अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रध्नः, उषाः
छन्दः - त्रिपदानुष्टुप्
सूक्तम् - ज्योति सूक्त
1
ब्र॒ध्नः स॒मीची॑रु॒षसः॒ समै॑रयन्। अ॑रे॒पसः॒ सचे॑तसः॒ स्वस॑रे मन्यु॒मत्त॑माश्चि॒ते गोः ॥
स्वर सहित पद पाठब॒ध्न:। स॒मीची॑: । उ॒षस॑: । सम् । ऐ॒र॒य॒न् । अ॒रे॒पस॑: । सऽचे॑तस: । स्वस॑रे । म॒न्यु॒मत्ऽत॑मा: । चि॒ते । गो: ॥२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रध्नः समीचीरुषसः समैरयन्। अरेपसः सचेतसः स्वसरे मन्युमत्तमाश्चिते गोः ॥
स्वर रहित पद पाठबध्न:। समीची: । उषस: । सम् । ऐरयन् । अरेपस: । सऽचेतस: । स्वसरे । मन्युमत्ऽतमा: । चिते । गो: ॥२३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विज्ञान की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रध्नः) नियम में बाँधनेवाले [सूर्यरूप] परमेश्वर ने (समीचीः) परस्पर मिली हुई, (अरेपसः) निर्मल, (सचेतसः) समान चेतानेवाली, (मन्युमत्तमाः) अत्यन्त चमकनेवाली (उषसः) उषाओं को (स्वसरे) दिन में (गोः) पृथिवी के (चिते) ज्ञान के लिये (सम्) यथावत् (ऐरयन्) भेजा है ॥२॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर, सूर्य के आकर्षण द्वारा पृथिवी के घुमाव से रात्रि के पश्चात् प्रकाश करता है, वैसे ही विद्वान् लोग अज्ञान नाश करके ज्ञान के साथ प्रकाशमान होते हैं ॥२॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
२−(ब्रध्नः) बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने-नक्, ब्रध इत्यादेशः। ब्रध्नः=अश्वः-निघ० १।१४। महान्-३।३। बन्धको नियामकः। सूर्यः। सूर्यादीनामकर्षकः परमात्मा (समीचीः) संगताः (उषसः) प्रभातवेलाः (सम्) सम्यक् (ऐरयन्) बहुवचनं छान्दसम्। ऐरयत्। प्रेरितवान् (अरेपसः) निर्मलाः (सचेतसः) समान चेतनकारिणीः (स्वसरे) दिने-निघ० १।९। (मन्युमत्तमाः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन दीप्तौ-युच्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा। मन्यन्त्यस्मादिषवः-निरु० १०।२९। अतिशयेन दीप्तयुक्ताः (चिते) चिती संज्ञाने-क्विप्। ज्ञानाय (गोः) भूमेः ॥
विषय
कैसी उषाएँ
पदार्थ
१. (ब्रध्न:) = सबको अपने-अपने कर्मों में बाँधनेवाला सूर्य (उषस: समैरयन्) = [त्]-उषाओं को प्रेरित करे। उन उषाओं को जोकि (समीची:) = सम्यक् गतिवाली हैं, जिनमें हम अपने नित्य कर्मों को ठीक प्रकार प्रारम्भ कर देते हैं, (अरेपसः) = जो पापशून्य हैं, जिनमें प्रभुस्मरण से हम पापवृत्ति को विनष्ट करते हैं। (सचेतसः) = ज्ञान से युक्त हैं, जिनमें हम स्वाध्याय द्वारा ज्ञान का वर्धन करते हैं। २. जो उषाएँ (स्वसरे) = दिन में [अहर्नामैतत्] (मन्युमत्तमा:) = अतिशयेन दीप्तिवाली हैं और जो (गो: चिते) = ज्ञान की वाणी के चयन के लिए हैं। जिन उषाओं में हम खुब ही ज्ञान का संचय करते हैं।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हमारे लिए उन उषाओं का उदय हो, जिनमें हम क्रियाशील, निष्पाप, ज्ञानवाले व वेदवाणी का चयन करनेवाले बनते हैं।
भाषार्थ
(ब्रध्नः) महाब्रह्म (समीचीः) समीचीन (अरेपसः) पाप विनाशनी, (सचेतसः) सचेत करने वाली (मन्युमत्तमाः) अत्यन्त चमकीली (उषसः) [आध्यात्मिक] उषाओं को (स्वसरे) किसी भी दिन (समैरयन) प्रेरित करता [भवति] हो जाता है, (गोः चिते) जबकि स्तुति वाणियों का चयन१ होता है।
टिप्पणी
[ब्रध्नः = महान् (उणा० ३।५, दयानन्द) [परमेश्वर]। मन्यु= मन्यते कान्तिकर्मा (निघं० २।६)। गोः चिते= गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। स्तुति वाणियों का जब चयन हो जाता है, चित्त में संचय हो जाता है, तब परमेश्वर उषाओं को भेजता है। ये उषाएं परमेश्वर प्राप्ति के पूर्वरूप हैं। श्वेता० उप० (२।११) में पूर्वरूप निम्नलिखित कहे हैं। यथा "नीहारधूमार्का नलानिलानाम्। खद्योतविद्युत्स्फटिक शशीनाम्। एतानि रूपाणि पुरस्सराणि२ ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे"। मन्त्र में चित्त में उषाओं३ का चमकना भी पुरस्सर अर्थात् पूर्वरूप दर्शाया है।] [१. चयन की भावना को "भूयिष्ठां ते नम उक्ति विधेम" द्वारा भी सूचित किया है (यजु० ४०।१६)। २. कोहरा, धुआं, सूर्य, आग, वायु, सितारे या जुगनू, विद्युत्, स्फटिक, चन्द्रमा। ३. ये आध्यात्मिक-उषाएं चमकती हैं, जब भी योगी ध्यानावस्थित हो जाय। प्राकृतिक उपाएं तो केवल सूर्योदय से पूर्व कुछ काल के लिये ही चमकती हैं।
विषय
ज्ञानदाता ईश्वर।
भावार्थ
पूर्व जिस प्रकार अपनी प्रातःकालीन स्वच्छ, उत्तम कांति युक्त दिन को प्रकाशित करने वाली उषाओं को प्रतिदिन प्रेरित करता है उसी प्रकार आत्मा भी अपनी दीप्तियुक्त, निष्पाप, ज्ञानमय, दीप्तियुक्त ज्योतिष्मती प्रज्ञाओं को प्रेरित करता है। जिस प्रकार (ब्रध्नः) सूर्य (अरेपसः) मल, दोष से रहित (स-चेतसः) ज्ञानोत्पादन करने वाली, मनोहर (स्व-सरे मन्युमत्-तमाः) दिन के समय अति प्रकाशमय (समीचीः) उत्तम सुहावनी (उषसः) उषाओं को (गोः चिते) जंगम पृथिवी के पदार्थ दर्शाने के लिये (सम्-ऐरयन्) उत्तम रीति से प्रकट करता है उसी प्रकार (ब्रध्नः) प्राण, इन्द्रिय और मन को एकत्र बांधने वाला ध्यानबद्ध योगी (गोः चिते) सर्व प्रेरक, परम प्रभु के दर्शन के लिये (स्व-सरे) अपने में व्यापक प्रभु में (मन्युमत् तमाः) अति मननशील (अरेपसः) पाप, मल, विक्षेप से रहित (सचेतसः) ज्ञान और चितिशक्ति से सम्पन्न (समीचीः) उत्तम रीति से आत्मा को प्राप्त होने वाली (उषसः) पाप या तामस आवरण को जला देने वाली, विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञाओं को (सम् ऐरयन्) उत्तम रीति से प्रेरित करता है।
टिप्पणी
‘मन्युमन्तश्चितागोः’ इति साम०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। मन्त्रोक्ता व्रध्नो देवता। १ द्विपदैकावसाना विराड् गायत्री। २ त्रिपाद अनुष्टुप्। द्व्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Light Divine
Meaning
Bradhna, infinite Spirit of the universe, self- refulgent as the sun, elevates, raises and radiates the dawns, equal and alike together, immaculate, illuminative and exalting, revealing the world for our enlightenment and inspiration in speech everyday.
Translation
This bright one urges forth the successive dawns, free from blemish, arousing ones, and the most zealous, for directing the sense-organs in their several actions.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.23.2AS PER THE BOOK
Translation
As the sun which is (Bradhnah) far-distant from and many times larger than this earth sends forth the dawns which are immaculate thought inspiring beautiful and refulgent in their home for beholding the objects of the earth so the Great Divine power gives to learned men mystic discrimination which is immaculate and simultaneous to know the worldly objects.
Translation
God, Resplendent like the Sun, hath sent forth the Dawns, a closely gathered band, immaculate, unanimous, brightly refulgent, for exhibiting the earth in the day time.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(ब्रध्नः) बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने-नक्, ब्रध इत्यादेशः। ब्रध्नः=अश्वः-निघ० १।१४। महान्-३।३। बन्धको नियामकः। सूर्यः। सूर्यादीनामकर्षकः परमात्मा (समीचीः) संगताः (उषसः) प्रभातवेलाः (सम्) सम्यक् (ऐरयन्) बहुवचनं छान्दसम्। ऐरयत्। प्रेरितवान् (अरेपसः) निर्मलाः (सचेतसः) समान चेतनकारिणीः (स्वसरे) दिने-निघ० १।९। (मन्युमत्तमाः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन दीप्तौ-युच्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा। मन्यन्त्यस्मादिषवः-निरु० १०।२९। अतिशयेन दीप्तयुक्ताः (चिते) चिती संज्ञाने-क्विप्। ज्ञानाय (गोः) भूमेः ॥
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