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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवः देवता - सरस्वती छन्दः - जगती सूक्तम् - सरस्वती सूक्त
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    स॒प्त क्ष॑रन्ति॒ शिश॑वे म॒रुत्व॑ते पि॒त्रे पु॒त्रासो॒ अप्य॑वीवृतन्नृ॒तानि॑। उ॒भे इद॑स्यो॒भे अ॑स्य राजत उ॒भे य॑तेते उ॒भे अ॑स्य पुष्यतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । क्ष॒र॒न्ति॒ । शिश॑वे । म॒रुत्व॑ते । पि॒त्रे । पु॒त्रास॑: । अपि॑ । अ॒वी॒वृ॒त॒न् । ऋ॒तानि॑ । उ॒भे इति॑ । इत् । अ॒स्य॒ । उ॒भे इति॑ । अ॒स्य॒ । रा॒ज॒त॒: । उ॒भे इति॑ । य॒ते॒ते॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । अ॒स्य॒ । पु॒ष्य॒त॒: ॥५९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवृतन्नृतानि। उभे इदस्योभे अस्य राजत उभे यतेते उभे अस्य पुष्यतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । क्षरन्ति । शिशवे । मरुत्वते । पित्रे । पुत्रास: । अपि । अवीवृतन् । ऋतानि । उभे इति । इत् । अस्य । उभे इति । अस्य । राजत: । उभे इति । यतेते इति । उभे इति । अस्य । पुष्यत: ॥५९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (सप्त) सात [इन्द्रियाँ अर्थात् दो कान, दो नथुने, दो आँख, एक मुख] (मरुत्वते) सुवर्णवाले (शिशवे) दुःखनाशक बालक [वा प्रशंसनीय वा उदार विद्वान्] के लिये [सुख से] (क्षरन्ति) बरसती हैं, (अपि) और (पुत्रासाः) पुत्रों [पुत्रसमान हितकारी पुरुषों] ने (पित्रे) उस पिता [पिता तुल्य माननीय] के लिये (ऋतानि) सत्य धर्मों को (अवीवृतन्) प्रवृत्त किया है। (उभे) दोनों [वर्तमान और भविष्यत् जन्म वा अवस्था] (इत्) ही (अस्य) इस [विद्वान्] के होते हैं, (अस्य) इसके (उभे) दोनों (राजतः) ऐश्वर्यवान् होते हैं, (उभे) दोनों (यतेते) प्रयत्नशाली होते हैं, (उभे) दोनों (अस्य) इसका (पुष्यतः) पोषण करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    धनी, परोपकारी, विद्वान् पुरुष इस जन्म और परजन्म और वर्तमान और भविष्यत् काल में पूर्ण सुख भोगते हैं ॥२॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में कुछ भेद से है−१०।१३।५ ॥

    टिप्पणी

    २−(सप्त) सप्त ऋषयः-अ० ४।११।९। कः सप्त खानि विततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। अ० १०।२।६। शीर्षण्यानि सप्तच्छिद्राणि (क्षरन्ति) सुखं वर्षन्ति (शिशवे) शः कित् सन्वच। उ० १।२०। शो तनूकरणे-उ। शिशुः शंसनीयो भवति शिशीतेर्वा स्याद् दानकर्मणः-निरु० १०।३९। दुःखस्य अल्पीकर्त्रे नाशयित्रे बालकाय दात्रे विदुषे वा (मरुत्वते) मरुत्=हिरण्यम्-निघ० १।२। सुवर्णवते (पित्रे) पितृतुल्यमाननीयाय विदुषे (पुत्रासः) पुत्रवदुपकारिणः पुरुषाः (अपि) च (अवीवृतन्) वर्ततेर्ण्यन्ताल्लुङि चङि रूपम्। प्रवर्तितवन्तः (ऋतानि) सत्यधर्माणि (उभे) उभ पूरणे-क। उभौ समुब्धौ भवतः-निरु० ४।४। उभेनिपासि जन्मनी-यजु० ८।३। द्वे वर्तमानभविष्यती जन्मनी अवस्थे वा (इत्) एव (अस्य) शिशोर्विदुषः पुरुषस्य (उभे) (अस्य) (राजतः) राजति=ईष्टे-निघ० २।२१। ऐश्वर्ययुक्ते भवतः (यतेते) यती प्रयत्ने। प्रयत्नं कुरुतः (पुष्यतः) पोषणं कुरुतः ॥

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    विषय

    शिशु मरुत्वान् पुत्र

    पदार्थ

    १. (शिशवे) = [शो तनकरणे] बुद्धि को तीव्र बनानेवाले अथवा काम, क्रोध आदि शत्रुओं का शासन करनेवाले (मरुत्वते) =  प्राणसाधक के लिए [मस्त: प्राणाः] (सप्त क्षरन्ति) = सात छन्दों से युक्त वेदवाणियों प्रवाहित होती हैं। हम प्राणसाधना करते हुए काम, क्रोध आदि के विनाश से बुद्धि को तीव्र बना पाएँगे तो इन ज्ञान की वाणियों को क्यों न प्राप्त करेंगे? (अपि) = और ये (पुत्रासः) = [पुनाति त्रायते]-ज्ञान की वाणियों के द्वारा अपने को पवित्र करनेवाले तथा अपना त्राण [रक्षण] करनेवाले लोग (पित्रे) = उस पिता प्रभु की प्राप्ति के लिए (ऋतानि अवीवृतन्) = सत्यभूत यज्ञादिरूप कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। २. इस (अस्य) = 'मरुत्वान् शिशु, ऋत के वर्तनवाले पुत्र' के (इत् उभे) = निश्चय से दोनों ही लोक उत्तम होते हैं। यह इहलोक के अभ्युदय और परलोक के नि:श्रेयस को प्राप्त करता है। (अस्य) = इसके (उभे) = दोनों द्यावापृथिवी-मस्तिष्क व शरीर (राजत:) = ज्ञान व शक्ति से दीप्त होते हैं। (उभे यतेते) = इसके दोनों इन्द्रियगण [ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ] यत्नशील होती हैं, परिणामतः (अस्य) = इसके (उभे पुष्यत:) = ब्रह्म और क्षत्र दोनों पुष्ट होते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ निरन्तर ज्ञान में लगी रहकर इसके ज्ञान का वर्धन करती हैं तथा कर्मेन्द्रियों यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहकर इसे सशक्त बनाये रखती हैं।

    भावार्थ

    हम बुद्धि को तीन करें [शिशु] प्राणसाधना में प्रवृत्त हों [मरुत्वान्] तथा अपने को पवित्र व रक्षित करें [पुत्र]। इसप्रकार हमें वेद ज्ञान प्राप्त होगा तथा ऋत् का पालन करते हुए हम पिता प्रभु को प्रास करेगे तथा हमारे जीवन में 'ब्रह्मा और क्षत्र' का समन्वय होगा।

    ज्ञान के अनुसार कर्म करनेवाला 'कौरुपथि' अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (शिशवे) शरीर में शयन किये हुए, (मरुत्वते) प्राणों के स्वामी, (पित्रे) पितृवत् शरीर के रक्षक जीवात्मा के लिये [जब] (पुत्रासः) पुत्रभूत (सप्त) सात प्राण (क्षरन्ति) प्रवाहित होते हैं, और (ऋतानि) सत्यमार्गों का (अपि) भी (अवीवृतन) व्यवहार में अवलम्बन कर लेते हैं [तब] (उभे इत्) दोनों ही, [पृथिवी और द्यौः] (अस्य) इस के हो जाते हैं, (अस्य) इसके [लिये] (उभे) दोनों (राजतः) ऐश्वर्यसम्पन्न हो जाते हैं, (उभे) दोनों (यतेते) यत्न करते हैं, (उभे) दोनों (अस्य) इस के [लिये] (पुष्यतः) पोषण करने लगते हैं।

    टिप्पणी

    [सप्त= ५ ज्ञानेन्द्रियां, १ मन, १ बुद्धि। ये जब सत्यमार्गों का अवलम्बन कर लेते हैं, तब समग्र जगत् इस देही का अपना हो जाता है, और इस के सुख तथा परिपोषण में तत्पर हो जाता है। इस द्वारा भिक्षार्थी को यह सुझाया है कि तेरे “सात" असन्मार्गी हैं, जिस से तुझे भिक्षा में भी चोट सहनी पड़ रही है। तू सत्यमार्गों का अवलम्बन कर तो समग्र जगत् तेरा हो जायेगा, और तेरा पोषण करने लग जायेगा। राजतिः ऐश्वर्यकर्मा (निघं० २।२१)। शिशवे= अनृतमार्गियों के जीवात्मा मानों सोए हुए होते हैं, और ऋतमार्गियों के जागरित अर्थात् प्रबुद्धावस्था में होते हैं]।

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    विषय

    सरस्वती रूप ईश्वर से प्रार्थना।

    भावार्थ

    (मरुत्वते शिशवे) सात मरुतों से युक्त,सात शिरोगत प्राणों से युक्त (शिशवे) इस शरीर में शयन करने वाले, अथवा अपने आत्मबल से शरीरपिण्ड में प्राणों के सातों मार्गों को बनाने वाले ‘शिशु’ नाम आत्मा के लिये या उसके निमित्त (सप्त) सातों प्राण (क्षरन्ति) गति करते हैं। ठीक ही है। क्योंकि (पित्रे) पिता के लिये (पुत्रासः) उसके लड़के (अपि) भी (ऋतानि) नाना कर्मों को (अवीवृतन्) किया करते हैं। इसी प्रकार वह शिशु आत्मा प्राणों का पालक और उत्पादक होने से पिता है, उस (पित्रे) पिता के लिये ये उससे उत्पन्न प्राण उसके पुत्र हैं और ‘पुरुत्रायते इति पुत्रः’ इस निरुक्त-वचन के अनुसार आत्मा की नाना प्रकार से रक्षा करने से भी ये पुत्र हैं, इस प्रकार ये (पुत्रासः) प्राण रूप पुत्रगण (ऋतानि) सत्य, यथार्थ ज्ञान प्राप्तिरूप व्यापारों को (अपि) भी (अवीवृत) किया करते हैं। और (अस्य) इस आत्मा के (इत्) ही (उभे) ये दोनों (राजतः) सदा प्रकाशमान, जीवित जागृत हैं। (अस्य) इसके ही निमित्त (उभे यतेते) दोनों प्रयत्न करते हैं। और (उभे) दोनों ही (अस्य) इसको ही (पुष्यतः) पुष्ट करते हैं, इसको सबल बनाये रखते हैं। अथवा इस मन्त्र में ३ वार उभे आया है अतः (अस्य इत् उभे) ये दोनों कान उसी के हैं (अस्य उभे राजतः) दोनों आंखें उसी की चमकती हैं (उभे अस्य यतेते) दोनो नाकें उसके लिये गति करती हैं (उभे अस्य पुष्यतः) रसना और मुख दोनों उसको पुष्ट करते हैं।

    टिप्पणी

    सातों शीर्षण्य प्राणों का इस प्रकार वर्णन कर दिया है। पूर्वमन्त्र में इसी आत्मा रूप सरस्वती का वर्णन है। “पराञ्चिखानि व्यतृणत् स्वयंभूः।” कठवल्ली ३। १। ‘अपां शिशुर्मातृतमास्वन्तः’। तै० सं० १८। २२। १॥ “सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धवः। ऋ० ८। ६९। १२। ‘मरुत्वत् पद के सामर्थ्य से मरुत्वान् ‘इन्द्र’ है। “इन्द्रोऽस्मान् अरदद् वज्रबाहुः अपाहन् वृत्रं परिधिं नदीनाम्। (ऋ० ३। ३३। ६) ये सब मन्त्रगण उसी इन्द्र आत्मा का वर्णन करते हैं जो उपनिषद् में प्रजापति रूप होकर अण्ड में ७ प्राणों से सात छिद्र करता हुआ वर्णन किया गया है। ‘सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्-धृत्यामूर्छयत्। तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत मुखाद् वाग्। वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां नासिकाभ्यां प्राणः। प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतां अक्षीभ्यां चक्षुषी चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभिद्यतामित्यादि समस्त प्रकरण में ‘शिशु आत्मा’ और ‘अपांशिशु’ का अध्यात्म वर्णन किया है। इसी के लिये बृहदारण्यक में लिखा है। ‘अयं वाव शिशुयोयं मध्यमः प्राणः (आत्मा) तमेताः सप्त अक्षितयः उपतिष्ठते। तदेष लोको भवति।’ “अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो विहितं विश्वरूपम्। तस्यासत ऋषयः, सप्त तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा संविदाना॥ इत्यादि (बृ० उ० २। २। १–४) (द्वि०)-‘अप्यवीवन्नृतम्’ (तृ०) ‘उभे इदस्योभयस्य’, (च०) ‘उभयस्य पुप्यतः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। सरस्वती देवता। जागतं छन्दः। द्वयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Inner Strength

    Meaning

    Seven gifts of Mother Nature, five senses with mind and intelligence, five pranas with Sutratma and Dhananjaya, bring showers of milky nourishment for the vibrant soul residing in the body, as children do good and bring hope and fulfilment to the parent, and they also abide by the laws of eternal truth as they serve the soul. Also, there are two other potentials which serve the soul, they shine and bring light and lustre for it, they are both active, and both nourish, promote and advance it in life. These are prana and apana energies of nature gifted to man.

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    Translation

    Seven flow for the child full of vital breath; the sons deal with the father according to eternal laws. Both of them, verily belong to Him; both of them as His shine up; both of them put in effort; both of them, as His, prosper well. (Also Rg. X.13.5)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.59.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    The seven meters of the Vedic speech shower pleasure and knowledge for the subtle soul, the children born to a father declare by their births the everlasting laws of birth and death (with reference to action), the both worlds or life in this present birth and in future birth are of this soul, both shine belonging unto him, both move together and both thrive together as his possession.

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    Translation

    Seven faculties work for the soul, full of Pranas (breaths). Just as sons perform various deeds for their father, so do the Pranas, the sons of the soul, spread truth and knowledge for the soul, their father, nourisher and generator. Two ears contribute to the strength of the soul. Two eyes derive light from the soul. Two nostrils work for the soul, Mouth and tongue strengthen the soul.

    Footnote

    Seven faculties: Mind, intellect, five organs of cognition. Sayana interprets सप्त as Seven rivers, which is unacceptable, as there is no history in the Vedas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सप्त) सप्त ऋषयः-अ० ४।११।९। कः सप्त खानि विततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। अ० १०।२।६। शीर्षण्यानि सप्तच्छिद्राणि (क्षरन्ति) सुखं वर्षन्ति (शिशवे) शः कित् सन्वच। उ० १।२०। शो तनूकरणे-उ। शिशुः शंसनीयो भवति शिशीतेर्वा स्याद् दानकर्मणः-निरु० १०।३९। दुःखस्य अल्पीकर्त्रे नाशयित्रे बालकाय दात्रे विदुषे वा (मरुत्वते) मरुत्=हिरण्यम्-निघ० १।२। सुवर्णवते (पित्रे) पितृतुल्यमाननीयाय विदुषे (पुत्रासः) पुत्रवदुपकारिणः पुरुषाः (अपि) च (अवीवृतन्) वर्ततेर्ण्यन्ताल्लुङि चङि रूपम्। प्रवर्तितवन्तः (ऋतानि) सत्यधर्माणि (उभे) उभ पूरणे-क। उभौ समुब्धौ भवतः-निरु० ४।४। उभेनिपासि जन्मनी-यजु० ८।३। द्वे वर्तमानभविष्यती जन्मनी अवस्थे वा (इत्) एव (अस्य) शिशोर्विदुषः पुरुषस्य (उभे) (अस्य) (राजतः) राजति=ईष्टे-निघ० २।२१। ऐश्वर्ययुक्ते भवतः (यतेते) यती प्रयत्ने। प्रयत्नं कुरुतः (पुष्यतः) पोषणं कुरुतः ॥

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