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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - मरुद्गणः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    1

    सं॒व॒त्स॒रीणा॑ म॒रुतः॑ स्व॒र्का उ॒रुक्ष॑याः॒ सग॑णा॒ मानु॑षासः। ते अ॒स्मत्पाशा॒न्प्र मु॑ञ्च॒न्त्वेन॑सः सांतप॒ना म॑त्स॒रा मा॑दयि॒ष्णवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽव॒त्स॒रीणा॑: । म॒रुत॑: । सु॒ऽअ॒र्का: । उ॒रुऽक्ष॑या: । सऽग॑णा: । मानु॑षास: । ते । अ॒स्मत् । पाशा॑न् । प्र । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । एन॑स: । सा॒म्ऽत॒प॒ना: । म॒त्स॒रा: । मा॒द॒यि॒ष्णव॑: ॥८२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संवत्सरीणा मरुतः स्वर्का उरुक्षयाः सगणा मानुषासः। ते अस्मत्पाशान्प्र मुञ्चन्त्वेनसः सांतपना मत्सरा मादयिष्णवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽवत्सरीणा: । मरुत: । सुऽअर्का: । उरुऽक्षया: । सऽगणा: । मानुषास: । ते । अस्मत् । पाशान् । प्र । मुञ्चन्तु । एनस: । साम्ऽतपना: । मत्सरा: । मादयिष्णव: ॥८२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वीरों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (संवत्सरीणाः) पूरे निवास काल तक [जीवन भर] प्रार्थना किये गये, (स्वर्काः) बड़े वज्रोंवाले (उरुक्षयाः) बड़े घरोंवाले, (सगणाः) सेनाओंवाले, (मानुषासः) मननशील (मरुतः) शूर पुरुष हैं। (ते) वे (सांतपनाः) बड़े ऐश्वर्यवाले, (मत्सराः) प्रसन्न रहनेवाले, (मादयिष्णवः) प्रसन्न रखनेवाले पुरुष (अस्मत्) हम से (एनसः) पाप के (पाशान्) फन्दों को (प्र मुञ्चन्तु) छुड़ा देवें ॥३॥

    भावार्थ

    वे शूर वीर पुरुष धन्य हैं, जो प्रसन्नता से पुरुषार्थ करके सबको क्लेशों से छुड़ा कर सुखी करते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(संवत्सरीणाः) संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। सम्+वस निवासे-सरन्। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। सस्य तत्वम्। संपरिपूर्वात् ख च। पा० ५।१।९२। संवत्सर-ख, अधीष्टार्थे। सम्वत्सरं सम्यग् निवासकालमधीष्टाः प्रार्थिताः (मरुतः)-म० १। शूराः (स्वर्काः) अ० ७।२४।१। सुवज्रिणः (उरुक्षयाः) क्षि निवासगत्योरैश्वर्ये च विस्तीर्णगृहाः (सगणाः) सैन्यैः सहिताः (मानुषासः) अ० ४।१४।५। असुक्। मनुर्मननं येषां ते (ते) मरुतः (अस्मत्) अस्मत्तः (पाशान्) बन्धान् (प्र) (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (एनसः) पापस्य (सांतपनाः)-म० १। पूर्णैश्वर्यवन्तः (मत्सराः) अ० ४।२५।६। मदी हर्षे-सरन्। हृष्टाः। प्रसन्नाः (मादयिष्णवः) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। मादयतेः-इष्णुच्। हर्षकराः ॥

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    विषय

    'संवत्सरीणाः स्वर्का:' मरुतः

    पदार्थ

    १. (संवत्सरीणा:) = सम्यक निवास के हेतुभूत मरुतः प्राण स्वाः -[अर्कम् अन्नम्] उत्तम अन्न का सेवन करनेवाले हैं। प्राणसाधक को सदा सात्त्विक अन्न का ही सेवन करना है। ये प्राण उरुक्षयाः-विशाल निवास स्थानवाले हैं, ये शरीर की शक्तियों की विशालता का कारण बनते हैं। सगणा:-[ससगणा वै मरुतः-तै०२.२.५.७.] सात-सात के सात गणोंवाले हैं। उनचास भागों में बँटकर शरीर में कार्य कर रहे हैं। मानुषासः मनुष्य का हित करनेवाले हैं। हमें विचारशील बनानेवाले हैं। २. ये ते-वे मरुत् [प्राण] अस्मत्-हमसे एनस: पाशान् पाप के पाशों को प्रतिमुञ्चन्तु-छुड़ा दें। सान्तपना:-ये हमें अति दीत जीवनवाला बनाते हैं, मत्सरा:-आनन्दपूर्वक गति करनेवाले हैं और मादयिष्णव: हमें सन्तोष प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ

    प्राणसाधना के साथ सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए हम 'दीर्घजीवी, विशाल शक्तियोंवाले, विचारशील, निष्पाप, दीस, प्रसन्न व सन्तोषवाले' बनेगें।

    यह प्राणसाधक 'अथर्वा' बनता है, यही अगले सूक्तों का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (संवत्सरीणाः) प्रतिवर्ष सत्कार को प्राप्त हुए, (स्वर्काः) उत्तम पोशाकों तथा शस्त्रास्त्रों द्वारा सूर्यवत् चमकने वाले, (उरुक्षयाः) शत्रुओं का महाक्षय करने वाले, (सगणाः) गणों सहित, (मानुषासः) मनुष्यों के संघस्वरूप (सांतपनाः१) शत्रुओं को तपाने वाले, (मत्सरा) हर्षपूर्वक विचरने वाले, (मादयिष्णवः) हमें प्रसन्न करने वाले (ते) वे (मरुतः) सैनिक, (अस्मत्) हम से (एनसः) पापजन्य (पाशान्) फन्दों को (प्रमुञ्चन्तु) खोल दें।

    टिप्पणी

    [पाशान्= शत्रु ने हमारी कमजोरी या पापमयी प्रवृत्तियों के कारण जो फंदे हम पर डाल दिये हैं उन से छुटकारा पाना]। [१. हे शत्रुओं को तपाने वाले सैनिकों ! (इदम् हविः) युद्ध यज्ञ में इस आत्मसमर्पण रूपी हवि को तुम प्रेमपूर्वक स्वीकार करो। हमारी रक्षा के लिये तुम हिंसक शत्रुओं का उपक्षय करो॥१।। जुजुष्टन= जुषी प्रीतिसेवनयोः (तुदादिः)। ऊतिः रक्षा, भव रक्षणे (भ्वादिः)।]

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    विषय

    राष्ट्रवासियों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (सं-वत्सरीणाः) एक एक वर्ष के लिये नियुक्त हुए (सु-अर्काः) उत्तम ज्ञानवान्, पूज्य, मननशील श्रेष्ठ (उरु-क्षयाः) बड़े बड़े महलों में या भवनों में निवास करनेवाले (स-गणाः) अपने सहायकारी साथियों सहित (मानुषासः) मननशील विचारवान् (मरुतः) जो देश के प्राण स्वरूप विद्वान पुरुष हैं (ते) वे (अस्मत्) हमारे (एनसः) पाप के (पाशान्) पाशों को (प्र मुञ्चन्तु) उत्तम रीति से दूर करें। वे ही उस पापकारी पुरुष के (सांतपनाः) अच्छी प्रकार तपाने वाले होते और (मादयिष्णवः) दूसरों को भी हर्षित किया करते हैं। गर्भाधन से लेकर उपनयन, विवाह, अग्निहोत्र, व्रताचार आदि करने वाले गृहस्थ लोग ‘सांतपन अग्नि’ कहाते हैं। वे देश में अपनी व्यवस्था उक्त रूप से रखें और प्रतिवर्ष अपनी व्यवस्था को सुधार लिया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिराः ऋषिः। मरुतः सांतपना मन्त्रोक्ताः देवताः। १ त्रिपदा गायत्री। २ त्रिष्टुप्। ३ जगती। तृचात्मकं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Enmity

    Meaning

    Maruts, vibrant life time heroes of blazing radiance and arms of thunder, space unbound and countless forces, human at heart committed to humanity, may, we pray, release us from the snares of sin and evil. Austere of discipline and joyous, they love to see peace and happiness prevailing all around.

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    Translation

    The storm-troopers, coming every year, well-fed, dwelling in big houses, trooped in (their respective) units, and humane, may they, full of fiery heat, rejoicing and pleasing all, the bonds of sin from us.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.82.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    The learned persons who are equipped with austerity, who are accomplished with knowledge, who come to us in flocks, who dwell in spacious houses, who are of well-developed mind, who follow to come each year, who are delightful and exhilarating—may deliver us from the noose of sin.

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    Translation

    May the annual visitors, revered, dwellers in spacious mansions, accompanied by their companions, thoughtful learned persons, exhilarating, gladdening, chastisers of foes, deliver us from the binding bonds of sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(संवत्सरीणाः) संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। सम्+वस निवासे-सरन्। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। सस्य तत्वम्। संपरिपूर्वात् ख च। पा० ५।१।९२। संवत्सर-ख, अधीष्टार्थे। सम्वत्सरं सम्यग् निवासकालमधीष्टाः प्रार्थिताः (मरुतः)-म० १। शूराः (स्वर्काः) अ० ७।२४।१। सुवज्रिणः (उरुक्षयाः) क्षि निवासगत्योरैश्वर्ये च विस्तीर्णगृहाः (सगणाः) सैन्यैः सहिताः (मानुषासः) अ० ४।१४।५। असुक्। मनुर्मननं येषां ते (ते) मरुतः (अस्मत्) अस्मत्तः (पाशान्) बन्धान् (प्र) (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (एनसः) पापस्य (सांतपनाः)-म० १। पूर्णैश्वर्यवन्तः (मत्सराः) अ० ४।२५।६। मदी हर्षे-सरन्। हृष्टाः। प्रसन्नाः (मादयिष्णवः) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। मादयतेः-इष्णुच्। हर्षकराः ॥

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