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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    1

    यो नो॒ मर्तो॑ मरुतो दुर्हृणा॒युस्ति॒रश्चि॒त्तानि॑ वसवो॒ जिघां॑सति। द्रु॒हः पाशा॒न्प्रति॑ मुञ्चतां॒ स तपि॑ष्ठेन॒ तप॑सा हन्तना॒ तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒: । मर्त॑: । म॒रु॒त॒: । दु॒:ऽहृ॒णा॒यु: । ति॒र: । चि॒त्तानि॑ । व॒स॒व॒: । जिघां॑सति । द्रु॒ह: । पाशा॑न् । प्रत‍ि॑ । मु॒ञ्च॒ता॒म् । स: । तपि॑ष्ठेन । तप॑सा । ह॒न्त॒न॒ । तम् ॥८२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो मर्तो मरुतो दुर्हृणायुस्तिरश्चित्तानि वसवो जिघांसति। द्रुहः पाशान्प्रति मुञ्चतां स तपिष्ठेन तपसा हन्तना तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न: । मर्त: । मरुत: । दु:ऽहृणायु: । तिर: । चित्तानि । वसव: । जिघांसति । द्रुह: । पाशान् । प्रत‍ि । मुञ्चताम् । स: । तपिष्ठेन । तपसा । हन्तन । तम् ॥८२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वीरों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (वसवः) हे वसानेवाले (मरुतः) शूरो ! (यः) जो (दुर्हृणायुः) अत्यन्त क्रोध को प्राप्त हुआ (मर्तः) मनुष्य (चित्तानि) हमारे चित्तों के (तिरः) आड़े होकर (नः) हमें (जिघांसति) मारना चाहता है। (सः) वह [हमारे लिये] (द्रुहः) द्रोह [अनिष्ट] के (पाशान्) फन्दों को (प्रति) प्रत्यक्ष (मुञ्चताम्) छोड़ देवे, (तम्) उसे (तपिष्ठेन) अत्यन्त तपानेवाले (तपसा) ऐश्वर्य वा तुपक आदि हथियार से (हन्तन) मार डालो ॥२॥

    भावार्थ

    शूर वीर पुरुष दुष्टों का नाश करके श्रेष्ठों का पालन करें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−७।५९।८ ॥

    टिप्पणी

    २−(यः) (नः) अस्मान् (मर्तः) मनुष्यः (मरुतः) हे शूरगणाः (दुर्हृणायुः) हृणीयते क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। हृणीङ् रोषणे लज्जायां च-क। छन्दसीणः। उ० १।२। हृण+इण् गतौ-ञुण्। दुर्हृणं दुष्टं क्रोधं गतः। प्राप्तक्रोधः (तिरः) तिरस्कृत्य। उल्लङ्घ्य (चित्तानि) अन्तःकरणानि (वसवः) हे वासयितारः (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (द्रुहः) द्रोहस्य। अनिष्टस्य (पाशान्) बन्धान् (प्रति) प्रत्यक्षम् (मुञ्चताम्) त्यजतु (सः) शत्रुः (तपिष्ठेन) तापयितृतमेन (तपसा) ऐश्वर्येण तापकेनायुधेन वा (हन्तन) तस्य तनप्। हत ॥

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    विषय

    'वसवः' मरुतः

    पदार्थ

    १. हे (वसवः) = बसानेवाले, प्रशस्य अथवा वसुप्रद मरुतो! (यः मतः) = जो भी मनुष्य (दुर्हृणायु:) = बुरी तरह से क्रोध करता हुआ (तिर:) = तिरोभूत, अन्तर्हित हुआ-हुआ (नः चित्तानि) = हमारे चित्तों को जिघांसति नष्ट करना चाहता है, हमें क्षुब्ध करता है, (सः) = वह (द्रुहः पाशान्) = पापों के द्रोग्धा वरुण के पाशों को (प्रतिमुञ्चताम्) = धारण करे, वरुण के पाशों से बद्ध हो-प्रभु उसे दण्डित करें। (तपिष्ठेन तपसा) = अतिशयेन दीप्ति को प्राप्त करानेवाले तप से (तं हन्तन) = उसे विनष्ट करो। २. यदि कोई मनुष्य छिपे रूप में हमारे प्रति क्रोध की भावनावाला होकर हमारे मनोरथों को नष्ट करना चाहता है, तो हम उसके प्रति क्रोध न करते हुए यही सोचें कि प्रभु उसे उसके अपराध के लिए दण्डित करेंगे तथा हम तप के द्वारा जीवन को दीप्त बनाते हुए उसके क्रोध को नष्ट करने का यत्न करें।

    भावार्थ

    जो क्रोधी मनुष्य हमें क्षुब्ध करना चाहता है,वह वरुण के पाशों में जकड़ा जाए।

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    भाषार्थ

    (वसवः) प्रशस्त (मरुतः) हे सैनिको ! (यः) जो (दुर्हृणायुः) दुष्टक्रोधी (मतः) मरणधर्मा परराष्ट्र राजा (तिरः) छिपे उपायों द्वारा (नः) हमारे (चित्तानि) चित्तों को (जिघांसति) क्षुब्ध करना चाहता है, (सः) वह (द्रुहः) जिघांसा-सम्बन्धी (पाशान्) फन्दों को (प्रतिमुञ्चताम्) धारण करे (तम्) उसे (तपिष्ठेन) अत्यन्त तापी (तपसा) तापक-आयुध द्वारा (आहन्तन) मार डालो।

    टिप्पणी

    ["मरुतः" के दो अर्थों को लेकर सूक्त में द्विविध अर्थ हुए हैं। मानसून वायुओं की दृष्टि में सूक्त के प्रथम मन्त्र का अर्थ किया है, और सैनिकार्थ की दृष्टि से मन्त्र २, ३ के अर्थ किये हैं। मरुतः का अर्थ "मारने वाले सैनिक" भी होता है। यथा “इन्द्रऽआसां नेता, बृहस्पतिर्दक्षिणा, यज्ञः पुरऽएतु सोमः। देवसेनानामभि भञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम्" (यजु० १७।४०)। “हृणिः क्रोधः कर्मा" (निघं० २।१३, २।१२)। द्रुहः= द्रुह जिघांसायाम् (दिवादिः)। हत्या करने की इच्छा वाले राजा को फन्दों द्वारा जकड़ कर, मार देना चाहिये। मरुतः को "मानुषासः" (मन्त्र ३) में कहा है। इसलिये मनुष्य सैनिक भी सूक्त में अभिप्रेत हैं। तथा मरुत् = म्रियते मारयति वा स मरुत्, मनुष्यजातिः पवनो वा (उणा० १।९४ दयानन्द)]।

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    विषय

    राष्ट्रवासियों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) वीर पुरुषो ! वायु के समान तीव्र गतिवाले प्रजागणों ! और हे (वसवः) राष्ट्र के, देह के प्राण रूप या जीवन के हेतु रूप वसुगणो ! देशवासियो ! (नः) हममें से भी (यः) जो (मर्त्तः) अज्ञानी पुरुष (दुः-हृणायुः) दुष्ट, दुःसाध्य क्रोध के वश होकर (तिरः) कुटिलता से (नः) हमारे (चित्तानि) चित्तों को, सत्य मनोरथों या धर्मों को (जिघांसति) आघात पहुँचाना चाहता है (सः) वह (द्रुहः) द्रोही के योग्य (पाशान्) राजदण्ड रूप पाशों को (प्रति मुञ्चताम्) प्राप्त हो, उनमें बांधा जाय और (तम्) उसको (तपिष्ठेन) अति कष्टदायी (तपसा) यन्त्रणा से (हन्तन) मारो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिराः ऋषिः। मरुतः सांतपना मन्त्रोक्ताः देवताः। १ त्रिपदा गायत्री। २ त्रिष्टुप्। ३ जगती। तृचात्मकं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Enmity

    Meaning

    Whoever the man full of hate and fury against us that wants to violate our heart and mind, culture and values, and wants to dislodge and destroy us, O Maruts, givers of settlement, peace and prosperity, with the power of your relentless discipline force him that he gives up his plans and snares, and with your passion for peace, eliminate the hater and the furious destroyer.

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    Translation

    O storm-troopers, the rehabilitators whosoever a mortal, full of anger against us, wants to smite us, beyond our thought, let him put on the fetters of malice; kill him with the most tormenting weapon.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.82.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    O all-accommodating learned men; let that man who filled with rage against us beyond our thought, Kills our spirit and intentions be entangled in the noose of his own mischief. You smite him down with heat flaming heat of your austerity.

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    Translation

    O charitable, brave fellows, the man who filled with rage against us would like to defeat our aims through crookedness may he be caught in the noose of treachery: smite ye him down with your most flaming weapon!

    Footnote

    See Rig, 7-59-8.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) (नः) अस्मान् (मर्तः) मनुष्यः (मरुतः) हे शूरगणाः (दुर्हृणायुः) हृणीयते क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। हृणीङ् रोषणे लज्जायां च-क। छन्दसीणः। उ० १।२। हृण+इण् गतौ-ञुण्। दुर्हृणं दुष्टं क्रोधं गतः। प्राप्तक्रोधः (तिरः) तिरस्कृत्य। उल्लङ्घ्य (चित्तानि) अन्तःकरणानि (वसवः) हे वासयितारः (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (द्रुहः) द्रोहस्य। अनिष्टस्य (पाशान्) बन्धान् (प्रति) प्रत्यक्षम् (मुञ्चताम्) त्यजतु (सः) शत्रुः (तपिष्ठेन) तापयितृतमेन (तपसा) ऐश्वर्येण तापकेनायुधेन वा (हन्तन) तस्य तनप्। हत ॥

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