ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - कुरुङ्स्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराड्बृहती
स्वरः - मध्यमः
स्थू॒रं राध॑: श॒ताश्वं॑ कुरु॒ङ्गस्य॒ दिवि॑ष्टिषु । राज्ञ॑स्त्वे॒षस्य॑ सु॒भग॑स्य रा॒तिषु॑ तु॒र्वशे॑ष्वमन्महि ॥
स्वर सहित पद पाठस्थू॒रम् । राधः॑ । श॒तऽअ॑श्वम् । कु॒रु॒ङ्गस्य॑ । दिवि॑ष्टिषु । राज्ञः॑ । त्वे॒षस्य॑ । सु॒ऽभग॑स्य । रा॒तिषु॑ । तु॒र्वशे॑षु । अ॒म॒न्म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्थूरं राध: शताश्वं कुरुङ्गस्य दिविष्टिषु । राज्ञस्त्वेषस्य सुभगस्य रातिषु तुर्वशेष्वमन्महि ॥
स्वर रहित पद पाठस्थूरम् । राधः । शतऽअश्वम् । कुरुङ्गस्य । दिविष्टिषु । राज्ञः । त्वेषस्य । सुऽभगस्य । रातिषु । तुर्वशेषु । अमन्महि ॥ ८.४.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 19
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
विषय - इससे कृतज्ञता दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(कुरुङ्ग१स्य) भक्तानुग्रहकारक (राज्ञः२) राजराजेश्वर यद्वा सर्वत्र विराजमान (त्वेषस्य) प्रकाशमय और (सुभगस्य) सर्वधनोपेत उस परमात्मा के दिए हुए (स्थूरम्) बहुत (शताश्वम्) अनन्त अश्वादि पशुओं से युक्त (राधः) प्रशस्तधन (तुर्वशेषु) मनुष्यों के मध्य (अमन्महि) हम उपासक पाये हुए हैं । (दिविष्टिषु३) जिन मनुष्यों के शुभकर्म दिव्य हैं । तथा (रातिषु४) जो सदा लाभ पहुँचानेवाले हैं, उन मनुष्यों के मध्य मैं भी ईश्वर का कृपापात्र हूँ । हम भी दिव्य कर्म करनेवाले और दान देनेवाले हैं ॥१९ ॥
भावार्थ - परमेश्वर ने जो धन दिया है उसी को बहुत मानता हुआ सदा प्रसन्न रहे, कभी उपालम्भ न करे, क्योंकि अज्ञानी मनुष्य ईश्वरप्रदत्त धन को न जान झखता रहता है । हे मनुष्यो ! तुममें कैसा ज्ञान विद्यमान है, इसको वारंवार विचारो और उसी से सब सिद्ध करो ॥१९ ॥
टिप्पणी -
१−कुरुङ्ग=कुरुम्+ग=व्याकरण के अनुसार समास होने पर भी कुरु शब्द कुरुम् बन जाता है, जैसे−प्रियंवदा, धनञ्जय, वशंवद, कूलंकषा इत्यादि । जो सदा ईश्वर की आज्ञा में रहकर स्व-स्व कार्य्य का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें कुरु कहते हैं । कुरुओं के निकट जो जाय, वह कुरुङ्ग=भक्तों पर अनुग्रह करनेवाला परमात्मा । २−राजा=जो देदीप्यमान शोभायमान विराजमान हो, उसे राजा कहते हैं । “राजृ दीप्तौ” धातु है । परमेश्वर सर्वत्र विराजमान है, अतः वह राजा है इत्यादि । ३−दिविष्टि=दिव्+इष्टि । दिव्=दिव्य । इष्टि=याग । जिनके दिव्य याग हैं, वे दिविष्टि । ४−राति=वेद में एक ही शब्द कहीं विशेष्यरूप से कहीं विशेषणरूप से आया करता है । यहाँ “रा दाने” दानार्थक रा धातु से राति बना है, अतः इसका दाता अर्थ है ॥१९ ॥ * यहाँ से सायण आदि पूर्ववत् इतिहास मानते हैं, परन्तु जैसे पूर्व सूक्तों के अन्त में दो चार ऋचाओं से अध्यात्मवर्णन कहा गया है, वैसे ही यहाँ पर भी कहा जाता है । उपासना करने से क्या-२ लाभ है, ईश्वर ने हम मनुष्यों को क्या-क्या अलभ्य पदार्थ दिये हैं, ईदृग् विषयों का अन्त में निरूपण रहता है, इसलिये यह इतिहास नहीं, किन्तु अध्यात्मवर्णन है ।