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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - कुरुङ्स्य दानस्तुतिः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    धी॒भिः सा॒तानि॑ का॒ण्वस्य॑ वा॒जिन॑: प्रि॒यमे॑धैर॒भिद्यु॑भिः । ष॒ष्टिं स॒हस्रानु॒ निर्म॑जामजे॒ निर्यू॒थानि॒ गवा॒मृषि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धी॒भिः । सा॒तानि॑ । का॒ण्वस्य॑ । वा॒जिनः॑ । प्रि॒यऽमे॑धैः । अ॒भिद्यु॑ऽभिः । ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । अनु॑ । निःऽम॑जाम् । अ॒जे॒ । निः । यू॒थानि॑ । गवा॑म् । ऋषिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धीभिः सातानि काण्वस्य वाजिन: प्रियमेधैरभिद्युभिः । षष्टिं सहस्रानु निर्मजामजे निर्यूथानि गवामृषि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धीभिः । सातानि । काण्वस्य । वाजिनः । प्रियऽमेधैः । अभिद्युऽभिः । षष्टिम् । सहस्रा । अनु । निःऽमजाम् । अजे । निः । यूथानि । गवाम् । ऋषिः ॥ ८.४.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 20
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ तस्य गवादिदानं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (प्रियमेधैः) प्रिययज्ञैः (अभिद्युभिः) अभितो दीप्तिमद्भिः (धीभिः) विद्वद्भिः (सातानि) सेवितानि (काण्वस्य, वाजिनः) मेधाविपुत्रस्य बलवतः (निर्मजां, गवाम्, यूथानि) शुद्धानां गवां यूथानि (षष्टिम्, सहस्रा) षष्टिं सहस्राणि (ऋषिः) ऋषिरहम् (निः) निःशेषेण (अन्वजे) प्राप्तवान् ॥२०॥

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    विषयः

    अस्मिन् देहे परमात्मना किं दत्तमस्तीति प्रदर्श्यते ।

    पदार्थः

    अहमृषिरुपासकः । गवाम्=इन्द्रियाणाम् । यूथानि=बहून् समूहान् । अनु=पश्चात् । नि+अजे=नितरां प्राप्तवानस्मि । अज गतिक्षेपणयोः । कतीत्यपेक्षायाम् । षष्ठिम्=षष्ठिसंख्याकानि । सहस्रा=सहस्राणि । कीदृशां गवाम् । निर्मजाम्=निःशेषेण शुद्धानाम् । कीदृशानि यूथानि । वाजिनः=ज्ञानवतः । काण्वस्य=गमनशीलस्य आत्मनः सम्बन्धिभिः । अभिद्युभिः=अभितः परितः शरीरे विकाशमानैः । प्रियमेधैः=प्राणैः कर्तृभिः । धीभिः=कर्मभिर्हेतुभिः । सातानि=शरीरे संविभक्तानि ॥२० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब कर्मयोगी का दान देना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (प्रियमेधैः) यज्ञप्रिय (अभिद्युभिः) अधिक कान्तिवाले (धीभिः) विद्वानों द्वारा (सातानि) सेवित (काण्वस्य, वाजिनः) मेधाविपुत्र बलवान् कर्मयोगी की (षष्टिं, सहस्रा) आठ सहस्र (निर्मजां, गवां, यूथानि) शुद्ध गायों के यूथों को (ऋषिः) ऋषि ने (निः) निरन्तर (अन्वजे) पाया ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दानशील महात्मा कर्मयोगी का दान कथन किया गया है कि यज्ञप्रिय, सुदर्शन, विद्वानों का सेवन करनेवाला तथा मेधावीपुत्र बलवान् कर्मयोगी ने साठ सहस्र उत्तम गायों के यूथों को ऋषि के लिये सदा को दान दिया ॥२०॥

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    विषय

    इस देह में परमात्मा ने क्या दिया है, यह इससे दिखलाया जाता है ।

    पदार्थ

    (ऋषिः) मैं उपासक (षष्ठि१म्+सहस्रा) ६०००० साठ सहस्र (निर्मजाम्) अति शुद्ध (गवाम्+यूथानि) इन्द्रियों के समूहों को (अनु) पश्चात् (नि+अजे) पाया हूँ । वे यूथ कैसे हैं (वाजिनः२) विज्ञानवान् (काण्व३स्य) मेरी आत्मा के (अभिद्युभिः) शरीर में चारों तरफ विकाशमान (प्रियमेधैः४) प्राणों से (धी५भिः) कर्मों के कारण (सातानि) प्रदत्त जो इन्द्रियसमूह, उनको मैं पाया हूँ ॥२० ॥

    भावार्थ

    इस देह में कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय और अन्तःकरण विद्यमान हैं । ये ईश्वरप्रदत्त महादान हैं । इनको ही अच्छे प्रकार जान ऋषि अद्भुत कर्म करते हैं, इनको ही तीक्ष्ण करके मनुष्य ऋषि होते हैं ॥२० ॥

    टिप्पणी

    १−षष्ठि सहस्र ६००००=यहाँ पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन, ये छः इन्द्रियें हैं । जिस कारण विज्ञानी और भक्तजन इन इन्द्रियों से बहुत कार्य लेते हैं, अतः उनके लिये वे ही छः इन्द्रिय ६०००० सहस्र के तुल्य हैं, अतः यहाँ षष्ठिसहस्र की चर्चा है । २−वाजी=वज धातु गत्यर्थ है । गति के अर्थ ज्ञान, गमन और प्राप्ति, ये तीनों होते हैं । ३−काण्व=ग्रन्थकर्ता का नाम कण्व, तत्सम्बन्धी काण्व अर्थात् उपासकसम्बन्धी आत्मा । ४−प्रियमेध=प्राण, वायु, मरुत । प्राणों का प्रिय आत्मा और परमात्मा ह, अतः वे प्रियमेध कहाते हैं । ५−धी=वेद में धी शब्द कर्मवाचक आता है, निघण्टु २ । १ ॥२० ॥

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    विषय

    राजा प्रजा का गृहस्थवत् व्यवहार । राजा के राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वाजिनः ) ऐश्वर्यवान् ( काण्वस्य ) विद्वान् राजा के (गवां ) वेग से जाने वाले अश्वों के ( पष्टिं सहस्रा ) ६०००० साठ २ हज़ार के ( यूथानि ) समूह ( अभि-द्युभिः ) तेजस्वी ( प्रिय-मेधैः ) यज्ञ के प्रिय, विद्वानों, शत्रुहिंसन के प्रिय ( धीभिः ) बुद्धिमान् पुरुषों द्वारा ( सातानि) अच्छी प्रकार विभक्त हों । उनको ( ऋषिः ) उत्तम द्वष्टा निरीक्षक पुरुष ( अनु निर् अजे ) प्रति दिन पूरी तरह से सञ्चालित करे । ( २ ) इसी प्रकार ( वाजिनः कण्वस्य ) ऐश्वर्य, ज्ञान और बलशाली मेघवान् प्रभु की ( निर्मजाम् गवां षष्टिं सहस्रा यूथानि ) अति शुद्ध गौ, अर्थात् वाणियों के ६० हज़ार के समूह ( अभि-द्युभिः प्रियमेधैः ) सब प्रकार से ज्ञानप्रकाशों से युक्त यज्ञप्रिय विद्वानों द्वारा ( सातानि ) विभक्त किये जावें । और उनको ( ऋषिः ) मन्त्रद्रष्टा ऋषि वा उत्तम शिष्य ( अनु निर् अजे ) अनुकूल रूप से पूर्ण, यथार्थ ज्ञान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    षष्टिं सहस्रा गवां यूथानि

    पदार्थ

    [१] (प्रियमेधैः) = प्रिय है यज्ञ जिनको ऐसे यज्ञशील व्यक्तियों से तथा (अभिद्युभिः) = प्रातः- सायं ज्ञान की ज्योति को प्राप्त करनेवाले [अभि-दोनों ओर] स्वाध्यायशील लोगों से (काण्वस्य) = उस अतिशयेन मेधावी (वाजिनः) = शक्तिशाली प्रभु के गवां यूथानि इन्द्रियों के समूह (धीभिः सातानि) = बुद्धिपूर्वक कर्म करने के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं। वस्तुतः यज्ञशीलता हमारी कर्मेन्द्रियों को पवित्र बनाती है, तो स्वाध्याय हमारी ज्ञानेन्द्रियों को पवित्र करता है। [२] मैं (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा बनकर (निर्मजाम्) = अतिशयेन शुद्ध (गवाम्) = वेदवाणियों के (षष्टिं सहस्रा) = साठ हजार (यूथानि) = समूहों के (अनु) = पीछे (निर् अजे) = विषय-वासनाओं के [गर्त] से इन्द्रियों को बाहिर करता हूँ। इन वेदवाणियों के स्वाध्याय के द्वारा इन्द्रियों को विषय व्यावृत्त बनाता हूँ, वेदवाणियाँ संख्या में बीस हजार के लगभग हैं। वे 'आध्यात्मक, आधिभौतिक व आधिदैविक' अर्थों के भेद से ६० हजार हो जाती हैं। इनके अनुसार जीवन में चलने से इन्द्रियाँ बड़ी शुद्ध बनी रहती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ' काण्व व वाजी' हैं, मेधा व शक्ति के पुञ्ज हैं। इस प्रभु से दी गयी इन्द्रियों को वस्तुतः यज्ञशील स्वाध्याय रुचि पुरुष ही प्राप्त करते हैं, वे ही इन्हें शुद्ध बनाये रखने में समर्थ होते हैं। तत्त्वद्रष्टा पुरुष वेदवाणियों के स्वाध्याय से इन्द्रियों को विषयगर्त में नहीं गिरने देता ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    By virtue of the achievements of the intellectual pursuits of the vibrant man of exceptional intelligence and by the visions and conceptional imagination and reflections of the lovers of united programmes of yajnic research, the sage received sixty thousand streams of pure knowledge of life into his awareness and consolidated memory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दानशील महात्मा कर्मयोग्याच्या दानाचे वर्णन केलेले आहे. यज्ञप्रिय, सुदर्शन, विद्वानाचे सेवन करणारे व मेधावीपुत्र बलवान कर्मयोग्याने साठ हजार उत्तम गाईच्या समुदायाला ऋषीला सदैव दान दिले पाहिजे ॥२०॥

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