ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ता हि श्रेष्ठ॑वर्चसा॒ राजा॑ना दीर्घ॒श्रुत्त॑मा। ता सत्प॑ती ऋता॒वृध॑ ऋ॒तावा॑ना॒ जने॑जने ॥२॥
स्वर सहित पद पाठता । हि । श्रेष्ठ॑ऽवर्चसा । राजा॑ना । दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मा । ता । सत्प॑ती॒ इति॒ सत्ऽप॑ती । ऋ॒त॒ऽवृधा॑ । ऋ॒तऽवा॑ना । जने॑ऽजने ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता हि श्रेष्ठवर्चसा राजाना दीर्घश्रुत्तमा। ता सत्पती ऋतावृध ऋतावाना जनेजने ॥२॥
स्वर रहित पद पाठता। हि। श्रेष्ठऽवर्चसा। राजाना। दीर्घश्रुत्ऽतमा। ता। सत्पती इति सत्ऽपती। ऋतऽवृधा। ऋतऽवाना। जनेऽजने ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 65; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द] - The inter-relation between the twin teacher-pupil and preacher audience is further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द] - O men! let us always honour those men whose studies are very ideal and deep, who learn all sciences or are of glorious fame for a long time, who shine on account of their virtues, are "protectors of the good people, are truthful and increasers (promoters. Ed.) of Truth among all men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द] -
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Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द] - Let those persons be the preachers and teachers who hear (grasp. Ed.), and are great scholars, having füll faith in true Dharma and are lovers of knowledge and its propagation,
Foot Notes - (श्रेष्ठवर्चसा ) श्रेष्ठ वर्चोऽध्ययनं ययोस्तौ । वचं -दीष्तौ। अत्र दीप्ति: ज्ञानप्रकाशः । = Whose study is good and deep. (ऋतावृधा) ऋतं सत्यं विद्यते ययोस्तौ । ऋतमिति सत्यनाम (NG 3, 1) = Increasers of truth.
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