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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शन्तातिः देवता - सरस्वती छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सरस्वती सूक्त
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    इ॒दं ते॑ ह॒व्यं घृ॒तव॑त्सरस्वती॒दं पि॑तॄ॒णां ह॒विरा॒स्यं यत्। इ॒मानि॑ त उदि॒ता शम्त॑मानि॒ तेभि॑र्व॒यं मधु॑मन्तः स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । ते॒ । ह॒व्यम् । घृ॒तऽव॑त् । स॒र॒स्व॒ति॒ । इ॒दम् । पि॒तृ॒णाम् । ह॒वि: । आ॒स्य᳡म् । यत् । इ॒मानि॑ । ते॒ । उ॒दि॒ता: । शम्ऽत॑मानि । तेभि॑: । व॒यम् । मधु॑ऽमन्त:। स्या॒म॒ ॥७०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं ते हव्यं घृतवत्सरस्वतीदं पितॄणां हविरास्यं यत्। इमानि त उदिता शम्तमानि तेभिर्वयं मधुमन्तः स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । ते । हव्यम् । घृतऽवत् । सरस्वति । इदम् । पितृणाम् । हवि: । आस्यम् । यत् । इमानि । ते । उदिता: । शम्ऽतमानि । तेभि: । वयम् । मधुऽमन्त:। स्याम ॥७०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सरस्वती की आराधना का उपदेश।

    पदार्थ

    (सरस्वति) हे सरस्वती ! (इदम्) यह (यत्) जो (ते) तेरा (घृतवत्) प्रकाशयुक्त (हव्यम्) ग्राह्य कर्म है, और (इदम्) यह [जो] (पितॄणाम्) पिता समान माननीय विद्वानों के (आस्यम्) मुख पर रहनेवाला (हविः) ग्राह्य पदार्थ है और [जो] (ते) तेरे (इमानि) यह सब (शंतमानि) अत्यन्त शान्ति देनेवाले (उदिता) वचन हैं, (तेभिः) उनसे (वयम्) हम (मधुमन्तः) उत्तम ज्ञानवाले (स्याम) होवें ॥२॥

    भावार्थ

    जिस वेदविद्या का प्रकाश सारे संसार भर में फैल रहा है, और विद्वान् लोग जिसका अभ्यास करके उपदेश करते हैं, उस विद्या से सब मनुष्य लाभ उठावें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(इदम्) प्रत्यक्षम् (ते) तव (हव्यम्) ग्राह्यं ज्ञानम् (घृतवत्) प्रकाशयुक्तम् (सरस्वति) विज्ञानवति विद्ये (इदम्) (पितॄणाम्) पितृसममाननीयानां विदुषाम् (हविः) ग्राह्यं कर्म (आस्यम्) आस्य-यत्, यलोपः। आस्ये मुखे भवम्। विधिवदभ्यस्तम् (यत्) (इमानि) (ते) तव (उदिता) वद व्यक्तायां वाचि-क्तः यजादित्वात् संप्रसारणम्। उक्तानि वचनानि (शंतमानि) अत्यर्थं सुखकराणि (तेभिः) (तैः) वचनैः (मधुमन्तः) उत्तमज्ञानयुक्ताः (स्याम) भवेम ॥

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    विषय

    मधमन्तः [स्याम]

    पदार्थ

    १.हे (सरस्वति) = ज्ञानाधिष्ठातृदेवि! (इदम्) = यह (ते हव्यम्) = तेरा आदान [हु आदाने] (घृतवत्) = [ क्षरणदीप्त्योः ] मलों के क्षरण व ज्ञान की दीप्तिवाला है। तेरे उपासन से मलों का विनाश होता है और ज्ञान का प्रकाश प्रास होता है। यह तेरा (हवि:) = आदान (पितृणाम्) = पितरों का है। रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोग तेरा ग्रहण करते हैं। (यत्) = जो यह तेरा ग्रहण है, वह (आस्यम्) = [असु क्षेपणे] सब बुराइयों को परे फेंकनेवाला है। २. (इमानि) = ये (ते उदिता) = तेरे कथन (शन्तमानि) = अत्यन्त शान्ति देनेवाले हैं। यदि एक व्यक्ति वेदवाणी के अनुसार कार्य करता है, तो शान्ति प्राप्त करता है। (तेभिः) = उन तेरे कथनों से (वयम्) = हम (मधुमन्तः स्याम) = अत्यन्त मधुर व्यवहारवाले हों।

    भावार्थ

    'वेदवाणी' [सरस्वती] का आदान जीवन को निर्मल व दीस बनाता है। यह हमें रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त करता है और सब बुराइयों को हमसे दूर करता है। वेदवाणी के कथन शान्ति प्राप्त कराते हैं और हमारे जीवनों को मधुर बनाते हैं।

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    भाषार्थ

    (सरस्वति) हे ज्ञान-विज्ञानवाली वेदवाक् (इदम्) यह (घृतवत् हव्यम्) घृतमिश्रित (ते) तेरे लिये है, और (इदम्) यह (हविः, [घृतवत्]) घृतापरिपक्व) हवि अर्थात् अन्न (पितृणाम्) पितरों का है, (यत्) जो कि (आस्यम्) उन के मुख सम्बन्धी खाने के लिये है। हे सरस्वती ! (ते) तेरे लिये (इमानि) ये (शंतमानि) शान्ति-या-सुखप्रदायी वेदमन्त्ररूपी व (उदिता = उदितानि) कहे हैं। (तेभिः) उन वचनों द्वारा (वयम्) हम सारस्वत-यज्ञ करने वाले (मधुमन्तः) मधु वाले (स्याम) हों।

    टिप्पणी

    [सारस्वत-यज्ञ में हवि घृतमिश्रित होनी चाहिये, और वेदमन्त्रों के उच्चारण पूर्वक हवि की आहुतियां देनी चाहियें। यज्ञ की समाप्ति पर पितरों अर्थात् सारस्वत्-गुरुओं का सत्कार घृतपरिपक्व मिष्टान्न द्वारा होना चाहिये। हविः= हु दानादनयोः (जुहोत्यादिः) यज्ञाग्नि के लिये हवि का दान अर्थात् त्याग और गुरुओं के लिये उन के अदन अर्थात् भक्षण के योग्य अन्न का प्रदान। वेदमन्त्रों के उच्चारण द्वारा मानो मुख मधुर हो जाता है।]

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    विषय

    स्त्री के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (सरस्वति) सरस्वती देवि ! प्रियतमे ! (ते हव्यम्) तेरा भोज्य पदार्थ (इदम्) यह (घृतवत्) घृत आदि पुष्टिकारक, गर्भपोषक पदार्थों से युक्त हो। (इदम्) यही (पितॄणां) बालकों के उत्पादक पिता लोगों का भी (हविः) अन्न है। (यत्) जो (आस्यम् = आश्यम्) खाने योग्य है। (ते) तेरे (इमानि) ये (उदितानि) उच्चारण किये वाक्य वा जलयुक्त अन्न, (शं-तमानि) बहुत कल्याणकारी और सुखकारी हों। और (वयम्) हम (तेभिः) उन तेरे मधुर वचनों और अन्नों से ही (मधुमन्तः) हृदय में आनन्द और हर्षयुक्त (स्याम) हों। विद्यापक्ष में—हे विधे ! सरस्वति ! यह तेरा प्राप्त करने योग्य तेजोमय रूप है जिसको पितृ = पालक गुरु आदि भी प्राप्त करते हैं (यत् आस्यम्) और जो शिष्यों के प्रति देने योग्य है। तेरे समस्त वचन कल्याणकारी हों और उनसे हम मधुमान् या ज्ञानी और आनन्दमय रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। सरस्वती देवता। १ अनुष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ गायत्री। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Sarasvati

    Meaning

    Mother Sarasvati, this is our homage to you in the form of our best of knowledge and enlightenment, this is our parent’s and teachers’ homage of knowledge and enlightenment in the best of words and taste, and these are, in fact, your own most inspiring and enlightening gifts of peaceful and creative knowledge and wisdom arisen in the mind, by which, we pray, we may live a happy enlightened life with the sweetness of universal culture.

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    Translation

    O learning divine, this is your oblations rich in purified butter; this is the oblation for the elders: it is nice to eat. These most pleasing oblations have come up to you; with them. May we become full of sweetness.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.70.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    This offered oblation full of ghee is the libation of Vedic speech and knowledge which describes and prescribes it. It is the substance which goes to the grip of Sun-rays. Let us be endowed with wisdom by these peaceful auspicious words of this speech.

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    Translation

    O Vedic knowledge, this is thy brilliant, acceptable beauty, which even the preceptors acquire, and which is worthy of being imparted to the pupils. May all these utterances of thine be auspicious, and may we acquire knowledge and joy through them!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(इदम्) प्रत्यक्षम् (ते) तव (हव्यम्) ग्राह्यं ज्ञानम् (घृतवत्) प्रकाशयुक्तम् (सरस्वति) विज्ञानवति विद्ये (इदम्) (पितॄणाम्) पितृसममाननीयानां विदुषाम् (हविः) ग्राह्यं कर्म (आस्यम्) आस्य-यत्, यलोपः। आस्ये मुखे भवम्। विधिवदभ्यस्तम् (यत्) (इमानि) (ते) तव (उदिता) वद व्यक्तायां वाचि-क्तः यजादित्वात् संप्रसारणम्। उक्तानि वचनानि (शंतमानि) अत्यर्थं सुखकराणि (तेभिः) (तैः) वचनैः (मधुमन्तः) उत्तमज्ञानयुक्ताः (स्याम) भवेम ॥

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