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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 60
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्न्यादयो देवताः छन्दः - विराट् प्रकृतिः, प्रकृतिः स्वरः - धैवतः
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    अ॒ग्नये॑ गाय॒त्राय॑ त्रि॒वृते॒ राथ॑न्तराया॒ष्टाक॑पाल॒ऽइन्द्रा॑य॒ त्रैष्टु॑भाय पञ्चद॒शाय॒ बार्ह॑ता॒यैका॑दशकपालो॒ विश्वे॑भ्यो दे॒वेभ्यो॒ जाग॑तेभ्यः सप्तद॒शेभ्यो॑ वैरू॒पेभ्यो॒ द्वाद॑शकपालो मि॒त्रावरु॑णाभ्या॒मानु॑ष्टुभाभ्यामेकवि॒ꣳशाभ्यां॑ वैरा॒जाभ्यां॑ पय॒स्या] बृह॒स्पत॑ये॒ पाङ्क्ता॑य त्रिण॒वाय॑ शाक्व॒राय॑ च॒रुः स॑वि॒त्रऽऔष्णि॑हाय त्रयस्त्रि॒ꣳशाय॑ रैव॒ताय॒ द्वाद॑शकपालः प्राजाप॒त्यश्च॒रुरदि॑त्यै॒ विष्णु॑पत्न्यै च॒रुर॒ग्नये॑ वैश्वान॒राय॒ द्वाद॑शकपा॒लोऽनु॑मत्याऽअ॒ष्टाक॑पालः॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नये॑। गा॒य॒त्राय॑। त्रि॒वृत॒ इति॑ त्रि॒ऽवृते॑। राथ॑न्तरा॒येति॒ राथ॑म्ऽतराय। अ॒ष्टाक॑पाल॒ इत्य॒ष्टाऽक॑पालः। इन्द्रा॑य। त्रैष्टु॑भाय। त्रैऽस्तु॑भा॒येति॒ त्रैऽस्तु॑भाय। प॒ञ्च॒द॒शायेति॑ पञ्चऽद॒शाय॑। बार्ह॑ताय। एका॑दशकपाल॒ इत्येका॑दशऽकपालः। विश्वे॑भ्यः। दे॒वेभ्यः॑। जाग॑तेभ्यः। स॒प्त॒द॒शेभ्य॒ इति॑ सप्तऽद॒शेभ्यः॑। वै॒रू॒पैभ्यः॑। द्वाद॑शकपाल॒ इति॒ द्वाद॑शऽकपालः। मि॒त्रावरु॑णाभ्याम्। आनु॑ष्टुभाभ्याम्। आनु॑स्तुभाभ्या॒मित्यानु॑ऽस्तुभाभ्याम्। ए॒क॒वि॒ꣳशाभ्या॒मित्ये॑कवि॒ꣳशाभ्या॑म्। वै॒रा॒जाभ्या॑म्। प॒य॒स्या᳕। बृह॒स्पत॑ये। पाङ्क्ता॑य। त्रि॒ण॒वाय॑। त्रि॒न॒वायेति॑ त्रिऽन॒वाय॑। शा॒क्व॒राय॑। च॒रुः। स॒वि॒त्रे। औष्णि॑हाय। त्र॒य॒स्त्रिं॒शाये॑ति त्रयःऽत्रि॒ꣳशाय॑। रै॒व॒ताय॑। द्वाद॑शकपाल इति॒ द्वाद॑शऽकपालः। प्रा॒जा॒प॒त्य इति॑ प्राजाऽप॒त्यः। च॒रुः। अदि॑त्यै। विष्णु॑पत्न्या॒ इति॒ विष्णु॑ऽपत्न्यै। च॒रुः। अ॒ग्नये॑। वै॒श्वा॒न॒राय॑। द्वाद॑शकपाल॒ इति॒ द्वाद॑शऽकपालः। अनु॑मत्या॒ इत्यनु॑ऽमत्यै। अ॒ष्टाक॑पाल इत्य॒ष्टाऽक॑पालः ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नये गायत्राय त्रिवृते राथन्तरायाष्टाकपालऽइन्द्राय त्रैष्टुभाय पञ्चदशाय बर्हतायैकादशकपालो विश्वेभ्यो देवेभ्यो जागतेभ्यः सप्तदशेभ्यो वैरूपेभ्यो द्वादशदपालो मित्रावरुणाभ्यामानुष्टुभाभ्यामेकविँशाभ्याँ वैराजाभ्याम्पयस्या बृहस्पतये पाङ्क्ताय त्रिणवाय शाक्वराय चरुः सवित्रऽऔष्णिहाय त्रयस्त्रिँशाय रैवताय द्वादशकपालः प्राजापत्यश्चरुरदित्यै विष्णुपत्न्यै चरुरग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालो नुमत्या अष्टाकपालः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नये। गायत्राय। त्रिवृत इति त्रिऽवृते। राथन्तरायेति राथम्ऽतराय। अष्टाकपाल इत्यष्टाऽकपालः। इन्द्राय। त्रैष्टुभाय। त्रैऽस्तुभायेति त्रैऽस्तुभाय। पञ्चदशायेति पञ्चऽदशाय। बार्हताय। एकादशकपाल इत्येकादशऽकपालः। विश्वेभ्यः। देवेभ्यः। जागतेभ्यः। सप्तदशेभ्य इति सप्तऽदशेभ्यः। वैरूपैभ्यः। द्वादशकपाल इति द्वादशऽकपालः। मित्रावरुणाभ्याम्। आनुष्टुभाभ्याम्। आनुस्तुभाभ्यामित्यानुऽस्तुभाभ्याम्। एकविꣳशाभ्यामित्येकविꣳशाभ्याम्। वैराजाभ्याम्। पयस्या। बृहस्पतये। पाङ्क्ताय। त्रिणवाय। त्रिनवायेति त्रिऽनवाय। शाक्वराय। चरुः। सवित्रे। औष्णिहाय। त्रयस्त्रिंशायेति त्रयःऽत्रिꣳशाय। रैवताय। द्वादशकपाल इति द्वादशऽकपालः। प्राजापत्य इति प्राजाऽपत्यः। चरुः। अदित्यै। विष्णुपत्न्या इति विष्णुऽपत्न्यै। चरुः। अग्नये। वैश्वानराय। द्वादशकपाल इति द्वादशऽकपालः। अनुमत्या इत्यनुऽमत्यै। अष्टाकपाल इत्यष्टाऽकपालः॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 60
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! तुम लोगों को चाहिए कि (त्रिवृते) सत्त्व, रज और तमोगुण इन तीन गुणों से युक्त (राथन्तराय) रथों अर्थात् जलयानों से समुद्रादि को तरने वाले (गायत्राय) गायत्री छन्द से जताये हुए (अग्नये) अग्नि के अर्थ (अष्टाकपालः) आठ खपरों में संस्कार किया (पञ्चदशाय) पन्द्रहवें प्रकार के (त्रैष्टुभाय) त्रिष्टुप् छन्द से प्रख्यात (बार्हताय) बड़ों के साथ सम्बन्ध रखने वाले (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिए (एकादशकपालः) ग्यारह खपरों में संस्कार किया पाक (विश्वेभ्यः) सब (जागतेभ्यः) जगती छन्द से जताये हुए (सप्तदशेभ्यः) सत्रहवें (वैरूपेभ्यः) विविध रूपों वाले (देवेभ्यः) दिव्य गुणयुक्त मनुष्यों के लिए (द्वादशकपालः) बारह खपरों में संस्कार किया पाक (आनुष्टुभाभ्याम्) अनुष्टुप् छन्द से प्रकाशित हुए (एकविंशाभ्याम्) इक्कीसवें (वैराजाभ्याम्) विराट् छन्द से जताये हुए (मित्रावरुणाभ्याम्) प्राण और उदान के अर्थ (पयस्या) जलक्रिया में कुशल विद्वान् (बृहस्पतये) बड़ों के रक्षक (पाङ्क्ताय) पान्तों में श्रेष्ठ (त्रिणवाय) कर्म, उपासना और ज्ञानों से स्तुति किये (शाक्वराय) शक्ति से प्रगट हुए के लिए (चरुः) पाकविशेष (औष्णिहाय) उष्णिक् छन्द से जताये हुए (त्रयस्त्रिंशाय) तेंतीसवें (रैवताय) धन के सम्बन्धि (सवित्रे) ऐश्वर्य उत्पन्न करने हारे के लिए (द्वादशकपालः) बारह खपरों में संस्कार किया (प्राजापत्यः) प्रजापति देवता वाला (चरुः) बटलोई में पका अन्न (अदित्यै) अखिण्डत (विष्णुपत्न्यै) विष्णु व्यापक ईश्वर से रक्षित अन्तरिक्ष रूप के लिए (चरुः) पाक (वैश्वानराय) सब मनुष्यों में प्रकाशमान (अग्नये) बिजुलीरूप अग्नि के लिए (द्वादशकपालः) बारह खपरों में पका हुआ और (अनुमत्यै) पीछे मानने वाले के लिए (अष्टाकपालः) आठ खपरों में सिद्ध किया पाक बनाना चाहिए॥६०॥

    भावार्थ - जो मनुष्य अग्नि आदि के प्रयुक्त करने के लिए आठ प्रकार आदि के यन्त्रों को बनावें, वे रचे हुए प्रसिद्ध पदार्थों से अनेक कार्यों को सिद्ध कर सकें॥६०॥

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