distress divine); may you, in accord with the controller and the elders, raise this man to the highest sorrowless worlds. (Also see Av. VI.63.3)
Translation
This misery of ignorance binds the man in the world which is wrought of iron, the unbreakable elements of nature. In this world the soul in bondages is surrounded with mortalities and inflictions which ate thousand in number. O learned man! enjoying the company of All-controlling Lord and the men of learning and practice mount to this highest state of happiness.
Translation
O man, thou hast been fastened to an iron pillar of the body, surrounded in this world by various forms of death around thee. In full accord with the direction of God and the advice of the learned, lift thyself to the highest heaven of prosperity.
Footnote
See Atharva, 6-63-3.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(अयस्मये द्रुपदे) इत्येषा व्याख्याता−अ० ६।६३−३ ॥
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