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अथर्ववेद > काण्ड 10 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
    सूक्त - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त

    दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तु: । भा॒ग: । स्थ॒ । अ॒पाम् । शु॒क्रम् । आ॒प॒: । दे॒वी॒: । वर्च॑: । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । प्र॒जाऽप॑ते । व॒: । धाम्ना॑ । अ॒स्मै । लो॒काय॑ । सा॒द॒ये॒ ॥५.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य सवितुर्भाग स्थ। अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त। प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य । सवितु: । भाग: । स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 14

    मन्त्रार्थ -
    आदित्यपरक व्याख्या- (आचार्य:) आदित्य (मृत्युः) काल संख्या का परिगणन करके वस्तु मात्र के जीवन को समाप्त करने वाला है (वरुणः) निज आकर्षण में वरण करने वाला (सोमः) प्रतिदिन उदयकाल में सबको प्रगट करने वाला (ओषधयः) ओष-ताप का धारक (पयः) प्रकाश का पालक होने से पय नामक (जीमूताः सत्वान: आसन्) जल का बांधने वाला सदा सत्तावान् नामों से है (तै: इदं स्व:-अभृतम्) मृत्यु आदि नामों से यह आदित्य आकाश में धरा हुआ है- स्थापित है "स्वरादित्यो भवति" (निरु० २।१४) विद्यार्थी के विषय में (आचार्य:) वेदाचार्य (मृत्युः) स्व वंशजो से वियोग कराने वाला होने से मृत्यु के समान है (वरुण) शिष्य को निज आश्रय मैं वरने वाला (सोमः) विद्यामय पुनर्जन्म का देने वाला होने से उत्पादक (ओषधयः) घोष-तेज-पराकत का धारण कराने वाला (पयः) ज्ञान प्रकाश का पालक (जीमूताः सत्त्वानः आसन्) जीवन हेतु उपदेशामृत से बांधने वाला आदि नामों से है (तैः इदं स्वः-प्रभृतम् ) उन मृत्यु आदि नामो से स्वः सुख: कारणशील ज्ञान ग्रहण करने में गतिशील ब्रह्मचर्य व्रतीजन सम्यक् स्थिर है ॥१४॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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