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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    आ॒त्म॒न्वन्नभो॑ दुह्यते घृ॒तं पय॑ ऋ॒तस्य॒ नाभि॑र॒मृतं॒ वि जा॑यते । स॒मी॒ची॒नाः सु॒दान॑वः प्रीणन्ति॒ तं नरो॑ हि॒तमव॑ मेहन्ति॒ पेर॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒त्म॒न्ऽवत् । नभः॑ । दु॒ह्य॒ते॒ । घृ॒तम् । पयः॑ । ऋ॒तस्य॑ । नाभिः॑ । अ॒मृत॑म् । वि । जा॒य॒ते॒ । स॒मी॒ची॒नाः । सु॒ऽदान॑वः । प्री॒ण॒न्ति॒ । तम् । नरः॑ । हि॒तम् । अव॑ । मे॒ह॒न्ति॒ । पेर॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आत्मन्वन्नभो दुह्यते घृतं पय ऋतस्य नाभिरमृतं वि जायते । समीचीनाः सुदानवः प्रीणन्ति तं नरो हितमव मेहन्ति पेरवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत्मन्ऽवत् । नभः । दुह्यते । घृतम् । पयः । ऋतस्य । नाभिः । अमृतम् । वि । जायते । समीचीनाः । सुऽदानवः । प्रीणन्ति । तम् । नरः । हितम् । अव । मेहन्ति । पेरवः ॥ ९.७४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 4

    Bhajan -

     आज का वैदिक भजन 🙏 1152
    ओ३म् आ॒त्म॒न्वन्नभो॑ दुह्यते घृ॒तं पय॑ ऋ॒तस्य॒ नाभि॑र॒मृतं॒ वि जा॑यते ।
    स॒मी॒ची॒नाः सु॒दान॑वः प्रीणन्ति॒ तं नरो॑ हि॒तमव॑ मेहन्ति॒ पेर॑वः ॥
    ऋग्वेद 9/74/4

    एक ओ३म् नाम ही जप सदा
    निशदिन पाए सम्प्रसाद आत्मा
    रही जीवों पर प्रभु की कृपा
    ना उससे कोई कभी जुदा
    एक ओ३म् नाम ही जप सदा

    विस्तृत हृदायाकाश में बैठा
    पा रहा है ज्योतिर्मयी प्रभा
    प्रभु का मन्दिर इसमें सजा 
    शोभा प्रभु कि वह पा रहा
    एक ओ३म् नाम ही जप सदा

    ब्रह्मरूप महापुरुष मोहन का
    आत्मा करे ब्रह्मामृत दोहन
    मनोमय पुरुष है यह आत्मा
    करे साक्षात्कार की कामना
    एक ओ३म् नाम ही जप सदा

    ऋत-सत्य ज्ञान से बन तपी
    तब ही तो पाएगा मुक्ति
    सत्य-ज्ञान-कर्म है समृद्धि
    पाएगा ज्योतिर्मय प्रभा
    एक ओ३म् नाम ही जप सदा

    सत्पुरुष बन उत्तम ज्ञानी
    कर दे प्रसन्न हर एक प्राणी
    सद्ज्ञानामृत की कर वृष्टि
    परहित ही चिन्तन हो तेरा
    एक ओ३म् नाम ही जप सदा
    निशदिन पाए सम्प्रसाद आत्मा
    रही जीवों पर प्रभु की कृपा
    ना उससे कोई कभी जुदा
    एक ओ३म् नाम ही जप सदा

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--  ९.९.२०२१   १८.४५सायं

    राग :- देस
    गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल रूपक सात मात्रा

    शीर्षक :- आत्मयुक्त आकाश के दोहन से अमृत पैदा होता है 🎧 भजन 729वां 👏🏽

    *तर्ज :- *
    00139-739

    सम्प्रसाद =कृपा, अनुग्रह
    विस्तृत = विशाल
    प्रभा = कान्ति चमक
    दोहन = दोहना, प्राप्त करना
    साक्षात्कार = वास्तविक-सामनेलाना,दर्शन
    ऋत = सृष्टि के सनातन नियम
    समृद्धि = उन्नति
     

    Vyakhya -

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    आत्मयुक्त आकाश के दोहन से अमृत पैदा होता है

    यह जो हृदय में आकाश है उसमें यह मनोमय पुरुष याने आत्मा,जो अमृत तथा ज्योतिर्मय है। हृदय के भीतर का आकाश आत्मा का निवास स्थान है, और वहीं है परमात्मा की उपलब्धि का मंदिर। (छांदोग्य उपनिषद ८.१.१ )में, हृदय आकाश के भीतर रहने वालों की खोज का आदेश दिया है, और कहा है कि वह आकाश इतना महान है कि इसमें समस्त संसार समाया है, और कि यह शरीर नाश के साथ नष्ट नहीं होता। या आत्मा अजर, अमर, शोक रहित, क्षुधा रहित, प्यास रहित, सत्य संकल्प वाला है। हृदय के भीतरीय आकाश में रहने वाले इस आत्मा -परमात्मा का निरूपण करके आत्मज्ञान का महात्म्य वर्णन किया है। 
    प्रतिदिन प्रतीत होते हुए इस अन्तरात्मा के प्रत्यक्ष ना होने का हेतु बताकर कहा कि यह जो सम्प्रसाद=जीवात्मा इस शरीर से निकलकर परम ज्योति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप में निष्पन्न होता है, यही आत्मा है, यही अमृत है, यही अभय है यही ब्रह्म है।
    इसी बात को मन्त्र में थोड़े से शब्दों में कहा है कि आत्मवन्नभो..…... =आत्म युक्त आकाश से[ हृदयाकाश से] प्रकाश आयुक्त अमृत दोहा जाता है। वह अमृत रस का मूल है। कहा है कि ऋतं च सत्यम् चाभीध्दात......ऋग्वेद १०.१९०.१=ऋत और सत्य उसके प्रदीप्त उज्जवल तप से उत्पन्न हुए ‌। इस अमृत से हर कोई तृप्त नहीं हो पाता, अच्छे चाल चलनवाले तथा उत्तम दानी उसे प्रसन्न कर पाते हैं क्योंकि ज्ञानीनर हित की वृष्टि बरसाते हैं। जिन्हें इस आत्म -तत्व का बोध नहीं है, ज्ञानी जन उन पर ज्ञानामृत की वृष्टि करते हैं। मन्त्र में साधक की उस अवस्था का वर्णन है जब ब्रह्म अमृत रस पान करने लग जाता है।

    🕉🧘‍♂️ईश भक्ति भजन
    भगवान् ग्रुप द्वारा🌹🙏
    🕉वैदिक श्रोताओ को हार्दिक शुभकामनाएं❗🌹
     

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