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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वं तम॑ग्ने अमृत॒त्व उ॑त्त॒मे मर्तं॑ दधासि॒ श्रव॑से दि॒वेदि॑वे। यस्ता॑तृषा॒ण उ॒भया॑य॒ जन्म॑ने॒ मयः॑ कृ॒णोषि॒ प्रय॒ आ च॑ सू॒रये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तम् । अ॒ग्ने॒ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वे । उ॒त्ऽत॒मे । मर्त॑म् । द॒धा॒सि॒ । श्रव॑से । दि॒वेऽदि॑वे । यः । त॒तृ॒षा॒णः । उ॒भया॑य । जन्म॑ने । मयः॑ । कृ॒णोषि॑ । प्रयः॑ । आ । च॒ । सू॒रये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे। यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। तम्। अग्ने। अमृतऽत्वे। उत्ऽतमे। मर्तम्। दधासि। श्रवसे। दिवेऽदिवे। यः। ततृषाणः। उभयाय। जन्मने। मयः। कृणोषि। प्रयः। आ। च। सूरये ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरो जीवेभ्यः किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर! त्वं यः सूरिर्मेधावी दिवेदिवे श्रवसे सन्मोक्षमिच्छति तं मर्त्तं मनुष्यमुत्तमेऽमृतत्वे मोक्षपदे दधासि, यश्च सूरिर्मेधावी मोक्षसुखमनुभूय पुनरुभयाय जन्मने तातृषाणः सँस्तस्मात् पदान्निवर्त्तते तस्मै सूरये मयः प्रयश्चाकृणोषि ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) पूर्वोक्तं धर्मात्मानम् (अग्ने) मोक्षादिसुखप्रदेश्वर ! (अमृतत्वे) अमृतस्य मोक्षस्य भावे (उत्तमे) सर्वथोत्कृष्टे (मर्त्तम्) मनुष्यम्। मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (दधासि) धरसि (श्रवसे) श्रोतुमर्हाय भवते (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (यः) मनुष्यः (तातृषाणः) पुनः पुनर्जन्मनि तृष्यति। अत्र छन्दसि लिट् इति लडर्थे लिट्, लिटः कानज्वा इति कानच् वर्णव्यत्ययेन दीर्घत्वं च। (उभयाय) पूर्वपराय (जन्मने) शरीरधारणेन प्रसिद्धाय (मयः) सुखम्। मय इति सुखनामसु पठितम् । (निघं०३.६) (कृणोषि) करोषि (प्रयः) प्रीयते काम्यते यत् तत्सुखम् (आ) समन्तात् (च) समुच्चये (सूरये) मेधाविने। सूरिरिति मेधाविनामसु पठितम् । (निघं०३.१५) ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    ये ज्ञानिनो धर्मात्मानो मनुष्या मोक्षपदं प्राप्नुवन्ति तदानीं तेषामाधार ईश्वर एवास्ति। यज्जन्मातीतं तत्प्रथमं यच्चागामि तद्द्वितीयं यद्वर्तते तत्तृतीयं यच्च विद्याचार्य्याभ्यां जायते तच्चतुर्थम्। एतच्चतुष्टयं मिलित्वैकं जन्म यत्र मुक्तिं प्राप्य मुक्ताः पुनर्जायन्ते तद्द्वितीयजन्मैतदुभयस्य धारणाय सर्वे जीवाः प्रवर्त्तन्त इतीयं व्यवस्थेश्वराधीनास्तीति वेद्यम् ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर वह ईश्वर जीवों के लिये क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (यः) जो (सूरिः) बुद्धिमान् मनुष्य (दिवेदिवे) प्रतिदिन (श्रवसे) सुनने के योग्य अपने लिये मोक्ष को चाहता है, उस (मर्त्तम्) मनुष्य को (उत्तमे) अत्युत्तम (अमृतत्वे) मोक्षपद में स्थापन करते हो और जो बुद्धिमान् अत्यन्त सुख भोग कर फिर (उभयाय) पूर्व और पर (जन्मने) जन्म के लिये चाहना करता हुआ उस मोक्षपद से निवृत्त होता है, उस (सूरये) बुद्धिमान् सज्जन के लिये (मयः) सुख और (प्रयः) प्रसन्नता को (आ कृणोषि) सिद्ध करते हो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्षपद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है, जो जन्म हो गया वह पहिला और जो मृत्यु वा मोक्ष होके होगा वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है वह चौथा जन्म है। ये चार जन्म मिल के जो मोक्ष के पश्चात् होता है वह दूसरा जन्म है। इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं। मोक्षपद से छूट कर संसार की प्राप्ति होती है, यह भी व्यवस्था ईश्वर के आधीन है ॥ ७ ॥

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    विषय

    फिर वह ईश्वर जीवों के लिये क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने जगदीश्वर! त्वं यः सूरिः दिवेदिवे श्रवसे सत् मोक्षम् इच्छति तं मर्त्तं मनुष्यम् उत्तमे अमृतत्वे मोक्षपदे दधासि, यः च सूरिः मेधावी मोक्षसुखम् अनुभूय पुनः उभयाय जन्मने तातृषाणः सन् तस्मात् पदात् निवर्त्तते तस्मै सूरये मयः प्रयः कृणोषि ॥७॥

    पदार्थ

    हे  (अग्ने) मोक्षादिसुखप्रदेश्वर=मोक्षादि सुख प्रदान करने वाले   (त्वम्) जगदीश्वरः=परमेश्वर! (यः) =जो (सूरिः) मेधावी=बुद्धिमान् मनुष्य, (दिवेदिवे) प्रतिदिनम्=प्रत्येक दिन, (श्रवसे) श्रोतुमर्हाय भवते=अपने सुनने के योग्य (मोक्षम्) =मोक्ष को, (इच्छति)=चाहते  (सत्)=हुए   (तम्) पूर्वोक्तं धर्मात्मानम्=उस पहले कहे गए धर्मात्मा (मर्त्तम्) मनुष्यम्= मनुष्य को,  (उत्तमे) सर्वथोत्कृष्टे=हर प्रकार से उत्कृष्ट में, (अमृतत्वे) मोक्षपदे=अमरता में, (दधासि) धरसि=स्थापित करते हो, (च) समुच्चये=और (यः) मनुष्यः=जो मनुष्य (सूरिः) मेधावी=बुद्धिमान्, (मोक्षसुखम्)=मोक्ष सुख को, (अनुभूय)= अनुभव करके, (पुनः)=फिर, (उभयाय) पूर्वपराय=पूर्व और आगामी जन्म के लिये, (जन्मने) शरीरधारणेन प्रसिद्धाय= शरीर धारण से शरीर धारण करने से प्रसिद्ध और (तातृषाणः) पुनः पुनर्जन्मनि तृष्यति=फिर-फिर जन्म लेने की चाहना करता, (सन्)=हुआ, (तस्मात्)=उस, (पदात्)=मोक्षपद से, (निवर्त्तते)=निवृत्त होता है। (तस्मै)=उस, (सूरये) मेधाविने=बुद्धिमान् के लिये, (मयः) सुखम्=सुख को, (प्रयः) प्रीयते काम्यते यत् तत्सुखम्=जिस सुख की कामना करता है, (कृणोषि)=उसे सिद्ध करते हो ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्षपद को प्राप्त होते हैं, उनका जन्म उस समय ईश्वर पर ही आधारित होता  है। जो जन्म अतीत हो गया है, वह पहला है, जो आगामी जन्म है, वह जो दूसरा जन्म है।  जो तीसरा जन्म है, वह विद्या के आचार्य के लिए होता है और वही चौथा जन्म है। ये चारों जन्म मिलकर एक जन्म जहाँ मुक्ति को प्राप्त करके मुक्त आत्मा फिर जन्म लेते हैं, वह दूसरा जन्म, इन दोनों जन्मों को धारण करने के लिए समस्त जीवों की प्रवृत्ति होती है,  यह व्यवस्था ईश्वर के आधीन है॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (अग्ने) मोक्षादि सुख प्रदान करने वाले   (त्वम्) परमेश्वर! (यः) जो (सूरिः) बुद्धिमान् मनुष्य (दिवेदिवे) प्रत्येक दिन (श्रवसे) अपने सुनने के योग्य (मोक्षम्) मोक्ष को (इच्छति+ सत्) चाहते हुए   (तम्) उस पहले कहे गए धर्मात्मा (मर्त्तम्) मनुष्य को  (उत्तमे) हर प्रकार से उत्कृष्ट (अमृतत्वे) अमरता में (दधासि) स्थापित करते हो। (च) और (यः) जो (सूरिः) बुद्धिमान् (मोक्षसुखम्) मोक्ष सुख को (अनुभूय) अनुभव करके (पुनः) फिर (उभयाय) पूर्व और आगामी जन्म के लिये (जन्मने) शरीर धारण करने से प्रसिद्ध और (तातृषाणः+ सन्) फिर-फिर जन्म लेने की चाहना करता हुआ, (तस्मात्) उस (पदात्) मोक्षपद से (निवर्त्तते) निवृत्त होता है। (तस्मै) उस (सूरये) बुद्धिमान् के लिये [उस] (मयः) सुख को (प्रयः) जिस सुख की कामना करता है (कृणोषि) आप सिद्ध करते हो ॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) पूर्वोक्तं धर्मात्मानम् (अग्ने) मोक्षादिसुखप्रदेश्वर ! (अमृतत्वे) अमृतस्य मोक्षस्य भावे (उत्तमे) सर्वथोत्कृष्टे (मर्त्तम्) मनुष्यम्। मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (दधासि) धरसि (श्रवसे) श्रोतुमर्हाय भवते (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (यः) मनुष्यः (तातृषाणः) पुनः पुनर्जन्मनि तृष्यति। अत्र छन्दसि लिट् इति लडर्थे लिट्, लिटः कानज्वा इति कानच् वर्णव्यत्ययेन दीर्घत्वं च। (उभयाय) पूर्वपराय (जन्मने) शरीरधारणेन प्रसिद्धाय (मयः) सुखम्। मय इति सुखनामसु पठितम् । (निघं०३.६) (कृणोषि) करोषि (प्रयः) प्रीयते काम्यते यत् तत्सुखम् (आ) समन्तात् (च) समुच्चये (सूरये) मेधाविने। सूरिरिति मेधाविनामसु पठितम् । (निघं०३.१५) ॥७॥
    विषयः- पुनरीश्वरो जीवेभ्यः किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः- हे अग्ने जगदीश्वर! त्वं यः सूरिर्मेधावी दिवेदिवे श्रवसे सन्मोक्षमिच्छति तं मर्त्तं मनुष्यमुत्तमेऽमृतत्वे मोक्षपदे दधासि, यश्च सूरिर्मेधावी मोक्षसुखमनुभूय पुनरुभयाय जन्मने तातृषाणः सँस्तस्मात् पदान्निवर्त्तते तस्मै सूरये मयः प्रयश्चाकृणोषि ॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये ज्ञानिनो धर्मात्मानो मनुष्या मोक्षपदं प्राप्नुवन्ति तदानीं तेषामाधार ईश्वर एवास्ति। यज्जन्मातीतं तत्प्रथमं यच्चागामि तद्द्वितीयं यद्वर्तते तत्तृतीयं यच्च विद्याचार्य्याभ्यां जायते तच्चतुर्थम्। एतच्चतुष्टयं मिलित्वैकं जन्म यत्र मुक्तिं प्राप्य मुक्ताः पुनर्जायन्ते तद्द्वितीयजन्मैतदुभयस्य धारणाय सर्वे जीवाः प्रवर्त्तन्त इतीयं व्यवस्थेश्वराधीनास्तीति वेद्यम् ॥७॥

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    विषय

    मनुष्य व अन्य प्राणियों के हित की कामना

    पदार्थ

    २. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! (त्वम्) - आप (तम् मर्तम्) - उस मनुष्य को (उत्तमे अमृतत्वे) - उत्कृष्ट मरणरहित स्थिति में , अर्थात् पूर्ण नीरोग जीवन में तथा (दिवेदिवे) - दिन - प्रतिदिन श्रवसे यश व ज्ञान के लिए (दधासि) - धारण करते हो , (यः) - जो कि (उभयाय जन्मने) - [द्विपदां चतुष्पदाम् च लाभाय - सा०] मनुष्य व पशु - सभी प्राणियों के हित के लिए (तातृषाणः) - अत्यन्त तृष्णावाला होता है , अर्थात् जो प्राणिमात्र के हित की भावना से चलता है , प्रभु उसे नीरोगता , यश व ज्ञान प्राप्त कराते हैं । 

    २. (च) - और हे प्रभो ! आप (सूरये) - ज्ञानी पुरुष के लिए (मयः) - कल्याण (करोषि) - करते हैं । (प्रयः च) - [food , pleasure , delight] और अन्नादि के आनन्द को (आकृणोषि) - सर्वथा सिद्ध करते हैं । कठोपनिषद् 'श्रेय व प्रेय' दोनों को ही यह ज्ञानी प्रभुकृपा से प्राप्त करता है । कणाद के शब्दों में निःश्रेयस व अभ्युदय दोनों को साधता है - सम्पत्ति व समृद्धि से संशोभायमान होता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणिमात्र का हित चाहते हुए हम नीरोग , यशस्वी व ज्ञानी बनें । ज्ञानी बनकर [अध्यात्म] सम्पत्ति व [बाह्य] समृद्धिको साधें । 

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    Bhajan

     आज का वैदिक भजन 🙏 1106

    ओ३म् त्वं तम॑ग्ने अमृत॒त्व उ॑त्त॒मे मर्तं॑ दधासि॒ श्रव॑से दि॒वेदि॑वे ।

    यस्ता॑तृषा॒ण उ॒भया॑य॒ जन्म॑ने॒ मय॑: कृ॒णोषि॒ प्रय॒ आ च॑ सू॒रये॑ ॥

    ऋग्वेद 1/31/7

     

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा, 

    परलोक का भी सुख, पड़ता है हेरना, 

    स्वाध्याय में लगे यह मन, 

    और करें मधुर मनन, 

    सुखानन्द को खेवना

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    अधिनियम सुख-दु:ख का, 

    प्रतिफल है कर्म का, 

    विरला ही मर्म जाने, 

    आत्मा के धर्म का, 

    ज्ञानी भेद को खोलें, 

    जो मानें, सो बोले, 

    प्रभु उसे करता है प्रतिपन्न

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    आत्मा की नित्यता, 

    और उसके हैं जन्म अनेक, 

    जिसको यह भान होता, 

    बनता वो  सुचेत 

    पाप कर्म को वो छोड़े 

    पुण्य से नाता जोड़े, 

    पुरुषार्थी बनता अति अनुपम 

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    आत्मा के चिन्तन में, 

    स्वाध्याय भक्त करे नित,

    बनता है भक्त सूरि, 

    होता ईश पे आकर्षित, 

    आनन्द सुख में डोले, 

    परमेश्वर का हो ले, 

    यही मोक्ष-प्राप्ति का साधन, 

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    करना लोक-उपेक्षा, 

    परलोक जाए सुधर, 

    स्वार्थ-लोभ तज के, 

    पापाचरण ना  कर, 

    उन्नतियाँ दोनों ले ले,

    कृपा के भरे ले झोले 

    नित कर  लें प्रभु का आवाहन, 

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा, 

    परलोक का भी सुख पड़ता है हेरना, 

    स्वाध्याय में लगे यह मन, 

    और करें मधुर मनन, 

    सुखानन्द को खेवना

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई

    रचना दिनाँक :-  १८.२.२००८   १७.१० सायं 

     

    राग :- झिंझोटी

    राग का गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल अद्धा

     

    शीर्षक :- प्रभु कृपा का भागी भजन ६७९वां

    *तर्ज :- *

    714-0115  

     

    अधिनियम = सच्चे नियम

    मनन = विचारशील बात का पालन करना

    सूरि = विद्वान 

    प्रतिपन्न = परिपूर्ण

    सुचेत = अच्छी तरह सावधान

    अनुपम = सर्वोत्तम,बेजोड़

    उपेक्षा = तिरस्कार

     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

     

    प्रभु कृपा का भागी

     

    मनुष्य और पशु में विवेक शक्ति के कारण भेद है। सभी प्राणियों में सबसे उत्तम मनुष्य है। जहां तक खानपान निद्रा मैथुन प्रवृत्तियों का सवाल है वहां तक मनुष्य और दूसरे प्राणियों में समानता है ।मनुष्य चारों और दृष्टि डालता है। वह देखता है कि कोई दु:खी है तो कोई सुखी है, कोई धनी है कोई दरिद्र है, कोई सर्वांग सुन्दर है, किसी के अंग ही पूरे नहीं, वरन् वह कुरूप  है । इस विषमता से वह चिंता में पड़ जाता है। श्रवण मनन और चिंतन से उसे निश्चय होता है कि वह शरीर मात्र नहीं, मृत्यु उसे शरीर से अतिरिक्त एक चेतन आत्मा का बोध कराती है। उसे प्रतीत होता है कि प्राणियों की यह विषमता इसके अपने कर्मों के कारण है। इस तत्व का निश्चय होते ही उसे यह भी ज्ञान होने लगता है कि शरीर अवश्य अनित्य है ; बाल यौवन और बुढ़ापा ही इसे नाशवान होने के अकाट्य प्रमाण हैं। शरीर के नाश होने पर भी कोई ऐसा पदार्थ शेष रह जाता है जो इसे शरीर से प्रथक है। अन्यथा कृतहान और अकृताभ्यागम दोष आएंगे। 

    मरने से पूर्व जो भले बुरे कर्म किए उनका फल मिला नहीं और यह प्राणी चल बसा। किये कर्म का फ़ल ना मिलना कृतहान कहलाता है। कोई सुखी उत्पन्न हुआ है कोई दुखी। आत्मा कोई है नहीं, जिसने पूर्व कोई कर्म किए हो तो यह सुख दु:ख भेद अवस्था कैसे संभव है?

    किसी कर्म के बिना सुख दु:ख मिलना अकृताभ्यागम कहता है। इन दोनों को स्वीकार कर लिया जाए तो संसार की कार्य कारण अवस्था ही टूट जाए अतः विवश होकर मानना पड़ता है कि शरीर के अतिरिक्त कोई आत्मा है और वह नित्य है अर्थात् शरीर के मिलने से पूर्व भी वह था। पूर्व के किए कर्मों का फल उसे वर्तमान शरीर मिला है।इस शरीर में किए कर्मों का फल भोग ने के लिए उसे इस शरीर के बाद दूसरा शरीर मिलेगा क्योंकि वह इस शरीर के पीछे भी बना रहता है। आत्मा के इस तत्व का बहुत थोड़ों को ही याद होता है।

    आत्मा की नित्यता और उसके कारण होने वाले आत्मा के अनेक जन्मों के सिद्धांत को कोई विरला भाग्यवान ही जान पाता है। जिसको यह तक तो ज्ञात होता है वह व्याकुल हो उठता है। उसे अपनी वर्तमान दशा तथा भावी दशा से असन्तोष और क्षोभ आ घेरते हैं। 

    वह अपना वर्तमान और भविष्य सुधारना चाहता है और इसके लिए निरन्तर पुरुषार्थ करता है। ऐसे मनुष्य के संबंध में कहा गया है, मानो व्याकुल हुआ भगवान से कहता है : अपां मध्ये तस्थिवांसम तृष्णा...... सदा जल के बीच में रहने वाले तेरे भक्त को प्यास ने आ घेरा है। दु:ख से बचाने वाले कृपा कर, दया कर!

    संसार में भगवान व्यापक है, इसके अंदर भी है, बाहर भी है,अर्थात संसार भगवान में रह रहा है अतः भक्त का यह समझना ठीक है कि वह भगवान में रह रहा है। आनन्दकन्द सच्चिदानन्द में रहने वाले को आनन्द की इच्छा का उत्पन्न होना ऐसा है, जैसा जन्म रहने वाले को जल की इच्छा सताए। जिस मनुष्य में ऐसी तड़प पैदा हो जाए उसे मन्त्र कहता है--सबकी उन्नति करने वाला प्रभु उस मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ मोक्ष प्राप्ति के निमित्त प्रतिदिन आज मैं चिन्तन में लगा देता है। दिन रात स्वाध्याय  करने से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है। वह 'सूरि' अर्थात् ज्ञानी बन जाता है। 

    इस मन्त्र में संकेत किया गया है कि जो केवल वर्तमान जन्म सुधार में लगा है ऐसा मनुष्य परलोक से भी विमुख होकर स्वार्थ परायण होकर पापाचरण में भी लग सकता है और इस प्रकार अपना अनिष्ट कर सकता है। और जो केवल परलोक साधन में ही लगा है वर्तमान की उपेक्षा करता है, संभव है वर्तमान की उपेक्षा करने से वह अपने करणों, उपकरणों--देह, इन्द्रियों आदि की ही हानि कर बैठे, और इस प्रकार परलोक साधन से भी वंचित रह जाए।

    जो दोनों उन्नतियों के लिए व्याकुल होकर उनकी प्राप्ति के लिए जी जान से यत्न करता है , वह प्रभु -कृपा का भागी हो सकता है।

     

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    विषय

    मोक्षप्रद, सर्वोत्पादक । पक्षान्तर में—राजा और विद्वान् आचार्य के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में—देह में स्थित प्रजोत्पादक वीर्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्! परमेश्वर! (यः) जो पुरुष (उभयाय) दोनों (जन्मने) जन्मों में सुख प्राप्त करने और उनको उत्तम बनाने के लिए (तातृषाणः) तेरे आनन्द प्राप्त करने के लिए पियास अनुभव करता है, जो तेरे लिए तरसता है उस (सूरये) विद्वान् के हित के लिए तू (मयः) परम सुख और (प्रयः) अन्न, ऐहिक सुख, श्रेय और प्रेय दोनों ही (आकृणोषि) प्रदान करता है। और (त्वम्) तू (तम् मर्त्तम्) उस मनुष्य को (दिवे दिवे) प्रतिदिन (अमृतत्वे) मोक्ष के निमित्त (श्रवसे) ज्ञान प्राप्त करने के लिए (दधासि) नियुक्त करता, एवं पालन पोषण करता है। तुलना करो गीता० अ० ६। श्लो० ४०-४५।

    टिप्पणी

    'उभय जन्म'-अतीत, आगामी, वर्त्तमान ये तीन जन्म और आचार्य प्रदत्त द्विजन्मता ये चारों मिलकर एक जन्म है और मुक्त होने के पश्चात् पुनः जन्म लेना द्वितीय जन्म है ऐसा महर्षि का आशय है। राजापक्ष में—(उभयाय जन्मने) द्विपाद्, चतुष्पाद दोनों प्रकार के जन्तुओं के हितार्थ जो तरसता है राजा उसको सुखसामग्री और अन्न को प्रबन्ध करे । उसके दिनों दिन ज्ञान और ख्याति लाभ के लिए उत्तम चिरस्थायी पद पर स्थापित करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी ज्ञानी धर्मात्मा माणसे मोक्षपद प्राप्त करतात त्यांना त्या वेळी ईश्वराचाच आधार असतो. जो जन्म झाला तो पहिला, जो मृत्यू व मोक्ष असेल तो दुसरा व जो वर्तमान आहे तो तिसरा आणि जो विद्या किंवा आचार्याद्वारे होतो तो चौथा जन्म होय. हे चार जन्म मिळून एक व जो मोक्षानंतर होतो तो दुसरा जन्म होय. हे दोन्ही जन्म धारण करण्यासाठी सर्व जीव प्रवृत्त होतात. मोक्षपदातून सुटून पुन्हा संसाराची प्राप्ती होते ही अवस्था ईश्वराच्या अधीन असते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, into the best state of moksha you place that intelligent person who is keen to hear the divine voice day in and day out and longs for freedom. And then for the man of wisdom who loves both the previous state and the next human birth, you do good and create the best of desired happiness and comfort in life.

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    Subject of the mantra

    Then, what does that God do for living beings? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne) bestower of salvation etc., (tvam)=God, (yaḥ)=that, (sūriḥ)= wise person, (divedive)=every day, (śravase)=worthy of own hearing, (mokṣam)=salvation, (icchati+sat)=desiring, (tam) that previously said God said earlier, (marttam)=to human being, (uttame)=excellent in every way, (amṛtatve)=in salvation, (dadhāsi)=emplace, (ca)=and, (yaḥ)=that, (sūriḥ)= wise, (mokṣasukham)=to bliss, (anubhūya)=experiencing, (punaḥ)=then, (ubhayāya)=for past and future births (janmane)=Known for imbibing a body, [aura]=and, (tātṛṣāṇaḥ+san) wishing to be born again and again, (tasmāt)=from that, (padāt)=salvation, (nivarttate)=retires. (tasmai)=for that, (sūraye)=for the wise, [usa]=that, (mayaḥ)=to delight, (prayaḥ) the happiness one desires, (kṛṇoṣi)= you accomplish.

    English Translation (K.K.V.)

    O God who bestows salvation and happiness! The wise man, every day wishing for his worthy salvation to be heard, establish that previously said virtuous man in perfect immortality in every way. And the wise who, after experiencing the pleasure of salvation becomes famous by imbibing a body for the previous and next birth, and wants to be born again and again, retires from that salvation. For that wise person, you accomplish that happiness which one desires.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The knowledgeable virtuous human beings who attain salvation, their birth is based on God at that time. The birth that is past is the first, that which is the next birth, that which is the second birth. That which is the third birth is for the master of learning and that is also the fourth birth. Together these four births are one birth where liberated souls are born again after attaining liberation, that second birth, there is a tendency of all living beings to hold these two births, this system is under the control of God.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does God do for the souls is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, Giver of emancipation and other kinds of happiness, Thou sustainest every day the wise mortal who worships Thee that art ever to be heard about, in the best state of immortality or deliverance. To the wise person who has enjoyed for a long time the bliss of emancipation and longs for a birth in the human form, Thou bestowest happiness (both spiritual and material).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( श्रवसे ) श्रीतुमर्हाय भवते = To Thee (God) who art worthy of being heard about.( तातृषाण: ) पुनः पुनः जन्मनि तृष्यति । अत्नछन्दसि लिट् इति लडर्थे लिट् लिट: कानज् वा इति कानच् वर्णव्यत्ययेन दीर्घत्वं च = Longing for, thirsting. ( मयः ) सुखम् भय इति सुखनामसु पठितम् ( निघ० ३.६) = Happiness, particularly spiritual.( प्रय:) प्रीयते काम्यते यत् तत् सुखम् = Material happiness got from food and water etc. (प्रयः) इति अन्न नाम (निघ० २.७ ) = Food. प्रयः इति उदक नाम ( निघ० १.१२ ) = Water. ( सूरये ) मेधाविने । सूरिति मेधाविनामसु पठितम् । ( निघ० ३.१६) - A wise man.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    For the enlightened righteous persons who attain emancipation, God is the only Support. The birth that is past, the further, the present and got from the association of the knowledge and the Acharya (preceptor) that is the fourth. All these four constitute one birth. By second birth in this context is meant the birth in human form that is got after enjoying the bliss of emancipation for a very long period. All souls endeavor for the birth of these two kinds. This order is maintained by God alone.

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