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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 1
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमाः॑।तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्रह्म॒ ताऽआपः॒ स प्र॒जाप॑तिः॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। ए॒व। अ॒ग्निः। तत्। आ॒दि॒त्यः। तत्। वा॒युः। तत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। च॒न्द्रमाः॑ ॥ तत्। ए॒व। शु॒क्रम्। तत्। ब्रह्म॑। ताः। आपः॑। सः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः । तदेव शुक्रन्तद्ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। एव। अग्निः। तत्। आदित्यः। तत्। वायुः। तत्। ऊँ इत्यूँ। चन्द्रमाः॥ तत्। एव। शुक्रम्। तत्। ब्रह्म। ताः। आपः। सः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 1
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    मन्त्रार्थ -
    (तत्-ब्रह्म तत्-एव-अग्निः) यह वह जो ब्रह्म है वह ही अग्नि नाम वाला है, अग्नि से अतिरिक्त वस्तु अग्नि नाम से नहीं ब्रह्म ही अग्नि नाम वाला है (तत्-आदित्यः) वह आदित्य है (तत्-वायुः) वह वायु है (तत्-उ-चन्द्रमा) वही चन्द्रमा है (तत्-एव शुक्रः) वह ही शुक्र (ताः आपः) वह जल है (सः-प्रजापतिः) वह प्रजापति संवत्सर है । क्योंकि इन अग्नि आदि का उत्पादक होने से उन जैसे धर्म धारण करने वाला होने से स्वप्रकाश स्वरूप होने से अग्नि, आदान धर्म वाला होने से आदित्य जगत् का जीवनाधार सर्वत्र विभु गतिमान् होने से वायु सर्वह्लादक होने से चन्द्रमा, शुभ्रस्वरूप होने से शुक्र है, सर्वत्र व्याप्त होने से आप: है, वह प्राणी प्रजाओं का पालक होने से प्रजापति-संवत्सर है ॥१॥

    विशेष - ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥

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