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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अद्रो॑घ॒मा व॑होश॒तो य॑विष्ठ्य दे॒वाँ अ॑जस्र वी॒तये॑ । अ॒भि प्रयां॑सि॒ सुधि॒ता व॑सो गहि॒ मन्द॑स्व धी॒तिभि॑र्हि॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अद्रो॑घम् । आ । व॒ह॒ । उ॒श॒तः । य॒वि॒ष्ठ्य॒ । दे॒वान् । अ॒ज॒स्र॒ । वी॒तये॑ । अ॒भि । प्रयां॑सि । सु॒ऽधि॒ता । आ । व॒सो॒ इति॑ । ग॒हि॒ । मन्द॑स्व । धी॒तिऽभिः॑ । हि॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्रोघमा वहोशतो यविष्ठ्य देवाँ अजस्र वीतये । अभि प्रयांसि सुधिता वसो गहि मन्दस्व धीतिभिर्हितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद्रोघम् । आ । वह । उशतः । यविष्ठ्य । देवान् । अजस्र । वीतये । अभि । प्रयांसि । सुऽधिता । आ । वसो इति । गहि । मन्दस्व । धीतिऽभिः । हितः ॥ ८.६०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (यविष्ठ्य) हे युवतम हे मिश्रणामिश्रणकारी (अजस्र) हे नित्य ! हे शाश्वत ! हे सदा स्थायी एकरसदेव ! (अद्रोघम्+मा) द्रोह, हिंसा, कुटिलता आदि दुर्गुणों से रहित मेरे निकट (वीतये) भोजनार्थ सत्कारग्रहणार्थ (उशतः) साहाय्यों के अभिलाषी (देवान्) सत्पुरुषों को (आवह) भेजिये और तदर्थ (वसो) हे धनदाता हे वासदाता ईश ! (सुधिता) उत्तमोत्तम (प्रयांसि) अन्नों को (अभि+गहि) दीजिये तथा (धीतिभिः) हमारे कर्मों से (हितः) प्रसन्न और हितकारी हो (मन्दस्व) हमको आनन्दित करें ॥४ ॥

    भावार्थ - कभी किसी की द्रोह चिन्ता न करे और सदा सत्पुरुषों को अपने गृह पर बुलाकर सत्कार करे और प्रयत्नपूर्वक अन्नोपार्जन कर दरिद्रोपकार किया करे ॥४ ॥

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