यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
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कस्त्वा॑ स॒त्यो मदा॑नां॒ मꣳहि॑ष्ठो मत्स॒दन्ध॑सः।दृ॒ढा चि॑दा॒रुजे॒ वसु॑॥५॥
स्वर सहित पद पाठकः। त्वा॒। स॒त्यः। मदा॑नाम्। मꣳहि॑ष्ठः। म॒त्स॒त्। अन्धसः॑ ॥ दृ॒ढा। चि॒त्। आ॒रुज॒ऽइत्या॒रुजे॑। वसु॑ ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्त्वा सत्यो मदानाममँहिष्ठो मत्सदन्धसः । दृढा चिदारुजे वसु ॥
स्वर रहित पद पाठ
कः। त्वा। सत्यः। मदानाम्। मꣳहिष्ठः। मत्सत्। अन्धसः॥ दृढा। चित्। आरुजऽइत्यारुजे। वसु॥५॥
मन्त्रार्थ -
(कः सत्यः-मदानां मंहिष्ठः) कोई विरले मनुष्यो से भिन्न सत्तावान् पदार्थो में-नित्य पदार्थों में साधु श्रेष्ठ वरणीय हर्षो आनन्दों का अत्यन्त दाता जोकि परमात्मा हो सकता है (अन्धसः-मत्सत्) अन्न से आहारप्रदान से आनन्दित करता हे तृप्त करता है (आरुजे दृढा चित्-वसु) आधिभौतिक अधिदैविक आध्यात्मिक दुःख नाशन में समन्तरूप से समर्थ एवं वासनापाश का भञ्जन करने वाले मुमुक्षु के लिए दृढ धनों को देता है ॥५॥
टिप्पणी -
“ग्रव रक्षण.. इच्छा.." (म्वादि०) ऊतिः... सुपां सुलुक पूर्व सवर्णः (ष्ट० ७।३।३९) "शची प्रशानाम" (निघ० ३।९) "मंहते दानकर्मा ( निघं० ३।२० ) ततस्तृचं मंहिता-अतिशये ऽर्थ इष्ठन् प्रत्ययो मंहिष्ठः ।
विशेष - ऋषिः—दध्यङङाथर्वणः (ध्यानशील स्थिर मन बाला) १, २, ७-१२, १७-१९, २१-२४ । विश्वामित्र: (सर्वमित्र) ३ वामदेव: (भजनीय देव) ४-६। मेधातिथिः (मेधा से प्रगतिकर्ता) १३। सिन्धुद्वीप: (स्यन्दनशील प्रवाहों के मध्य में द्वीप वाला अर्थात् विषयधारा और अध्यात्मधारा के बीच में वर्तमान जन) १४-१६। लोपामुद्रा (विवाह-योग्य अक्षतयोनि सुन्दरी एवं ब्रह्मचारिणी)२०। देवता-अग्निः १, २०। बृहस्पतिः २। सविता ३। इन्द्र ४-८ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ९। वातादयः ९० । लिङ्गोक्ताः ११। आपः १२, १४-१६। पृथिवी १३। ईश्वरः १७-१९, २१,२२। सोमः २३। सूर्यः २४ ॥
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