ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 3
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - पाद्निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
अग्ने॑ क॒विर्वे॒धा अ॑सि॒ होता॑ पावक॒ यक्ष्य॑: । म॒न्द्रो यजि॑ष्ठो अध्व॒रेष्वीड्यो॒ विप्रे॑भिः शुक्र॒ मन्म॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । क॒विः । वे॒धाः । अ॒सि॒ । होता॑ । पा॒व॒क॒ । यक्ष्यः॑ । म॒न्द्रः । यजि॑ष्ठः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । ईड्यः॑ । विप्रे॑भिः । शु॒क्र॒ । मन्म॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने कविर्वेधा असि होता पावक यक्ष्य: । मन्द्रो यजिष्ठो अध्वरेष्वीड्यो विप्रेभिः शुक्र मन्मभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । कविः । वेधाः । असि । होता । पावक । यक्ष्यः । मन्द्रः । यजिष्ठः । अध्वरेषु । ईड्यः । विप्रेभिः । शुक्र । मन्मऽभिः ॥ ८.६०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
विषय - अब अग्नि का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ -
(अग्ने) हे सर्वाधार सर्वशक्ते महेश ! (कविः) तू ही महा कवि है, (वेधाः) तू ही सर्व कर्मों और जगतों का विधाता है, (होता) तू ही होता है । (पावक) हे पवित्रकारक हे परमपवित्र देव ! तू (मन्द्रः) आनन्दप्रद (यजिष्ठः) अतिशय यजनीय और (अध्वरेषु) सब शुभकर्मों में (विप्रैः) मेधावी विद्वानों द्वारा (मन्मभिः) मननीय स्तोत्रों से (ईड्यः) स्तुत्य पूज्य और प्रशंसनीय है । (शुक्र) हे सर्वदीपक ! तू ही परम पूज्य है ॥३ ॥
भावार्थ - ईश्वर ही सदा पूज्य है, यह इसका अभिप्राय है ॥३ ॥
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