अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 98/ मन्त्र 3
प्राच्या॑ दि॒शस्त्वमि॑न्द्रासि॒ राजो॒तोदी॑च्या दि॒शो वृ॑त्रहञ्छत्रु॒होसि॑। यत्र॒ यन्ति॑ स्रो॒त्यास्तज्जि॒तं ते॑ दक्षिण॒तो वृ॑ष॒भ ए॑षि॒ हव्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्राच्या॑: । दि॒श: । त्वम्। इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । राजा॑ । उ॒त । उदी॑च्या: । दि॒श: । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । श॒त्रु॒ऽह: । अ॒सि॒ । यत्र॑ । यन्ति॑ । स्रो॒त्या: । तत् । जि॒तम् । ते॒ । द॒क्षि॒ण॒त: । वृ॒ष॒भ: ।ए॒षि॒ । हव्य॑: ॥९८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राच्या दिशस्त्वमिन्द्रासि राजोतोदीच्या दिशो वृत्रहञ्छत्रुहोसि। यत्र यन्ति स्रोत्यास्तज्जितं ते दक्षिणतो वृषभ एषि हव्यः ॥
स्वर रहित पद पाठप्राच्या: । दिश: । त्वम्। इन्द्र । असि । राजा । उत । उदीच्या: । दिश: । वृत्रऽहन् । शत्रुऽह: । असि । यत्र । यन्ति । स्रोत्या: । तत् । जितम् । ते । दक्षिणत: । वृषभ: ।एषि । हव्य: ॥९८.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वम्) तू (प्राच्याः दिशः) पूर्व वा सन्मुखवाली दिशा का (उत) और (उदीच्याः दिशः) उत्तर वा बाईं दिशा का (राजा असि) राजा है, (वृत्रहन्) हे अन्धकारनाशक ! तू (शत्रुहः) हमारे शत्रुओं का नाश करनेवाला (असि) है। (यत्र) जिस स्थान में (स्रोत्याः) जलधारायें (यन्ति) चलती हैं (तत्) वह स्थान [समुद्र वा अन्तरिक्ष] (ते) तेरा (जितम्) जीता हुआ है, (वृषभः) महापराक्रमी, (हव्यः) आवाहनयोग्य तू (दक्षिणतः) हमारी दाहिनी ओर (एषि) पहुँचता है ॥३॥
भावार्थ
परमेश्वर सब स्थान और सब काल में सब का शासक है, जो मनुष्य उस पर विश्वास करते हैं, वह उनका सदा सहायक होता है ॥३॥
टिप्पणी
३−(प्राच्याः) पूर्वस्याः। अभिमुखीभूताया (दिशः) दिशायाः (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (असि) (राजा) शासकः (उत) अपि च (उदीच्याः) उत्तरस्याः। वामभागभवाया (वृत्रहन्) हे अन्धकारनाशक (शत्रुहः) आशिषि हनः। पा० ३।२।४९। इति हन्तेर्डः। शत्रूणां हन्ता (यत्र) यस्मिन् स्थाने (यन्ति) प्रवहन्ति (स्रोत्याः) स्रोतसो विभाषा ड्यड्ड्यौ। पा० ४।४।११३। इति स्रोतस्−ड्य स्रोतसि भवाः। नद्यः−निघ० १।१३। जलधाराः (तत्) स्थानम्। समुद्रोऽन्तरिक्षं वा (जितम्) वशीकृतम् (ते) तव (दक्षिणतः) अ० ४।३२।७। दक्षिणभागे परमसहायकत्वेन (वृषभः) अ० ४।५।१। वृषु परमैश्वर्ये−अभच्। महापराक्रमी (एषि) गच्छसि (हव्यः) बहुलं छन्दसि पा० ६।१।३४। इति ह्वयतेः सम्प्रसारणे। अचो यत्। पा० ३।१।९७। इति यत्। आह्वातव्यः ॥
विषय
'शत्रहः' राजा
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक राजन् ! (त्वम्) = तू (प्राध्याः दिशः राजा असि) = पूर्व-दक्षिण दिशा में होनेवाले देश का राजा है (उत) = और (उदीच्याः दिशः राजा) = पश्चिमोत्तर दिशा में होनेवाले देश का भी राजा है। ('देश: प्राग्दक्षिण: प्राध्य उदीच्यः पश्चिमोत्तरः')। हे (वृत्रहन्) = शत्रुओं का हनन करनेवाले राजन्। तू शत्रुहः असि-राष्ट्र के शातन करनेवालों का नाशक है। २. (यत्र) = जहाँ (स्रोत्याः यन्ति) = जलप्रवाहोंवाली नदियाँ बहती हैं, (तत् ते जितम्) = उस प्रदेश को तूने जीत लिया है। सम्पूर्णभाग को तूने जीता है। ऐसा विजेता तू (वृषभ:) = सब सुखों का वर्षण करनेवाला होता हुआ (हव्यः) = हमसे पुकारने योग्य होता है। हमसे पुकारे जानेवाला तू (दक्षिणतः एषि) = दक्षिणभाग में गतिवाला होता है, अर्थात् हमारे द्वारा आदरणीय होता है।
भावार्थ
शत्रुओं को नष्ट करनेवाला राजा राष्ट्र को चारों दिशाओं से रक्षा करता है और प्रजा से आदरणीय होता है।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे सम्राट् ! (त्वम्) तू (प्राच्याः दिशः) पूर्व दिशा का (राजा असि) राजा है, (वृत्रहन्) हे वृत्रों अर्थात् घेरा डालने वालों का हनन करने वाले (उत) और तू (उदीच्याः दिशः) उत्तर की दिशा के (शत्रुहः असि) शत्रुओं का हनन करने वाला है। (यत्र) जिस ओर (स्रोत्याः) प्रस्रवनशील जलप्रवाह (यन्ति) जाते हैं, प्रवाहित होते हैं (तत्) वह भी (ते) तेरा (जितम्) जीता दुआ है, (हव्यः) हम द्वारा आहूत अर्थात् व्यामन्त्रित हुआ तू (वृषभः) वर्षा करने वाले मेघ के सदृश सुखों की वर्षा करता हुआ, (दक्षिणतः) दक्षिण प्रदेश से (एषि) तू आता है।
टिप्पणी
[मन्त्र में पूर्व और उत्तर दिशाओं का वर्णन स्वशब्दों द्वारा हुआ है। पृथिवी के पश्चिम तथा दक्षिण दिशाओं का कथन "यत्र यन्ति स्रोत्या:" द्वारा किया है। पृथिवी की नदियों के प्रवाह प्रायः पश्चिम तथा दक्षिण के समुद्रों में होते हैं। इन्हें भी इन्द्र ने जीत लिया है। वर्षा ऋतु में मेघ पश्चिम तथा दक्षिण के समुद्रों से ही उठते हैं। इन्द्र अर्थात् सम्राट् को राजधानी भी दक्षिण में होनी चाहिये ऐसा निर्देश मन्त्र द्वारा मिलता है, जहां से कि सम्राट् आमन्त्रित होने पर आता है। इन्द्र अर्थात् मेघीय-विद्युत् भी दक्षिण दिशा से मेघ के साथ आती है। इन्द्र समग्र पृथिवी का सम्राट् प्रतीत होता है, तभी इसे "अधिराजः, और राजसु राजयातै" द्वारा वर्णित किया है। वस्तुतः इन मन्त्रों में इन्द्र है इन्द्रेन्द्र। इन्द्रेन्द्र को ही संक्षेप में इन्द्र कहा है। जैसे कि देवदत्त को देव या दत्त कह दिया जाता है। इसी अभिप्राय को दृष्टिगत कर कहा है कि "कुत्स्नं भूमण्डलं त्वदायत्तमेवेत्यर्थः (सायण)। भूमण्डलव्यापी राज्यवालों को "चक्रवर्ती राजा" कहते हैं। अथर्ववेद में चक्रवर्ती राजा को "इन्द्रेन्द्र" कहा है। यथा “इन्द्रेन्द्र मनुष्या१ ३: परेहि" (अथर्व० ३।४।६)। इन्द्रेन्द्र:= इन्द्राणामिन्द्र। सम्राटों का सम्राट् ! ऐसा ही अभिप्राय (अथर्व० ३।४।१-७) के मन्त्रों में प्रकट होता है]। मनुष्यान अथवा मनुष्याः= हे मनुष्य ! (इन्द्रेन्द्र)।] [१. अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा में पाठ है, "मनुष्य"। इससे इन्द्रेन्द्र को मनुष्य कहा है। "मनुष्याः" पाठ अर्थसङ्गत नहीं होता। सायणाचार्य को भी "मनुष्याः" पाठ संगत नहीं प्रतीत हुआ, अतः उस ने मनुष्याः का अर्थ किया है "मनुष्यान्", तथा "यद्वा मनोरपत्यभूताः प्रजाः"। अथवा "मनुष्याः विशः"।]
विषय
विजयशील राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! (त्वम्) तू (प्राच्याः दिशाः) प्राची दिशा का (राजा असि) राजा है। (उत) और (उदीच्या दिशः) उत्तर दिशा का भी राजा है। और हे (वृत्रहन्) आवरणकारी, राष्ट्र को घेरने वाले शत्रुओं को मारने वाले ! तू ही (शत्रुहः असि) शत्रुओं का नाश करने वाला है। (यत्र) जिस देश में (स्त्रोत्याः) स्रोत से सदा बहने वाली नदियां (यन्ति) जाती हैं (तत्) वह राष्ट्र (ते) तेरे लिये (जितम्) वश करके रखने योग्य हैं। तभी (वृषभः) अपनी प्रजा पर सब सुखों की वर्षा करने वाला (हव्यः) प्रजा से करसंग्रह करने का अधिकारी होकर तू (दक्षिणतः) राष्ट्र की दक्षिण दिशा के भाग से या बल कार्य से सदा (एषि) आ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १,२ त्रिष्टुभौ, ३ बृहतीगर्भा पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra, the Victor
Meaning
O dispeller of darkness, destroyer of enemies and adversity, you are the ruler over the spaces wherever you move forwards. You are the ruler over the elevated phases of life wherever you move and rise. Indeed, as far as the streams of life flow, yours is the Territory, O victor and ruler. O lord most potent, generous and admirable, you are ever on the move and always on the right.
Translation
Of the easter region, O resplendent one, you are the king; and of the northern region, O slayer of nescience, you are the destroyer of enemies. You have conquered all as far as the rivers go (in the west). Worthy of offerings and full of vigour, may you come from the southern region.
Translation
O Omnipotent Lord! Thou rulest over the eastern and northern regions, O destroyer of evils! Thou art deprived of foes. O Lord! Thou hast under Thy control the regions where the rivers flow and almighty and worshipped Thou standest by my right to help and rescue me.
Translation
Thou governest the north and eastern regions, O King! fiend-slayer! thou destroyest foemen. Thou hast won all the places, far as the rivers wander. O King, the showerer of joys on thy subjects, the realiser of taxes from them, come to our right hand for help!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(प्राच्याः) पूर्वस्याः। अभिमुखीभूताया (दिशः) दिशायाः (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (असि) (राजा) शासकः (उत) अपि च (उदीच्याः) उत्तरस्याः। वामभागभवाया (वृत्रहन्) हे अन्धकारनाशक (शत्रुहः) आशिषि हनः। पा० ३।२।४९। इति हन्तेर्डः। शत्रूणां हन्ता (यत्र) यस्मिन् स्थाने (यन्ति) प्रवहन्ति (स्रोत्याः) स्रोतसो विभाषा ड्यड्ड्यौ। पा० ४।४।११३। इति स्रोतस्−ड्य स्रोतसि भवाः। नद्यः−निघ० १।१३। जलधाराः (तत्) स्थानम्। समुद्रोऽन्तरिक्षं वा (जितम्) वशीकृतम् (ते) तव (दक्षिणतः) अ० ४।३२।७। दक्षिणभागे परमसहायकत्वेन (वृषभः) अ० ४।५।१। वृषु परमैश्वर्ये−अभच्। महापराक्रमी (एषि) गच्छसि (हव्यः) बहुलं छन्दसि पा० ६।१।३४। इति ह्वयतेः सम्प्रसारणे। अचो यत्। पा० ३।१।९७। इति यत्। आह्वातव्यः ॥
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