अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 14
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
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सने॑मि च॒क्रम॒जरं॒ वि वा॑वृत उत्ता॒नायां॒ दश॑ यु॒क्ता व॑हन्ति। सूर्य॑स्य॒ चक्षू॒ रज॑सै॒त्यावृ॑तं॒ यस्मि॑न्नात॒स्थुर्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसऽने॑मि । च॒क्रम् । अ॒जर॑म् । वि । व॒वृ॒ते॒ । उ॒त्ता॒नाया॑म् । दश॑ । यु॒क्ता: । व॒ह॒न्ति॒ । सूर्य॑स्य । चक्षु॑: । रज॑सा । ए॒ति॒ । आऽवृ॑तम् । यस्मि॑न् । आ॒ऽत॒स्थु: । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥१४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
सनेमि चक्रमजरं वि वावृत उत्तानायां दश युक्ता वहन्ति। सूर्यस्य चक्षू रजसैत्यावृतं यस्मिन्नातस्थुर्भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठसऽनेमि । चक्रम् । अजरम् । वि । ववृते । उत्तानायाम् । दश । युक्ता: । वहन्ति । सूर्यस्य । चक्षु: । रजसा । एति । आऽवृतम् । यस्मिन् । आऽतस्थु: । भुवनानि । विश्वा ॥१४.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
[उस ब्रह्म में] (सनेमि) एकसी पुट्ठीवाला [पहिये का बाहिरी भाग वा चलाने का बल एक सा रखनेवाला], (अजरम्) शीघ्रगामी (चक्रम्) चक्र [चक्रसमान संवत्सर वा काल] (वि) खुला हुआ (ववृते=वर्तते) घूमता है, [उसी ब्रह्म में] (उत्तानायाम्) उत्तमता से फैली हुई [सृष्टि] के भीतर (दश) दस (युक्ताः) जुड़ी हुई [दिशाएँ] (वहन्ति) बहती हैं। [और उसी ब्रह्म में] (सूर्यस्य) सूर्य का (चक्षुः) नेत्र (रजसा) अन्तरिक्ष के साथ (आवृतम्) फैला हुआ (याति) चलता है, (यस्मिन्) जिस [ब्रह्म] के भीतर (विश्वा भुवनानि) सब लोक (आतस्थुः) यथावत् ठहरे हैं ॥१४॥
भावार्थ
जिस परमात्मा में सब लोक समष्टिरूप से स्थित हैं, उसी में काल, दिशाएँ और सूर्य आदि व्यष्टिरूप से वर्तमान हैं ॥१४॥ (यस्मिन्, आतस्थुः) के स्थान पर ऋग्वेद में म० १४ [तस्मिन् आर्पिता] पद हैं ॥
टिप्पणी
१४−(सनेमि) नियो मिः। उ० ४।४३। णीञ् प्रापणे-मि। समानचालनसामर्थ्ययुक्तम्। एकप्रकारबहिर्वलयम् (चक्रम्) म० २। रथाङ्गवत् संवत्सराख्यं कालाख्यं वा (अजरम्) अ० २।२९।७। ऋच्छेररः। उ० ३।१३१। अज गतिक्षेपणयोः-अरप्रत्ययः। शीघ्रगामि (वि) व्याप्य (ववृते) लटि लिट्। वर्तते (उत्तानायाम्) उत्+तनु विस्तारे-घञ् टाप्। उत्कृष्टतया विस्तृतायां जगत्याम् (दश) उच्चनीचान्तर्दिक् सहिताः पूर्वादिदिशाः। (युक्ताः) संयुक्ताः (वहन्ति) गच्छन्ति (सूर्यस्य) (चक्षुः) नेत्रस्थानीयं मण्डलम्। चक्षुः ख्यातेर्वा चष्टेर्वा-निरु० ४।३। (रजसा) अन्तरिक्षेण-निरु० १२।७। लोकैः सह-द० (एति) गच्छति (आवृतम्) वृणोतेः-क्त। व्याप्तम् (यस्मिन्) ब्रह्मणि (आतस्थुः) समन्तात् तिष्ठन्ति (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि ॥
विषय
'रजः आवृतं' सूर्य चक्षु
पदार्थ
१. यह पृथिवी भी एक चक्र की भाँति है और इस चक्र की 'नेमि' बदलती नहीं रहती। यह (सनेमि) = समान नेमिवाला है-इस पृथिवीचक्र की परिधि जीर्ण-शीर्ण नहीं होती। यह (चक्रम्) = समान नेमिवाला पृथिवीचक्र (अजरम्) = अजर है-कभी जीर्ण नहीं होता। यह (विवावृते) = विशेष तीव्र गति से सूर्य के चारों ओर बारम्बार घूम रहा है। प्रतिवर्ष यह अपना चक्राकार भ्रमण पूर्ण कर लेता है। २. इस (उत्तानायाम्) = न तो सम और न ही अवतल [Concave], अपितु उत्तान, [Convex] इस भूचक्र पर अवस्था व विकास के दृष्टिकोण से (दश) = दस स्थितियों में वर्तमान पुरुष (युक्ता:) = अपने-अपने व्यापार में लगे हुए (वहन्ति) = जीवन का वहन कर रहे हैं। आयुष्य की दश दशतियों में चलते हुए व्यक्ति ही यहाँ 'दश' कहे गये हैं। ३. (सूर्यस्य चक्षुः) = सूर्य का प्रकाश (रजसा) = अन्तरिक्षस्थ जलवाष्पों से आवृत्त हुआ-हुआ (एति) = हम तक पहुँचता है। इतने दीर्घ आवरणों को पार करने के कारण ही हमें सूर्यकिरणों की प्रचण्ड उष्णता अनुभव नहीं होती। यह सूर्यचक्षु वह है, (यस्मिन्) = जिस रज:आवृत्त सूर्यप्रकाश में ही (विश्वा भुवनानि) = सब प्राणी (आतस्थुः) = स्थित हैं। इस प्रकाश के अभाव में जीवन सम्भव नहीं।
भावार्थ
इस भूचक्र की परिधि कभी जीर्ण-शीर्ण नहीं होती। इस उत्तान भूचक्र में जीवन की दस दशतियों में वर्तमान मनुष्य अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त हुए-हुए चल रहे हैं। इस भूचक्र पर सूर्य का प्रकाश विशाल अन्तरिक्ष-समुद्र में से होकर हम तक पहुँचता है। इस सूर्यप्रकाश से ही सब जीवित हैं।
भाषार्थ
(सनेमि) ब्रह्मरूपी नेमि वाला, (अजरम्) जीर्ण न होता हुआ (चक्रम्) चक्रसमान गोलाकार सूर्य (विवावृते) निज अक्ष पर घूम रहा है, (उत्तानायाम्) ऊपर तानी हुई दिशा में (युक्ताः दश) जुती हुईं १० शक्तियां (वहन्ति) सूर्य का वहन करती हैं। (सूर्यस्य चक्षुः) सूर्यरूपी आंख (रजसा आवृतम्) प्रकाश से घिरी हुई (एति) आती है, (यस्मिन्) जिस सूर्य के आश्रय में (विश्वा भुवनानि) सब सौर-भुवन (आ तस्थुः) उसके सब ओर स्थित हैं।
टिप्पणी
[सनेमि = रथ के पहिये की परिधि पर लोहे का चक्कर जिसे नेमि कहते हैं, चढ़ा दिया जाता है जो कि पहिये की रक्षा करता है, उसे टूटने से बचाता है। सूर्यरूपी पहिये की रक्षा करता है ब्रह्म। इसलिये ब्रह्म को नेमि कहा है। दशयुक्तः = १० अश्व१ सूर्यचक्र या सूर्य के काल्पनिक रथ का वहन कर रहे हैं। सूर्यस्य चक्षुः= सूर्यरूपी चक्षुः, विकल्पे षष्ठी। यथा पुरुषस्य चैतन्यम्। पुरुष चैतन्य स्वरूप है, तो भी पुरुष में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है (योग १।९) पर व्यासभाष्य। रजसा= ज्योतिषा। "ज्योतीरज उच्यते" (निरुक्त ४।३।१९)। अथवा सूर्य को रास्ता दिखाने वाली ब्रह्मरूपी चक्षु प्रातः काल की उपासना में प्रकट होती है, जिस में कि ब्रह्माण्डव्यापी सब भुवन स्थित हैं] [१. बुध, शुक्र, पृथिवी, मङ्गल, बृहस्पति, शनैश्चर, यूरेनस, [वरुण] नेपच्यून, धूम्रकेतु तथा पृथिवी सम्बन्धी चन्द्रमा।]
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
Existent with its centre and circumference, the unaging wheel, chariot, of the universe of physio- temporal character goes on and on, round and round. In the expansive evolution of Prakrti, ten motive powers move it on, those ten being the pranic energies. The light of the sun suffused with Rajas, cosmic energy, goes on with the worlds. Indeed, all the worlds of existence abide vested in that light and energy.
Translation
The undecaying wheel with felly goes on revolving again and again. Ten (horses), yoked to the taut rein, carry it. The sun’s eye, covered with vapour, goes forth, in which all the worlds abide. (Also Rg. I.164.14)
Translation
The cycle of the year with its felly revolves without being wasted and ten regions of the space yoked therein draw it in the space. Sun circled with the region moves the light of sun on which rest all the worlds.
Translation
The All-controlling, Immortal wheel of the universe is revolving spaciously: Ten, yoked together draw it in this wide world. The wisdom of God, united with Energy, manages the whole universe. On this Energy rest and depend all regions and planets.
Footnote
Ten: The ten regions of space, the four cardinal and the four intermediate points, with the Zenith and the Nadir, or ten vital breaths.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(सनेमि) नियो मिः। उ० ४।४३। णीञ् प्रापणे-मि। समानचालनसामर्थ्ययुक्तम्। एकप्रकारबहिर्वलयम् (चक्रम्) म० २। रथाङ्गवत् संवत्सराख्यं कालाख्यं वा (अजरम्) अ० २।२९।७। ऋच्छेररः। उ० ३।१३१। अज गतिक्षेपणयोः-अरप्रत्ययः। शीघ्रगामि (वि) व्याप्य (ववृते) लटि लिट्। वर्तते (उत्तानायाम्) उत्+तनु विस्तारे-घञ् टाप्। उत्कृष्टतया विस्तृतायां जगत्याम् (दश) उच्चनीचान्तर्दिक् सहिताः पूर्वादिदिशाः। (युक्ताः) संयुक्ताः (वहन्ति) गच्छन्ति (सूर्यस्य) (चक्षुः) नेत्रस्थानीयं मण्डलम्। चक्षुः ख्यातेर्वा चष्टेर्वा-निरु० ४।३। (रजसा) अन्तरिक्षेण-निरु० १२।७। लोकैः सह-द० (एति) गच्छति (आवृतम्) वृणोतेः-क्त। व्याप्तम् (यस्मिन्) ब्रह्मणि (आतस्थुः) समन्तात् तिष्ठन्ति (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि ॥
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