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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 90/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - आर्षी भुरिगुष्णिक् सूक्तम् - इषुनिष्कासन सूक्त
    1

    नम॑स्ते रु॒द्रास्य॑ते॒ नमः॒ प्रति॑हितायै। नमो॑ विसृ॒ज्यमा॑नायै॒ नमो॒ निप॑तितायै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । ते॒ । रु॒द्र॒ । अस्य॑ते । नम॑: । प्रति॑ऽहितायै । नम॑: । वि॒ऽसृ॒ज्यमा॑नायै । नम॑: । निऽप॑तितायै ॥९०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते रुद्रास्यते नमः प्रतिहितायै। नमो विसृज्यमानायै नमो निपतितायै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । ते । रुद्र । अस्यते । नम: । प्रतिऽहितायै । नम: । विऽसृज्यमानायै । नम: । निऽपतितायै ॥९०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 90; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कर्म के फल का उपदेश।

    पदार्थ

    (रुद्र) हे पापियों के रुलानेवाले परमेश्वर ! (अस्यते) [बरछी वा बाण] छोड़नेवाले (ते) तुझको (नमः) नमस्कार है, (प्रतिहितायै) तानी हुई [बरछी] को (नमः) नमस्कार है। (विसृज्यमानायै) छुटती हुई को (नमः) नमस्कार है, और (निपतितायै) लक्ष्य पर पड़ी हुई [बरछी] को (नमः) नमस्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की विविध दण्डव्यवस्था को विचार कर उसकी उपासना करके पापों से बचें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(नमः) सत्कारः (ते) तुभ्यम् (रुद्र) हे पापिनां रोदयितः परमेश्वर (अस्यते) इषुं क्षिपते (प्रतिहितायै) हननाय संहितायै त्वदीयेषवे (विसृज्यमानायै) प्रेर्यमाणायै (निपतितायै) लक्ष्ये अधः पतितायै ॥

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    विषय

    अस्यते प्रतिहिताय, विसृज्यमानायै निपतितायै

    पदार्थ

    १. (रुद्र) = हे शरवेध द्वारा रुलानेवाले! (अस्यते ते) = फेंकते हुए तेरे लिए (नम:) = नमस्कार हो। हम तुझे दूर से ही छोड़नेवाले बनें, जिससे हमपर बाण न गिरे। (प्रतिहितायै) = धनुष पर जोड़े हुए-चढ़ाये हुए तेरे इषु के लिए (नम:) = नमस्कार हो। (विसुज्यमानायै) = धनुष से प्रेरित किये जाते हुए इस इषु के लिए (नमः) = नमस्कार हो। (निपतितायै) = विसर्जन के पश्चात् लक्ष्य पर गिरे हुए इस बाण के लिए (नमः) = नमस्कार हो।

    भावार्थ

    सबसे प्रथम तो हम रोग के कारणों को ही दूर करें [अस्यते], जब रोग उत्पन्न होने को हों तभी उन्हें रोकें [प्रतिहितायै], उत्पन्न हो रहे रोगों को रोकें [विसज्यमानायै] और यह आ जाए तो भी इसके दूरी-करण के लिए पूर्ण प्रयत्न करें [निपतितायै]।

    विशेष

    सब प्रकार के रोगों को तपस्या की अग्नि में दग्ध करके यह 'भृगु' बनता है। अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला, यह 'अङ्गिरा' होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (रुद्र) हे रुलाने वाले परमेश्वर ! (अस्यते) रोगरूपी इषु फैंकते हुए (ते) तुझे (नमः) नमस्कार हो, (प्रतिहितायै) धनुष पर स्थापित इषु के लिये (नमः) नमः हो। (विसृज्यमानायै) छोड़ जाते हुए इषु के लिये (नम:) नमः हो, (विपतितायै) लक्ष्य पर गिरे इषु के लिये (नमः) नमः हो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र के प्रथम पाद में नमः द्वारा रुद्र-परमेश्वर को नमः अर्थात् नमस्कार किया है, शेष तीन पादों में इस इषुरूप रोगों के प्रति नमः कहा है। इन तीन पादों में रोग की तीन अवस्थाएं निर्दिष्ट की हैं, रोग का पूर्वरूप, मध्यरूप, तथा रोग का आविर्भाव। इन तीन अवस्थाओं में रोग के अपाकरण के उपाय का वर्णन "नमः" द्वारा किया है। इन अवस्थाओं में "नमः" का अर्थ है "यथोचित अन्न"। नमः अन्न नाम (निघं० २॥७)। अन्नदोष से रोगोत्पन्न होते हैं। अत: अन्न पर नियंत्रण का कथन तीन पादों में हुआ है। रोगों को नमस्कार करने से रोगों का शमन नही होता। इस लिये सूक्त ९१ में नाना औषधों के योगों का वर्णन भी हुआ है]।

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    विषय

    रोग-पीड़ाओं को दूर करने के उपायों का उपदेश।

    भावार्थ

    रोगपीड़ा की चारों दिशाओं में चिकित्सा का उपदेश करते हैं। हे रुद्र ! रुलाने वाले कारण ! (ते) तेरे (अस्यते) फेंकते हुए तुझे (नमः) हम वश करें। यदि उस समय तुझे न वश कर सकें तो (प्रतिहितायै नमः) तेरे फेंकने के लिये तैयार बाण या शूलकारी तीक्ष्ण धार को (नमः) हम वश करें। यदि उसे भी न रोक सकें तो (विसृज्यमानाये नमः) जब छोड़ ही दिया हो ऐसे बाण को मध्य में वश करें अथवा (निपतितायै) जब गिर पड़े तब उसको (नमः) वश करें। पीड़ाजनक रोग को बाण से उपमा देकर उसके वश करने का उपदेश किया है। प्रथम रोग के कारणों को दूर करें और दूसरे जब रोग के कारणों से रोग उत्पन्न होने को हों तब उनको रोकें और तीसरे जब उत्पन्न हो रहे हों तब रोकें और चौथे जब रोग आ भी जाय तब भी उसको वश करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। १-२ अनुष्टुभौ। ३ आसुरी भुरिग् उष्णिक्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Extraction of the ‘arrow’

    Meaning

    Homage to you Rudra, lord both of punishment and peace. Homage to you and your shooting. Homage to the arrow on the bow and on the flight. Homage to the arrow on the target. (This is the respectful diagnosis, to be followed by the extraction and the comfort of relief.) Note: Normally this is the interpretation of this sukta: extraction of the arrow shot by an enemy. However, it may be interpreted in this way: this is an antidote to sukta 89. Sukta 89 suggests the love of life and living as a remedy for depression. If depression is cured by the love of life, the love might grow to lust and infatuation. The arrow can smite the heart, spreading out over the blood and every cell. Then we need the balance between depression and infatuation, the conjugal love of the householder and the lady of the house, and that love with judgement is the Vedic ideal. The cure of depression is excitement, the cure of excitement to the degree of infatuation is judgement. Excitement and peace should go together in the state of balance. The deity for both is Rudra, spirit of peace and punishment both.

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    Translation

    O terrible punisher, homage be to you when shooting; homage be to the arrow aimed at; homage be to the arrow leaving the bow-string; homage be to the arrow hitting (the target).

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    Translation

    We use preventive measure against the shaft (shaft of disease) of the Rudra, the disturned fire of the universe which is to be shot, which is ready to be shot, which has been shot and which has fallen on the victim.

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    Translation

    O painful disease, let us root out thy cause, failing that, let us suppress thy appearance, failing that, let us stop thy development, failing that, let us eradicate thee when thou hast actually overpowered us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(नमः) सत्कारः (ते) तुभ्यम् (रुद्र) हे पापिनां रोदयितः परमेश्वर (अस्यते) इषुं क्षिपते (प्रतिहितायै) हननाय संहितायै त्वदीयेषवे (विसृज्यमानायै) प्रेर्यमाणायै (निपतितायै) लक्ष्ये अधः पतितायै ॥

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