अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 16
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
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सा॑कं॒जानां॑ स॒प्तथ॑माहुरेक॒जं षडिद्य॒मा ऋष॑यो देव॒जा इति॑। तेषा॑मि॒ष्टानि॒ विहि॑तानि धाम॒श स्था॒त्रे रे॑जन्ते॒ विकृ॑तानि रूप॒शः ॥
स्वर सहित पद पाठसा॒क॒म्ऽजाना॑म् । स॒प्तथ॑म् । आ॒हू॒: । ए॒क॒ऽजम् । षट् । इत् । य॒मा: । ऋष॑य: । दे॒व॒ऽजा: । इति॑ । तेषा॑म् । इ॒ष्टानि॑ । विऽहि॑तानि । धा॒म॒ऽश: । स्था॒त्रे । रे॒ज॒न्ते॒ । विऽकृ॑तानि । रू॒प॒ऽश: ॥१४.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
साकंजानां सप्तथमाहुरेकजं षडिद्यमा ऋषयो देवजा इति। तेषामिष्टानि विहितानि धामश स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः ॥
स्वर रहित पद पाठसाकम्ऽजानाम् । सप्तथम् । आहू: । एकऽजम् । षट् । इत् । यमा: । ऋषय: । देवऽजा: । इति । तेषाम् । इष्टानि । विऽहितानि । धामऽश: । स्थात्रे । रेजन्ते । विऽकृतानि । रूपऽश: ॥१४.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(साकंजानाम्) एक साथ उत्पन्न हुओं में से (सप्तथम्) सातवें [जीवात्मा] को (एकजम्) अकेला उत्पन्न हुआ (आहुः) वे [तत्त्वदर्शी] बताते हैं, [और कि] (षट्) छह [कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका पाँच ज्ञानेन्द्रिय और मन] (इत्) ही (यमाः) नियम में चलानेवाले (ऋषयः) [अपने विषयों को देखनेवाली] इन्द्रिय (देवजाः) देव [गतिशील जीवात्मा] के साथ उत्पन्न होनेवाले हैं, (इति) यह [वे बताते हैं]। (तेषाम्) उन, [इन्द्रियों] के (विहितानि) विहित [ईश्वर के ठहराये] (विकृतानि) विविध प्रकारवाले (इष्टानि) इष्ट कर्म (स्थात्रे) अधिष्ठाता [जीवात्मा] के लिये (धामशः) स्थान-स्थान में और (रूपशः) प्रत्येक रूप में (रेजन्ते) चमकते हैं ॥१६॥
भावार्थ
कर्मफल के अनुसार अकेले जीवात्मा के साथ सब इन्द्रियाँ उत्पन्न होकर उसके वश में रहकर अनेक विषयों को प्रकाशित करती हैं। इसी से जितेन्द्रिय पुरुष परम आनन्द प्राप्त करते हैं ॥१६॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में २५ है और निरु० १४।१९। में व्याख्यात है−“एक साथ उत्पन्न हुए छह इन्द्रियों में आत्मा सातवाँ है” ॥ और निरु० १२।३७। में वर्णन है−“सात ऋषि शरीर में रक्खे हुए छह इन्द्रियाँ और सातवीं विद्या आत्मा में” ॥
टिप्पणी
१६−(साकंजानाम्) सहोत्पन्नानां सप्तानां मध्ये (सप्तथम्) थट् च च्छन्दसि। पा० ५।२।५०। इति थट्। सप्तमं जीवात्मानम्। सहजातानां षण्णामिन्द्रियाणामात्मा सप्तमः-निरु० १४।१९। (आहुः) कथयन्ति (एकजम्) एकोत्पन्नम् (षट्) पञ्चज्ञानेन्द्रियमनांसि (इत्) एव (यमाः) नियन्तारः (ऋषयः) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० १२।३७। (देवजाः) देवाज्जीवात्मनो जाताः (इति) प्रकारार्थे (तेषाम्) इन्द्रियाणाम् (इष्टानि) अभिमतकर्माणि (विहितानि) विदधातेः-क्त। ईश्वरस्थापितानि (धामशः) धामानि धामानि (स्थात्रे) अधिष्ठात्रे जीवात्मने (रेजन्ते) रेजृ दीप्तौ। दीप्यन्ते। रेजत इति भयवेपनयोः-निरु० ३।२१। (विकृतानि) विविधप्रकाराणि (रूपशः) प्रत्येकरूपे ॥
विषय
धामशः, न कि रूपश:
पदार्थ
१. जब जीव शरीर ग्रहण करता है तब पाँच ज्ञानेन्द्रियों और मन आत्मा के साथ ही शरीर में प्रवेश करते हैं [सह उत्पन्नानां षड् इन्द्रियाणाम्-यास्क]। (ये साकंजानाम्) = साथ ही होनेवाली इन इन्द्रियों के (सप्तथम्) = सातवें बुद्धितत्त्व को भी (एक-जम्) = उस मुख्य आत्मतत्व के साथ रहनेवाली (आह:) = कहते हैं। आत्मा शरीर-रथ का रथी है तो बुद्धि सारथि है। यह सारथि मनरूप लगाम के द्वारा इन्द्रियरूप घोड़ों को वश में रखता है। ये (षट्) = मन व इन्द्रियों बुद्धिरूप सारथि से नियन्त्रित होने पर (यमाः इत्) = निश्चय से यम [नियन्त्रित] कहलाती हैं। उस समय ये ऋषयः तत्वदर्शन करनेवाली होती हैं और (देवजा:) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाली होती हैं। ये हमें ज्ञान व दिव्य सम्पत्ति से भर देती हैं। (इति) = बस, (नियन्त्रित) = हुई-हुई ये ज्ञान व दिव्य गुणों को देनेवाली-सी बनती हैं। २. प्रभु ने (तेषाम्) = उन मन, इन्द्रियों व बुद्धि का (धामश:) = शक्ति के दृष्टिकोण से (इष्टानि विहितानि) = वाञ्छनीय पदार्थों का निर्माण किया है। हमें इन सांसारिक पदार्थों का प्रयोग इनकी शक्ति के दृष्टिकोण से ही करना चाहिए, (रूपश:) = सौन्दर्य व स्वादादि के मापक से इन पदार्थों का प्रयोग होने पर (विकृतानि) = विकृत हुई-हुई ये इन्द्रियों (स्थात्रे रेजन्ते) = इस शरीररूप रथ पर रहनेवाले अधिष्ठाता जीव को कम्पित [विचलित] करनेवाली हो जाती हैं, अत: हमें इन पदार्थों का प्रयोग शक्ति के दृष्टिकोण से ही करना चाहिए, न कि सौन्दर्य व स्वाद के लिए।
भावार्थ
शरीर में आत्मा के साथ प्रवेश करनेवाली इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि हैं। बुद्धि से नियन्त्रित इन्द्रियाँ व मन हमें ज्ञान व दिव्य गुणों से भर देते हैं। यदि हम प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग इनकी शक्ति को बढ़ाने के दृष्टिकोण से करते हैं तो ठीक है, परन्तु स्वाद व सौन्दर्य की ओर उन्मुख हुई तो ये विकृत होकर जीव को कम्पित [विचलित] करनेवाली होती हैं।
भाषार्थ
(साकंजानाम्) साथ उत्पन्नों में से (सप्तथम्) सातवें को (एकजम्) एक से उत्पन्न हुआ (आहू) कहते हैं, इन सात में (षट् इत्) ६ ही (यमाः) नियमनकर्ता हैं, (ऋषयः) जो कि गति करते हैं, तथा (देवजा इति) देवज हैं। (तेषाम्) उन के (इष्टानि) अभीष्ट (धामशः) उन के स्थानानुसार (विहितानि) विहित किये हैं, निश्चित किये हैं, वे (रूपशः) निज स्वरूपों के अनुरूप (विकृतानि) प्रकृति के विकार हैं, और (स्थात्रे) शरीर में स्थित जीवात्मा के लिये (रेजन्ते) गति करते हैं।
टिप्पणी
[महत्तत्त्व अर्थात् विद्या या बुद्धि, तथा ५ ज्ञानेन्द्रियां, और १ मन, ये ७ साथ-साथ रहते हैं। शरीरावस्था में भी साथ-साथ रहते हैं, और जन्म-जन्मान्तरों में भी साथ-साथ रहते हैं, और सूक्ष्मशरीरावस्था में भी साथ-साथ रहते हैं। इन में एक अर्थात् महत्तत्त्व "एक-कारण" प्रकृति से पैदा हुआ है, और शेष ६ अनेक कारणों से पैदा हुए हैं, महत्तत्त्व और अहङ्कार रूपी विकृतियों से। ये ६ शरीर का नियमन करते हैं, गतिशील हैं, और परमेश्वर देव से पैदा हुए हैं। शरीर में इन के अभीष्ट स्थान निश्चित कर दिये गए हैं। ये शरीर में स्थित हुए जीवात्मा के भोगापवर्ग के लिये गतिमान् होते हैं, अपने-अपने नियत स्थानों में रहते हुए भी गति करते हैं। महत्तत्त्व तो मोक्षावस्था में भी जीवात्मा के साथ रहता है, जिस द्वारा जीवात्मा मोक्षसुख का अनुभव करता है, और पुनरावर्तन पर शेष ६, महतत्त्व से विकृतिरूप में पुनः प्रकट हो जाते हैं]।
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
Seven simultaneously born of one unborn, they call a Septet, that is, seven-in-one and one-in-seven. Six of them are ‘Yamas’, twin movers. They are Rshis, formative evolutioners, born of Devas, light and energy. Their properties and actions according to their place and character are created and ordained, and they, each in its form and character, move around for and in the unmoved mover. (These seven are the seven lokas: Bhu, Bhuva, Sva, Maha, Jana, Tapa, and Satyam. Sometimes the lokas are associated with Rshis, sometimes described as seven senses, and sometimes seven pranic energies. All these refer, in fact point to a theory of correspondencies existing at the physical, mental and spiritual levels, or at the level of matter, energy and thought and spirit. And this is a subject for high research and deep meditation.)
Translation
Of these (seasons) born together, the seventh is called as born of one. The six alone are born in pairs; they move on and are born of god (the Sun). Sacrifices pertaining to them are performed at proper periods, and for him, who presides, the auxiliary sacrifices continue in various forms. (Also Rg. I.164.15)
Translation
The learned men tell us that the seventh one of the co-born is single born. The six twin pairs of the year called as seasons are born from deva, the sun, The good gifts of these seasons are ranged in due order and these various forms move one by one for the sun which is the permanent source of them. [N.B. : In this verse six seasons the each of which bear two months are called deva and yama due to their being produced from the sun and being the pairs of two months. Normally there are six seasons and therefore, they ore called co-born. The seventh one is due to intercalary month which is single one. Hence it is called single-born.]
Translation
Of the co-born the learned call the seventh single-born. The six organs, the regulators of the body, the bestowers of knowledge are born with the soul. Their duties are ordained by God in due order, and they work in various forms for the good of the soul.
Footnote
Seventh: The soul. Six organs: Eye, Ear, Nose, Tongue, Skin, Mind.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(साकंजानाम्) सहोत्पन्नानां सप्तानां मध्ये (सप्तथम्) थट् च च्छन्दसि। पा० ५।२।५०। इति थट्। सप्तमं जीवात्मानम्। सहजातानां षण्णामिन्द्रियाणामात्मा सप्तमः-निरु० १४।१९। (आहुः) कथयन्ति (एकजम्) एकोत्पन्नम् (षट्) पञ्चज्ञानेन्द्रियमनांसि (इत्) एव (यमाः) नियन्तारः (ऋषयः) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० १२।३७। (देवजाः) देवाज्जीवात्मनो जाताः (इति) प्रकारार्थे (तेषाम्) इन्द्रियाणाम् (इष्टानि) अभिमतकर्माणि (विहितानि) विदधातेः-क्त। ईश्वरस्थापितानि (धामशः) धामानि धामानि (स्थात्रे) अधिष्ठात्रे जीवात्मने (रेजन्ते) रेजृ दीप्तौ। दीप्यन्ते। रेजत इति भयवेपनयोः-निरु० ३।२१। (विकृतानि) विविधप्रकाराणि (रूपशः) प्रत्येकरूपे ॥
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