यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 4
कया॑ नश्चि॒त्रऽ आ भु॑वदू॒ती स॒दावृ॑धः॒ सखा॑।कया॒ शचि॑ष्ठया वृ॒ता॥४॥
स्वर सहित पद पाठकया॑। नः॒। चि॒त्रः। आ। भु॒व॒त्। ऊ॒ती। स॒दावृ॑ध॒ इति॑ स॒दाऽवृ॑धः। सखा॑ ॥ कया॑। शचि॑ष्ठया। वृ॒ता ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥
स्वर रहित पद पाठ
कया। नः। चित्रः। आ। भुवत्। ऊती। सदावृध इति सदाऽवृधः। सखा॥ कया। शचिष्ठया। वृता॥४॥
मन्त्रार्थ -
(चित्र:) अद्भुत गुणकर्म स्वभाव परमात्मा (कया-ऊती) किस कैसी अथवा विरली उत्कृष्ट इच्छा भावना से तथा (कया शचिष्ठया वृता) कैसी या विरली उत्कृष्ट से उत्कृष्ट प्रज्ञा से वर्तन क्रिया से (न:-सदावृधः सखा आ भुवत्) हमारा सदावर्धक सखा-मित्र समन्त रूप से हो जावे ॥४॥
विशेष - ऋषिः—दध्यङङाथर्वणः (ध्यानशील स्थिर मन बाला) १, २, ७-१२, १७-१९, २१-२४ । विश्वामित्र: (सर्वमित्र) ३ वामदेव: (भजनीय देव) ४-६। मेधातिथिः (मेधा से प्रगतिकर्ता) १३। सिन्धुद्वीप: (स्यन्दनशील प्रवाहों के मध्य में द्वीप वाला अर्थात् विषयधारा और अध्यात्मधारा के बीच में वर्तमान जन) १४-१६। लोपामुद्रा (विवाह-योग्य अक्षतयोनि सुन्दरी एवं ब्रह्मचारिणी)२०। देवता-अग्निः १, २०। बृहस्पतिः २। सविता ३। इन्द्र ४-८ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ९। वातादयः ९० । लिङ्गोक्ताः ११। आपः १२, १४-१६। पृथिवी १३। ईश्वरः १७-१९, २१,२२। सोमः २३। सूर्यः २४ ॥
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