ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - कुरुङ्स्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
धी॒भिः सा॒तानि॑ का॒ण्वस्य॑ वा॒जिन॑: प्रि॒यमे॑धैर॒भिद्यु॑भिः । ष॒ष्टिं स॒हस्रानु॒ निर्म॑जामजे॒ निर्यू॒थानि॒ गवा॒मृषि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठधी॒भिः । सा॒तानि॑ । का॒ण्वस्य॑ । वा॒जिनः॑ । प्रि॒यऽमे॑धैः । अ॒भिद्यु॑ऽभिः । ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । अनु॑ । निःऽम॑जाम् । अ॒जे॒ । निः । यू॒थानि॑ । गवा॑म् । ऋषिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धीभिः सातानि काण्वस्य वाजिन: प्रियमेधैरभिद्युभिः । षष्टिं सहस्रानु निर्मजामजे निर्यूथानि गवामृषि: ॥
स्वर रहित पद पाठधीभिः । सातानि । काण्वस्य । वाजिनः । प्रियऽमेधैः । अभिद्युऽभिः । षष्टिम् । सहस्रा । अनु । निःऽमजाम् । अजे । निः । यूथानि । गवाम् । ऋषिः ॥ ८.४.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 20
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
विषय - इस देह में परमात्मा ने क्या दिया है, यह इससे दिखलाया जाता है ।
पदार्थ -
(ऋषिः) मैं उपासक (षष्ठि१म्+सहस्रा) ६०००० साठ सहस्र (निर्मजाम्) अति शुद्ध (गवाम्+यूथानि) इन्द्रियों के समूहों को (अनु) पश्चात् (नि+अजे) पाया हूँ । वे यूथ कैसे हैं (वाजिनः२) विज्ञानवान् (काण्व३स्य) मेरी आत्मा के (अभिद्युभिः) शरीर में चारों तरफ विकाशमान (प्रियमेधैः४) प्राणों से (धी५भिः) कर्मों के कारण (सातानि) प्रदत्त जो इन्द्रियसमूह, उनको मैं पाया हूँ ॥२० ॥
भावार्थ - इस देह में कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय और अन्तःकरण विद्यमान हैं । ये ईश्वरप्रदत्त महादान हैं । इनको ही अच्छे प्रकार जान ऋषि अद्भुत कर्म करते हैं, इनको ही तीक्ष्ण करके मनुष्य ऋषि होते हैं ॥२० ॥
टिप्पणी -
१−षष्ठि सहस्र ६००००=यहाँ पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन, ये छः इन्द्रियें हैं । जिस कारण विज्ञानी और भक्तजन इन इन्द्रियों से बहुत कार्य लेते हैं, अतः उनके लिये वे ही छः इन्द्रिय ६०००० सहस्र के तुल्य हैं, अतः यहाँ षष्ठिसहस्र की चर्चा है । २−वाजी=वज धातु गत्यर्थ है । गति के अर्थ ज्ञान, गमन और प्राप्ति, ये तीनों होते हैं । ३−काण्व=ग्रन्थकर्ता का नाम कण्व, तत्सम्बन्धी काण्व अर्थात् उपासकसम्बन्धी आत्मा । ४−प्रियमेध=प्राण, वायु, मरुत । प्राणों का प्रिय आत्मा और परमात्मा ह, अतः वे प्रियमेध कहाते हैं । ५−धी=वेद में धी शब्द कर्मवाचक आता है, निघण्टु २ । १ ॥२० ॥