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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - देवपत्नी छन्दः - चतुष्पदा पङ्क्तिः सूक्तम् - देवपत्नी सूक्त
    1

    उ॒त ग्ना व्य॑न्तु दे॒वप॑त्नीरिन्द्रा॒ण्यग्नाय्य॒श्विनी॒ राट्। आ रोद॑सी वरुणा॒नी शृ॑णोतु॒ व्यन्तु॑ दे॒वीर्य ऋ॒तुर्जनी॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । ग्ना: । व्य॒न्तु॒ । दे॒वऽप॑त्नी: । इ॒न्द्रा॒णी । अ॒ग्नायी॑ । अ॒श्विनी॑ ।राट् । आ । रोद॑सी । व॒रु॒णा॒नी । शृ॒णो॒तु॒ । व्यन्तु॑ । दे॒वी: । य: । ऋ॒तु: । जनी॑नाम् ॥५१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत ग्ना व्यन्तु देवपत्नीरिन्द्राण्यग्नाय्यश्विनी राट्। आ रोदसी वरुणानी शृणोतु व्यन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । ग्ना: । व्यन्तु । देवऽपत्नी: । इन्द्राणी । अग्नायी । अश्विनी ।राट् । आ । रोदसी । वरुणानी । शृणोतु । व्यन्तु । देवी: । य: । ऋतु: । जनीनाम् ॥५१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के समान रानी को न्याय का उपदेश।

    पदार्थ

    (उत) और भी (देवपत्नीः) विद्वानों वा राजाओं की पत्नियाँ, [अर्थात्] (राट्) ऐश्वर्यवाली, (इन्द्राणी) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष की पत्नी, (अग्नायी) अग्नि सदृश तेजस्वी पुरुष की स्त्री, (अश्विनी) शीघ्रगामी पुरुष की स्त्री [प्रजा की] (ग्नाः) वाणियों को (व्यन्तु) व्याप्त हों। (आ) और (रोदसी) रुद्र, ज्ञानवान् पुरुष की स्त्री अथवा (वरुणानी) श्रेष्ठजन की पत्नी [वाणियों को] (शृणोतु) सुने और (यः) जो (जनीनाम्) स्त्रियों का [न्याय का] (ऋतुः) काल है, (देवीः) यह सब देवियाँ [उसकी] (व्यन्तु) चाहना करें ॥२॥

    भावार्थ

    स्त्रियाँ स्त्रियों को अपनी न्यायसभा के अधिकारी बनाकर घर और बाहिर के झगड़ों को उचित समय पर निर्णय करें, और बालकों को भी वैसी शिक्षा दें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(उत) अपि च (ग्नाः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति गमेर्न, टिलोपः, टाप्। मेना ग्ना इति स्त्रीणाम्, ग्ना गच्छन्त्येना-निरु० ३।२१। ग्ना गमनादापो देवपत्न्यो वा-निरु० १०।४७। ग्ना वाक्-निघ० १।११। वाणीः (व्यन्तु) वी गतिव्याप्तिप्रजनादिषु। व्याप्नुवन्तु (देवपत्नीः) विदुषां राज्ञां वा पत्न्यः (इन्द्राणी) इन्द्रस्य परमैश्वर्ययुक्तस्य पत्नी (अग्नायी) वृषाकप्यग्नि०। पा० ४।१।३७। ऐकारादेशः, ङीप् च। अग्नेः पावकवद् वर्तमानस्य पत्नी (अश्विनी) आशुगामिनः स्त्री (राट्) राजति=ईष्टे-निघ० २।२१। राजृ-क्विप्। ऐश्वर्यवती (आ) समुच्चये (रोदसी) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१।८९। रुधिर् आवरणे-असुन्, धस्य दकारः। उगितश्च। पा० ४।१।६। ङीप्। रोधनशीला रुद्रस्य पत्नी-निरु० १२।४६। ज्ञानवतः पत्नी (वरुणानी) श्रेष्ठजनस्य पत्नी (शृणोतु) (व्यन्तु) कामयन्ताम् (देवीः) विदुष्यः (ऋतुः) उपकारकालः (जनीनाम्) स्त्रीणाम् ॥

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    विषय

    ग्ना: व्यन्तु

    पदार्थ

    १. (उत) = और ये देवपत्नी:-[देवपतयो यासां ता:] दिव्यवृत्तिवाले पुरुषों की पलियाँ (ग्नाः व्यन्तु) = इन वेदवाणियों की कामना करें [कामयन्ताम् अश्नन्तु वा] ये वेदवाणियाँ ही इनका अध्यात्म भोजन बनें। ये (इन्द्राणी) = इन्द्र की पत्नी, जितेन्द्रिय पुरुष की पत्नी (अग्नायी) = अग्नि की पत्नी, प्रगतिशील पुरुष की पत्नी, (अश्विनी) = [अश्विनो जाया] प्राणापान के साधक पुरुष की पत्नी, राट्-राजन्ती, दीस जीवनवाली हो। २. यह (रोदसी) [रुद्रस्य जाया]= रुद्र की पत्नी, रोगों को दूर भगानेवाले पुरुष की पत्नी तथा (वरुणानी) = पापों का निवारण करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष की पत्नी (आशणोतु) = सदा इन वेदवाणियों को सुनें तथा (देवी:) = ये दिव्य गुणोंवाली स्त्रियाँ (यः जनीनां ऋतः) = जो जायाओं का [सन्तान को जन्म देनेवाली स्त्रियों का] काल है, उस समय (व्यन्तु) = वेदवाणियों की कामना करें। गर्भ में सन्तान की वृद्धि करनेवाली ये स्त्रियाँ यदि इस समय इन वाणियों को सुनेंगी तो 'इन्द्र, अग्नि, अश्विन, रुद्र व वरुण' के गुणों से युक्त सन्तानों को जन्म देनेवाली होंगी।

    भावार्थ

    दिव्यगुणों को धारण करनेवाले पुरुषों की पत्नियाँ वेदवाणियों की कामना करती हुई 'जितेन्द्रिय, प्रगतिशील, प्राणशक्ति-सम्पन्न, नीरोग व निष्पाप जीवनवाली' सन्तानों को जन्म देंगी।

    उत्तम माता से जन्म लेनेवाली यह सन्तान 'अङ्गिरा:'-अंग-प्रत्यंग में रसवाली-शक्तिशाली होती है। 'अङ्गिराः' ही अगले दो सूक्तों का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (उत) तथा (ग्नाः) विदुषी (देवपत्नीः) देवपत्नियां, देवों अर्थात् विद्वानों की पत्नियां (व्यन्तु) प्रजननसम्पन्ना हों, (इन्द्राणी) सम्राट् की पत्नी, (अग्नायी) अग्रणी प्रधानमन्त्री की पत्नी, (अश्विनी) दो अश्विनौ में प्रत्येक की पत्नी "अश्विनी"। (रोदसी) रुद्र अर्थात् सेनाधिपति की पत्नी, (वरुणानी) माण्डलिक राजा की पत्नी,- इन में से प्रत्येक (राट्) जिसका कि राज्य--व्यवस्था के साथ सम्बन्ध है, वह प्रत्येक (आशृणोतु) हमारी प्रार्थनाओं को ध्यानपूर्वक सुने, और यथाकाल (देवीः) ये देवियां (व्यन्तु) प्रजननसम्पन्ना हों, (यः) जो (ऋतुः) ऋतुकाल (जनीनाम्) इन जननशक्तिसम्पन्न देवियों का है।

    टिप्पणी

    [इन्द्र, वरुण= "इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३०)। रोदसी= रुद्रस्य पत्नी (निरुक्त १२।४।४६)। अग्निः= अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१६)। अश्विनी= पुण्यकृतौ राजानौ, अश्विनौ (निरुक्त)। "अश्विनौ" दो है, इन में से प्रत्येक की पत्नी अश्विनी है। गत ८ मन्त्रों में आधिभौतिक पत्नियों का वर्णन हुआ है, अतः व्याख्येय मन्त्र की भी व्याख्या प्रकरणानुसार, आधिभौतिक की गई है। व्यन्तु= वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु (अदादिः)। मन्त्र में "प्रजन" अभिप्रेत है। अश्विनी हैं, सम्भवतः राष्ट्र का नागरिक प्रजाविभाग तथा युद्धविभाग के दो मुखिया]।

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    विषय

    विद्वान् पुरुषों की स्त्रियों के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (उत) और (देव-पत्नी) देव = विद्वान् पुरुषों की स्त्रियां भी (ग्नाः) छन्दोमय वेदवाणियों का (व्यन्तु) अभ्यास किया करें। और (इन्द्राणी) इन्द्र, महाराज की स्त्री, (अग्नायी) और सेनापति की स्त्री (अश्विनी) अश्वी, वेगवान् रथ, विद्युत् आदि के प्रणेता शिल्पी पुरुषों की और (राट्) राजा की स्त्री, रानी (रोदसी) रुद्र दुष्टों के रुलाने वाली राष्ट्र के दमनकारी विभाग के अध्यक्ष की स्त्री ये सब (वरुणानी) और वरुण राजनियम-विधानकारी न्यायाधीश की स्त्री, ये सब (आशृणोतु) कार्य व्यवहार और स्त्री-संसार के कार्य व्यवहारों को सुना करें। और (जनीनां) प्रजा की स्त्रियों को (यः ऋतुः) जो काल नियत हो उस अवसर में ये (देव्यः) विदुषी स्त्रियां (व्यन्तु) प्राप्त हों। और स्त्रियों की व्यवस्था किया करें। स्त्रियों के साक्षी आदि स्त्रियां हों। स्त्रियों के सामाजिक, नैतिक और चिकित्सा आदि कार्य स्त्रियां ही करें और उत्सव आदि के अवसरों पर भी स्त्रियों की प्रबन्धक स्त्रियां हों, यह वेद की आज्ञा है।

    टिप्पणी

    तोकाय अपत्याय इति सायणः, बलाथेति दयानन्दः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। देवपत्न्यो देवताः। १ आर्षी जगती। २ चतुष्पदा पंक्तिः। द्वयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer for Peace and Protection

    Meaning

    Let all divine women, like words of Divinity, all Devapatnis, Indrani, first lady like light of the sun, Agnayi, consort of the leader like the heat of fire, Ashvini, women in the field of speed and technology, like light of the sun and moon, Rodasi, consort of Rudra, powers of health and justice like heaven and earth, Varunani, consort of Varuna, powers of security and punishment, like fluidity of water, listen and help us according to women’s seasons.

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    Translation

    May the yearning sustainers of the enlightened ones, these divine females, enjoy our offerings. May the power sustaining the aspirant, the power sustaining the divine, the shining power that sustains the twins divine, the power sustaining the cloud, and the power sustaining the ocean, listen to us well. May these deities enjoy, when it is the season for the wives. (rtur - janinam)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.51.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    Let these energies (Known as the wives of Devas)—Agnayi, the energy of fire; Indrani, the energy of air and electricity; Ashvini, the energy of vital breath—which is inhailed and which is exhailed; Rat, the brilliant one; Rodesi, the thermal energy; Varunani, the energy of the water;-enjoy their activities, become the source of audibility and let them make known to the concerned whatever is the season of the consorts.

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    Translation

    May the dignified wives of learned persons, the royal queen, the wife of the Commander-in-chief, the wife of a skilled artisan study the Vedas with full versification. May the wife of a scholar, the wife of the chief justice bear our complaints. May these learned women call the lady complainants for administering justice at the appointed time.

    Footnote

    The Vedas preach that females should be appointed as magistrates and judges for hearing the complaints of women, who cannot frankly lay their complaints before the male magistrates. Female judges should be highly learned.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(उत) अपि च (ग्नाः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति गमेर्न, टिलोपः, टाप्। मेना ग्ना इति स्त्रीणाम्, ग्ना गच्छन्त्येना-निरु० ३।२१। ग्ना गमनादापो देवपत्न्यो वा-निरु० १०।४७। ग्ना वाक्-निघ० १।११। वाणीः (व्यन्तु) वी गतिव्याप्तिप्रजनादिषु। व्याप्नुवन्तु (देवपत्नीः) विदुषां राज्ञां वा पत्न्यः (इन्द्राणी) इन्द्रस्य परमैश्वर्ययुक्तस्य पत्नी (अग्नायी) वृषाकप्यग्नि०। पा० ४।१।३७। ऐकारादेशः, ङीप् च। अग्नेः पावकवद् वर्तमानस्य पत्नी (अश्विनी) आशुगामिनः स्त्री (राट्) राजति=ईष्टे-निघ० २।२१। राजृ-क्विप्। ऐश्वर्यवती (आ) समुच्चये (रोदसी) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१।८९। रुधिर् आवरणे-असुन्, धस्य दकारः। उगितश्च। पा० ४।१।६। ङीप्। रोधनशीला रुद्रस्य पत्नी-निरु० १२।४६। ज्ञानवतः पत्नी (वरुणानी) श्रेष्ठजनस्य पत्नी (शृणोतु) (व्यन्तु) कामयन्ताम् (देवीः) विदुष्यः (ऋतुः) उपकारकालः (जनीनाम्) स्त्रीणाम् ॥

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