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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 16
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - परसेनाहननम्, इन्द्रः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
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    इ॒म उ॒प्ता मृ॑त्युपा॒शा याना॒क्रम्य॒ न मु॒च्यसे॑। अ॒मुष्या॑ हन्तु॒ सेना॑या इ॒दं कूटं॑ सहस्र॒शः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । उ॒प्ता: । मृ॒त्यु॒ऽपा॒शा: । यान् । आ॒ऽक्रम्य॑ । न । मु॒च्यसे॑ । अ॒मुष्या॑: । ह॒न्तु॒ । सेना॑या: । इ॒दम् । कूट॑म् । स॒ह॒स्र॒ऽश: ॥८.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इम उप्ता मृत्युपाशा यानाक्रम्य न मुच्यसे। अमुष्या हन्तु सेनाया इदं कूटं सहस्रशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । उप्ता: । मृत्युऽपाशा: । यान् । आऽक्रम्य । न । मुच्यसे । अमुष्या: । हन्तु । सेनाया: । इदम् । कूटम् । सहस्रऽश: ॥८.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    शत्रु के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमे) ये (मृत्युपाशाः) मृत्यु के जाल (उप्ताः) फैले हैं, (यान्) जिनमें (आक्रम्य) पाँव धरकर [हे शत्रु !] (न मुच्यसे) तू नहीं छूटता है। (इदम्) यह (कूटम्) फन्दा (अमुष्याः सेनायाः) उस सेना का (सहस्रशः) सहस्रों प्रकार से (हन्तु) हनन करे ॥१६॥

    भावार्थ

    राजा शत्रु लोगों को दृढ़ बन्धनों में रखकर विनष्ट करे ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(इमे) सर्वत्र व्याप्ताः (उप्ताः) डुवप बीजसन्ताने-क्त। विस्तृताः (मृत्युपाशाः) मरणबन्धाः (यान्) (आक्रम्य) पादेन प्राप्य (न) निषेधे (मुच्यसे) मुक्तो भवसि (अमुष्याः) तस्याः (हन्तु) हननं करोतु (सेनायाः) (इदम्) (कूटम्) कूट परितापे-अच्। बन्धनयन्त्रम् (सहस्रशः) म० १। बहुप्रकारेण ॥

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    विषय

    मृत्युपाश

    पदार्थ

    १. (इमे) = ये (मृत्युपाशा: उसा:) = शत्रुसैन्य को मृत्यु प्राप्त करानेवाले पाश लगा दिये गये हैं, हे शत्रुसैन्य! (यान् आक्रम्य) = जिन पाशों पर पग रखकर तू (न मुच्यसे) = फिर छूट नहीं पाता, उस जाल में तू फैंस ही जाता है। २. (इदं कूटम्) = यह जाल [trap] (अमुष्या: सेनायाः) = उस शत्रुसेना के (सहस्त्रशः हन्त) = हजारों ही सैनिकों को नष्ट करनेवाला हो।

    भावार्थ

    भूमि पर इसप्रकार घातक प्रयोगों का जाल बिछाया जाए कि उसपर पग रखकर सहस्रशः शत्रु-सैन्य विध्वस्त हो जाए।

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    भाषार्थ

    (इमे) ये (मृत्युपाशाः) मृत्यु के फन्दे (उप्ताः) बीजरूप में बोए हैं, (यान् आक्रम्य) जिन पर पग रख कर [हे शत्रु सैनिक !] तू (न मुच्यसे) मृत्यु से छूट नहीं सकता। (इदम्, कूटम्) यह कूट प्रयोग (अमुष्याः सेनायाः) उस शत्रुसेना के (सहस्रशः) हजारों बन्दीकृत सैनिकों की (हन्तु) हत्या करे।

    टिप्पणी

    [इमे= मन्त्र १४, १५ में प्रयुक्त प्रयोग। दुष्कर्मियों के दुष्कर्मों के सर्वथा निराकरण के लिये उपप्रयोग वेदानुमोदित हैं]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Enemies’ Rout

    Meaning

    The seeds and snares of death are sown and scattered a thousand ways which, if you step on and that way try to cross over, you would never be free. Man should launch the attack on the centrehold of the force of death the same way as they are scattered and be free.

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    Translation

    These are the nooses of death set up firmly. Having stepped on them, you shall not escape. May this horn kill by thousands of the yonder army (host).

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    Translation

    O enemy ! here all spread the snare of death or the fatal missiles of which you can never escape and this complicated device would smite and slay the thousand persons of enemy- host.

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    Translation

    Here spread are snares of Death, wherefrom thou, once within them, ne’er art freed, full many a thousand of the host yonder this horn shall smite and slay.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(इमे) सर्वत्र व्याप्ताः (उप्ताः) डुवप बीजसन्ताने-क्त। विस्तृताः (मृत्युपाशाः) मरणबन्धाः (यान्) (आक्रम्य) पादेन प्राप्य (न) निषेधे (मुच्यसे) मुक्तो भवसि (अमुष्याः) तस्याः (हन्तु) हननं करोतु (सेनायाः) (इदम्) (कूटम्) कूट परितापे-अच्। बन्धनयन्त्रम् (सहस्रशः) म० १। बहुप्रकारेण ॥

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