यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 60
ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः
देवता - अग्न्यादयो देवताः
छन्दः - विराट् प्रकृतिः, प्रकृतिः
स्वरः - धैवतः
2
अ॒ग्नये॑ गाय॒त्राय॑ त्रि॒वृते॒ राथ॑न्तराया॒ष्टाक॑पाल॒ऽइन्द्रा॑य॒ त्रैष्टु॑भाय पञ्चद॒शाय॒ बार्ह॑ता॒यैका॑दशकपालो॒ विश्वे॑भ्यो दे॒वेभ्यो॒ जाग॑तेभ्यः सप्तद॒शेभ्यो॑ वैरू॒पेभ्यो॒ द्वाद॑शकपालो मि॒त्रावरु॑णाभ्या॒मानु॑ष्टुभाभ्यामेकवि॒ꣳशाभ्यां॑ वैरा॒जाभ्यां॑ पय॒स्या] बृह॒स्पत॑ये॒ पाङ्क्ता॑य त्रिण॒वाय॑ शाक्व॒राय॑ च॒रुः स॑वि॒त्रऽऔष्णि॑हाय त्रयस्त्रि॒ꣳशाय॑ रैव॒ताय॒ द्वाद॑शकपालः प्राजाप॒त्यश्च॒रुरदि॑त्यै॒ विष्णु॑पत्न्यै च॒रुर॒ग्नये॑ वैश्वान॒राय॒ द्वाद॑शकपा॒लोऽनु॑मत्याऽअ॒ष्टाक॑पालः॥६०॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नये॑। गा॒य॒त्राय॑। त्रि॒वृत॒ इति॑ त्रि॒ऽवृते॑। राथ॑न्तरा॒येति॒ राथ॑म्ऽतराय। अ॒ष्टाक॑पाल॒ इत्य॒ष्टाऽक॑पालः। इन्द्रा॑य। त्रैष्टु॑भाय। त्रैऽस्तु॑भा॒येति॒ त्रैऽस्तु॑भाय। प॒ञ्च॒द॒शायेति॑ पञ्चऽद॒शाय॑। बार्ह॑ताय। एका॑दशकपाल॒ इत्येका॑दशऽकपालः। विश्वे॑भ्यः। दे॒वेभ्यः॑। जाग॑तेभ्यः। स॒प्त॒द॒शेभ्य॒ इति॑ सप्तऽद॒शेभ्यः॑। वै॒रू॒पैभ्यः॑। द्वाद॑शकपाल॒ इति॒ द्वाद॑शऽकपालः। मि॒त्रावरु॑णाभ्याम्। आनु॑ष्टुभाभ्याम्। आनु॑स्तुभाभ्या॒मित्यानु॑ऽस्तुभाभ्याम्। ए॒क॒वि॒ꣳशाभ्या॒मित्ये॑कवि॒ꣳशाभ्या॑म्। वै॒रा॒जाभ्या॑म्। प॒य॒स्या᳕। बृह॒स्पत॑ये। पाङ्क्ता॑य। त्रि॒ण॒वाय॑। त्रि॒न॒वायेति॑ त्रिऽन॒वाय॑। शा॒क्व॒राय॑। च॒रुः। स॒वि॒त्रे। औष्णि॑हाय। त्र॒य॒स्त्रिं॒शाये॑ति त्रयःऽत्रि॒ꣳशाय॑। रै॒व॒ताय॑। द्वाद॑शकपाल इति॒ द्वाद॑शऽकपालः। प्रा॒जा॒प॒त्य इति॑ प्राजाऽप॒त्यः। च॒रुः। अदि॑त्यै। विष्णु॑पत्न्या॒ इति॒ विष्णु॑ऽपत्न्यै। च॒रुः। अ॒ग्नये॑। वै॒श्वा॒न॒राय॑। द्वाद॑शकपाल॒ इति॒ द्वाद॑शऽकपालः। अनु॑मत्या॒ इत्यनु॑ऽमत्यै। अ॒ष्टाक॑पाल इत्य॒ष्टाऽक॑पालः ॥६० ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नये गायत्राय त्रिवृते राथन्तरायाष्टाकपालऽइन्द्राय त्रैष्टुभाय पञ्चदशाय बर्हतायैकादशकपालो विश्वेभ्यो देवेभ्यो जागतेभ्यः सप्तदशेभ्यो वैरूपेभ्यो द्वादशदपालो मित्रावरुणाभ्यामानुष्टुभाभ्यामेकविँशाभ्याँ वैराजाभ्याम्पयस्या बृहस्पतये पाङ्क्ताय त्रिणवाय शाक्वराय चरुः सवित्रऽऔष्णिहाय त्रयस्त्रिँशाय रैवताय द्वादशकपालः प्राजापत्यश्चरुरदित्यै विष्णुपत्न्यै चरुरग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालो नुमत्या अष्टाकपालः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नये। गायत्राय। त्रिवृत इति त्रिऽवृते। राथन्तरायेति राथम्ऽतराय। अष्टाकपाल इत्यष्टाऽकपालः। इन्द्राय। त्रैष्टुभाय। त्रैऽस्तुभायेति त्रैऽस्तुभाय। पञ्चदशायेति पञ्चऽदशाय। बार्हताय। एकादशकपाल इत्येकादशऽकपालः। विश्वेभ्यः। देवेभ्यः। जागतेभ्यः। सप्तदशेभ्य इति सप्तऽदशेभ्यः। वैरूपैभ्यः। द्वादशकपाल इति द्वादशऽकपालः। मित्रावरुणाभ्याम्। आनुष्टुभाभ्याम्। आनुस्तुभाभ्यामित्यानुऽस्तुभाभ्याम्। एकविꣳशाभ्यामित्येकविꣳशाभ्याम्। वैराजाभ्याम्। पयस्या। बृहस्पतये। पाङ्क्ताय। त्रिणवाय। त्रिनवायेति त्रिऽनवाय। शाक्वराय। चरुः। सवित्रे। औष्णिहाय। त्रयस्त्रिंशायेति त्रयःऽत्रिꣳशाय। रैवताय। द्वादशकपाल इति द्वादशऽकपालः। प्राजापत्य इति प्राजाऽपत्यः। चरुः। अदित्यै। विष्णुपत्न्या इति विष्णुऽपत्न्यै। चरुः। अग्नये। वैश्वानराय। द्वादशकपाल इति द्वादशऽकपालः। अनुमत्या इत्यनुऽमत्यै। अष्टाकपाल इत्यष्टाऽकपालः॥६०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कीदृशा जनाः कार्याणि साद्धुं शक्नुवन्तीत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! युष्माभिस्त्रिवृतेराथन्तराय गायत्रायाग्नयेऽष्टाकपालः पञ्चदशाय त्रैष्टुभाय बार्हतायेन्द्रायैकादशकपालो विश्वेभ्यो जागतेभ्यो सप्तदशेभ्यो वैरूपेभ्यो देवेभ्यो द्वादशकपाल आनुष्टुभाभ्यामेकविंशाभ्यां वैराजाभ्यां मित्रावरुणाभ्यां पयस्या बृहस्पतये पाङ्क्ताय त्रिणवाय शाक्वराय चरुरौष्णिहाय त्रयस्त्रिंशाय रैवताय सवित्रे द्वादशकपालः प्राजापत्यश्चरुरदित्यै विष्णुपत्न्यै चरुर्वैश्वानरायाग्नये द्वादशकपालोनुमत्या अष्टाकपालश्च निर्मातव्यः॥६०॥
पदार्थः
(अग्नये) पावकाय (गायत्राय) गायत्रादिछन्दोविज्ञापिताय (त्रिवृते) यस्त्रिभिः सत्त्वरजस्तमोगुणैर्युक्तस्तस्मै (राथन्तराय) यो रथैः समुद्रादींस्तरति तस्मै (अष्टाकपालः) अष्टसु कपालेषु संस्कृतः (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (त्रैष्टुभाय) त्रिष्टुप् छन्दसा प्रख्याताय (पञ्चदशाय) पञ्च दश च यस्मिन् सन्ति तस्मै (बार्हताय) बृहतां सम्बन्धिने (एकादशकपालः) एकादशसु कपालेषु संस्कृतः पाकः (विश्वेभ्यः) समस्तेभ्यः (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यो जनेभ्यः (जागतेभ्यः) जगतीबोधितेभ्यः (सप्तदशेभ्यः) एतत्सङ्ख्यया सङ्ख्यातेभ्यः (वैरूपेभ्यः) विविधस्वरूपेभ्यः (द्वादशकपालः) द्वादशसु कपालेषु संस्कृतः (मित्रावरुणाभ्याम्) प्राणोदानाभ्याम् (आनुष्टुभाभ्याम्) (एकविंशाभ्याम्) एतत्सङ्ख्यायुक्ताभ्याम् (वैराजाभ्याम्) विराट्छन्दोज्ञापिताभ्याम् (पयस्या) पयसि जले कुशलौ (बृहस्पतये) बृहतां पालकाय (पाङ्क्ताय) पङ्क्तिषु साधवे (त्रिणवाय) त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः स्तुताय (शाक्वराय) शक्तिजाय (चरुः) पाकः (सवित्रे) ऐश्वर्योत्पादकाय (औष्णिहाय) उष्णिग्बोधिताय (त्रयस्त्रिंशाय) एतत्सङ्ख्याताय (रैवताय) धनसम्बन्धिने (द्वादशकपालः) द्वादशसु कपालेषु संस्कृतः (प्राजापत्यः) प्रजापतिदेवताकः (चरुः) स्थालीपाकः (अदित्यै) अखण्डिताया अन्तरक्षिरूपायै (विष्णुपत्न्यै) विष्णुना व्यापकेन पालितायै (चरुः) पाकः (अग्नये) विद्युद्रूपाय (वैश्वानराय) विश्वेषु सर्वेषु नरेषु राजमानाय (द्वादशकपालः) (अनुमत्यै) यानुमन्यते तस्यै (अष्टाकपालः) अष्टसु कपालेषु संसाधितः॥६०॥
भावार्थः
येऽग्न्यादिप्रयोगायाष्टविधादीनि यन्त्राणि निर्मिमीरंस्ते सृष्टैर्व्यक्तैः पदार्थैरनेकानि कार्याणि साद्धुं शक्नुयुरिति॥६०॥
हिन्दी (3)
विषय
कैसे मनुष्य कार्यसिद्धि कर सकते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम लोगों को चाहिए कि (त्रिवृते) सत्त्व, रज और तमोगुण इन तीन गुणों से युक्त (राथन्तराय) रथों अर्थात् जलयानों से समुद्रादि को तरने वाले (गायत्राय) गायत्री छन्द से जताये हुए (अग्नये) अग्नि के अर्थ (अष्टाकपालः) आठ खपरों में संस्कार किया (पञ्चदशाय) पन्द्रहवें प्रकार के (त्रैष्टुभाय) त्रिष्टुप् छन्द से प्रख्यात (बार्हताय) बड़ों के साथ सम्बन्ध रखने वाले (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिए (एकादशकपालः) ग्यारह खपरों में संस्कार किया पाक (विश्वेभ्यः) सब (जागतेभ्यः) जगती छन्द से जताये हुए (सप्तदशेभ्यः) सत्रहवें (वैरूपेभ्यः) विविध रूपों वाले (देवेभ्यः) दिव्य गुणयुक्त मनुष्यों के लिए (द्वादशकपालः) बारह खपरों में संस्कार किया पाक (आनुष्टुभाभ्याम्) अनुष्टुप् छन्द से प्रकाशित हुए (एकविंशाभ्याम्) इक्कीसवें (वैराजाभ्याम्) विराट् छन्द से जताये हुए (मित्रावरुणाभ्याम्) प्राण और उदान के अर्थ (पयस्या) जलक्रिया में कुशल विद्वान् (बृहस्पतये) बड़ों के रक्षक (पाङ्क्ताय) पान्तों में श्रेष्ठ (त्रिणवाय) कर्म, उपासना और ज्ञानों से स्तुति किये (शाक्वराय) शक्ति से प्रगट हुए के लिए (चरुः) पाकविशेष (औष्णिहाय) उष्णिक् छन्द से जताये हुए (त्रयस्त्रिंशाय) तेंतीसवें (रैवताय) धन के सम्बन्धि (सवित्रे) ऐश्वर्य उत्पन्न करने हारे के लिए (द्वादशकपालः) बारह खपरों में संस्कार किया (प्राजापत्यः) प्रजापति देवता वाला (चरुः) बटलोई में पका अन्न (अदित्यै) अखिण्डत (विष्णुपत्न्यै) विष्णु व्यापक ईश्वर से रक्षित अन्तरिक्ष रूप के लिए (चरुः) पाक (वैश्वानराय) सब मनुष्यों में प्रकाशमान (अग्नये) बिजुलीरूप अग्नि के लिए (द्वादशकपालः) बारह खपरों में पका हुआ और (अनुमत्यै) पीछे मानने वाले के लिए (अष्टाकपालः) आठ खपरों में सिद्ध किया पाक बनाना चाहिए॥६०॥
भावार्थ
जो मनुष्य अग्नि आदि के प्रयुक्त करने के लिए आठ प्रकार आदि के यन्त्रों को बनावें, वे रचे हुए प्रसिद्ध पदार्थों से अनेक कार्यों को सिद्ध कर सकें॥६०॥
विषय
आदि 'कपालों' का रहस्य ।
भावार्थ
(गायन्त्राय) गायत्री छन्द से जाने गये ब्राह्म बल से युक्त और (राथन्तराय) रथ, बल या आत्मज्ञान से तरण करने वाले (अग्नये ) अग्नि, अग्रणी, प्रधान पुरुष के लिये (अष्टाकपालः) आठ कपालों में परिपक्क विचार आवश्यक है । वह अपने अधीन विचारार्थ आठ विचारवान् पुरुषों को नियुक्त करे । (त्रैष्टुभाय) क्षात्र बल से युक्त (पञ्चदशाय) पन्द्रह अंगों से युक्त (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् राजा के लिये (एकादशकपालः) ११ कपालों अर्थात् विद्वान् पुरुषों से परिपक्व विचार आवश्यक है । (जागतेभ्यः) जागत अर्थात् वैश्यों से समृद्ध (वैरूपेभ्यः) नाना प्रकार की रुचि वाले ( विश्वेभ्यः देवेभ्यः) समस्त दानशील पुरुषों के लिये (द्वादशकपालः) १२ कपालों, १२ विद्वानों द्वारा विचार आवश्यक है । ( मैत्रावरुणाभ्यां आनुष्टुभाभ्यां एकविंशाभ्यां वैराजाभ्यां पयस्या) प्राण और अपान के समान मित्र और वरुण, दोनों अनुष्टुभ अर्थात् इस सामान्य जनों के हितकारी २१ अधिकारियों से युक्त विशेष कान्ति दोनों को 'पयस्या' चरु हो अर्थात् दूध जिस प्रकार शुद्ध सात्विक एवं पुष्टिप्रद है उसी प्रकार शुद्ध सात्विक और पुष्टिप्रद पुरुष ही प्रजा के न्याय निर्णय और दुष्ट दमन के कार्यों का विधान करें। (पांक्ताय त्रिनवाय, शाक्कराय बृहस्पतये चरुः) पाचों जनों के हितकारी २७ विभागों से युक्त शक्तिशाली बृहस्पति के लिये (चरुः) अन्नमात्र भोग्य पदार्थों की व्यवस्था होनी चाहिये । (सवित्रे) प्रजोत्पत्ति करने वाले (औष्णिहाय) अति अधिक स्नेहबान् (त्रयः त्रिंशाय ) तेतीस विभागों से युक्त, ( रैवताय ) धनधान्यवान् के लिये (द्वादशकपालः) १२ कपालों में संस्कृत अर्थात् १२ विद्वानों द्वारा सुविचारित ( प्राजापत्यः ) प्रजापालक माता-पिता के निमित्त (चरुः) विधान होना चाहिये । (आदित्यै विष्णुपत्न्यै चरुः) राजा की अखण्ड पालक शक्ति के लिये भी परिपक्क विचार होना आवश्यक है । ( वैश्वानराय अग्नये द्वादशकपालः) समस्त नरनारी के हितकारी नेता के लिये द्वादश कपाल अर्थात् उसके अधीन १२ विद्वान् विचारक हों । (अनु त्वा अष्टाकपालः) अनुमति नाम सभा के लिये आठ कपाल अर्थात् आठ विद्वान् आवश्यक हैं । कपाल शब्द केवल विभागप्रदर्शक है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ विराट् संकृतिः । गांधारः ॥ २ धृतिः । ऋषभः ॥
विषय
बृहस्पति- शाक्वर
पदार्थ
१. याज्ञिक परिभाषा में आठ कपालों [पात्रों] में संस्कृत हवि को 'अष्टाकपाल' कहते हैं। यहाँ याज्ञिक परिभाषा का ही प्रयोग करते हुए कहते हैं कि (अग्नये) = आगे बढ़ने के स्वभाववाले, (गायत्राय) = [ गयाः प्राणाः, तान् तत्रे] प्राणों की रक्षा करनेवाले, (त्रिवृते) = [त्रिषु वर्तते] धर्मार्थकाम तीनों में समानुपात से वर्तनेवाले और अतएव (राथन्तराय) = इस शरीररूप रथ से तैर जानेवाले के लिए (अष्टाकपाल:) = आठ कपालों में संस्कृत की गई हवि होती है। ये आठ कपाल गीता के ('भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिदेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा') इस श्लोक में स्पष्ट हैं। पञ्चमहाभूतों से यह स्थूलशरीर बना है और फिर मन, बुद्धि, अहंकार से सूक्ष्म शरीर की रचना हुई है। इन स्थूल व सूक्ष्म शरीरों में संस्कृत हवि का अभिप्राय यह है कि इनकी शक्तियों का ठीक से परिपाक किया जाए। इन सबके सशक्त होने पर ही मनुष्य संसार-समुद्र को इस शरीररूप रथ से पार कर जाता है। २. (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय, (त्रैष्टुभाय) = 'काम, क्रोध, लोभ' इन तीनों को रोकनेवाले, (पञ्चदशाय) = पाँचों प्राणों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को ठीक रखनेवाले, (बार्हताय) = [बृहि वृद्धौ] निरन्तर वृद्धिशील व्यक्ति के लिए (एकादशकपालः) = ग्यारह कपालों में संस्कृत की गई हवि चाहिए। 'पुरमेकादशद्वारम्' में ग्यारह इन्द्रियद्वारों का उल्लेख है। इन ग्यारह इन्द्रियद्वारों की शक्ति का विकास करना ही एकादशकपालों में हवि का परिपाक है। ३. (विश्वेभ्यो देवेभ्यः) = सब दिव्य गुणों को प्राप्त करनेवाले, (जागतेभ्यः) = जगती के हित में प्रवृत्त, (सप्तदशेभ्यः) = पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय व मन और बुद्धि इन १७ को ठीक रखनेवाले (वैरूपेभ्यः) = विशिष्ट रूपवालों के लिए सबमें असामान्य रूप से दिखनेवालों के लिए (द्वादशकपालः) = बारह कपालों में संस्कृत हवि होनी चाहिए। दस इन्द्रियाँ तथा मन और बुद्धि की शक्ति का विकास ही बारह कपालों में हवि का परिपाक है । ४. (मित्रावरुणाभ्याम्) = स्नेह व द्वेष निवारण को धारण करनेवाले, (अनुष्टुभाभ्याम्) = प्रत्येक कार्य के साथ प्रभु स्मरण करनेवाले [अनु + स्टुभम्] (एकविंशाभ्याम्) = ' ये त्रिषप्त' मन्त्र में वर्णित शरीर की २१ शक्तियों का धारण करनेवाले और अतएव (वैराजाभ्याम्) = विशेषरूप से दीप्त होनेवाले अथवा नियमित [regulated] जीवनवालों के लिए (पयस्या) = [पायस शृत:] दूध में परिपक्व चरु होना चाहिए, अर्थात् इन्हें यथासम्भव दूध व दूध में संस्कृत वस्तुओं पर ही जीवन-निर्वाह करना चाहिए। ५. (बृहस्पतये) = ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी बननेवाले, (पाङ्ङ्क्ताय) = पंक्तिछन्द से स्तुत, अर्थात् पाँचों प्राणों, पाँचों कर्मेन्द्रियों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को सुन्दर बनाने की प्रबल इच्छावाले, त्(रिणवाय) = धर्मार्थकाम तीनों में गतिवाले [ नव् गतौ ] अथवा शरीर, मन व बुद्धि तीनों जिसके स्तुत्य हैं उस त्रिणव, अतएव (शाक्वराय) = शक्तिशाली के लिए (चरुः) = हविर्द्रव्य तैयार करना चाहिए, अर्थात् यह उन्हीं हविर्द्रव्यों का भोजन में प्रयोग करे जिनका यज्ञ के लिए परिपचन होता है। एवं यज्ञिय पदार्थों को सेवन करता हुआ ही यह शक्तिशाली बनता है। मस्तिष्क के दृष्टिकोण से यह बृहस्पति है तो शरीर के दृष्टिकोण से 'शाक्वर' । ६. (सवित्रे) = निर्माण के कार्य करनेवाले (औष्णिहाय) = उत्कृष्ट स्नेहवाले, (त्रयस्त्रिंशाय) = तेतीस देवों का निवास स्थान बननेवाले, (रैवताय) = उत्कृष्ट ज्ञानधनवाले के लिए (द्वादशकपाल:) = बारह कपालों में संस्कृत होनेवाला, अर्थात् इन्द्रियों, मन व बुद्धि की शक्ति के विकासवाला इष्ट है। ७. (प्राजापत्यः) = प्रजापति के लिए हितकर, अर्थात् जो हमारी वृत्ति को प्रजारक्षणवाला बनाता है, वह (चरुः) = हविर्द्रव्य तैयार करना चाहिए। यह व्यक्ति भी इन यज्ञिय भोजनों को करता हुआ ही तो ऐसा बन सकेगा। ८. (अदित्यै) = खण्डन करनेवाली (विष्णुपत्नयै) = लक्ष्मी के लिए (चरुः) = वानस्पतिक यज्ञिय भोजन ही इष्ट है। ऐसे भोजनों को करते हुए ही हम लक्ष्मी की आराधना करते हुए भी उसमें आसक्त न होने से स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनोवृत्तिवाले बने रहेंगे । ९. (वैश्वानराय) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले (अग्नये) = प्रगतिशील के लिए (द्वादशकपालः) = बारह कपालों में संस्कृत हवि चाहिए, अर्थात् वैश्वानर अग्नि बनने के लिए हमें इन्द्रियों, मन व बुद्धि की शक्ति का विकास करना चाहिए । १०. अन्त में (अनुमत्या) [ त्यै ] = अनुमति के लिए (अष्टाकपाल:) = आठ कपालों में संस्कृत हवि अभिष्ट है। हम लोक में अनुकूल गति से ही चलें, हमारी गति शास्त्रविरुद्ध मार्ग पर जानेवाली न हो, इसके लिए हम पंचभूतों व मन, बुद्धि, अंहकार सभी को ठीक रखने का प्रयत्न करें।
भावार्थ
भावार्थ - इस संसार में जीवन को सुन्दर बनाने के लिए पंचभूतों, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अंहकार- इन सबका ठीक परिपाक होना चाहिए। साथ ही हम सदा यज्ञिय पदार्थों का ही सेवन करें।
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे अग्नी इत्यादींना प्रयुक्त करण्यासाठी आठ प्रकारची यंत्रे तयार करतात. त्याद्वारे ती अनेक प्रकारची कार्ये सिद्ध करू शकतात.
विषय
कोणती वा कशाप्रकारची माणसें कार्यसिद्धी करू शकतात, -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही हे केले पाहिजे की (त्रिवृते) सत्त्व, रज आणि तम या तीन गुणांनी संयुक्त (राथन्तराय) रथ अर्थात् जलयानांद्वारे समुद्र आदीला तरून पार जाणार्या (गायत्राय) गायत्री छंदात सांगितलेल्या (अग्नेय) अग्नीसाठी (अष्टाकपालः) आठ खापरात शिजवलेला पाक (पुरोडाश - यथार्त एवं यज्ञशेष प्रसाद या रूपात देण्यात येणारा विशेष पदार्थ) (तयार करा) (पञ्चदशाय) पंधरा प्रकारच्या (त्रैष्टुभाय) त्रिष्टुप् छंदात सांगितलेल्या (बार्हताय) मोठ्यांशी संबंध ठेवणार्या (इन्द्राय) ऐश्वर्यासाठी (एकदशकपालः) अकरा खापरात (मातीचे पात्र) संस्कारित पाक (तयार करा) (विश्वेभ्यो) सर्व (जागतेभ्यः) जगती छंदात सांगितलेल्या (सप्तदशेभ्यः) सत्रहव्या (वैरूपेभ्यः) विविध व्यक्तिमत्वाच्या (देवेभ्यः) दिव्य गुणवान मनुष्यासाठी (द्वादशकपालः) बारा खापरात पाक (तयार करा) (आनुष्टुभाभ्याम्) अनुष्टुप् छंदात प्रकाशित केलेल्या (एकविंशाभ्याम्) एकविसाव्या आणि (वैराजाभ्याम्) विराट छंदात व्यक्त केलेल्या (मित्रावरूणाभ्याम्) प्राण आणि उदान यांकरिता (विशिष्ट पाक तयार करा) (पयस्या) जलक्रियामधे कुशल विद्वान आणि (बृहस्पतेः) मोठ्यांचे रक्षक असलेल्या (पाङ्क्ताय) पंक्तीमधे (भोजनासाठी) बसलेल्यासाठी विशिष्ट पाक ना भोज्य पदार्थ तयार करा) (त्रिणवाय) कर्म, ज्ञान आणि उपासना या तीन विधाने निपुण झालेल्या (शाक्वराय) शक्तीवानासाठी (चरूः) विशेष पात्रात (पातेले, तपेली, गुंड आदी पात्रात शिजवलेला पाक तयार करा) (औष्णिहाय) उष्णिक्) छंदात सांगितलेल्या (त्रयत्रिंशाय) तेहतिसाव्या प्रकारासाठी (रैवताय) धनासंबंधी (सवित्रे) ऐश्वर्योत्पादकासाठी (द्वादशकपालः) बारा खापरात शिजवलेला पाक (तयार करा) (प्राजापत्यः) प्रजापतिदेवतासाठी (चरूः) पातेल्यात शिजवलेले अन्न आणि (आदित्यै) अखंडित (विष्णुपत्न्यै) विष्णु) अर्थात व्यापक ईश्वराद्वारे रक्षित अंतरिक्षासाठी (चरूः) पातेल्यातील पाक आणि (वैश्वानराय) सर्व मनुष्यांसाठी विशेष उपयोगी (अग्नेय) विद्युतरूप अग्नीसाठी (द्वादशकपालः) बारा खापरात पाककृत पाक, पक्वान्न आणि (अनुमत्यै) सांगितलेल्या विचाराला अनुसरून वागणार्या मनुष्यासाठी (अष्टाकपालः) आठ खापरात सिद्ध केलेला पाक, पक्वान्न वा पुरोडाश, हे मनुष्यांनो, तुम्ही तयार करा. ॥60॥
भावार्थ
भावार्थ - जे लोक (वैज्ञानिक वा तंत्रज्ञ अग्नी आदी (जल, वायू, विद्युत आदी) ऊर्जा प्रयुक्त करून आठ प्रकारचे (अथवा बारा प्रकारचे यंत्र) निर्माण करतील, त्यानी निर्मित अशा वाहन, यंत्र आदीने अनेक कार्य पूर्ण करू शकतात. ॥60।
टिप्पणी
या अध्यायात अग्नी, विद्वान, घर, प्राण, अपान, अध्यापक, उपदेशक, वाणी, घोडा, विद्वान, प्रशस्त पदार्थ, घर, द्वार, रात्र, दिन, शिल्पी, शोभा, शस्त्र, अस्त्र, सेना, ज्ञानीजनांची रक्षा, सृष्टीपासून उपकार-ग्रहण, विघ्ननिवारण, शत्रुपराजय, आपल्या सैन्याचे संगठन व रक्षा, तसेच पशूंचे गुण आणि यज्ञाविषयी निरूपण, हे विषय सांगितलेले आहेत. त्यामुळे या अध्यायात सांगितलेल्या अर्थाची संगती मागील 28 व्या अध्यायात सांगितलेल्या अर्थाशी आहे. हे लक्षात घेतले पाहिजे ॥ ^यजुर्वेद (महर्षीदयानंदकृत-हिन्दी भाष्याचा) मराठी भाष्यानुवाद 29 वा अध्याय समाप्त
इंग्लिश (3)
Meaning
To the fiery soul possessing the qualities of Satva, Rajas and Tamas, the crosser of ocean by means of ships, expounded in Gayatri metre, should be offered the food cooked in eight pot-herds. To the highly strong soul, well-versed in fifteen kinds of Trishtup metre, be offered the food cooked in eleven pot-herds. To the divine persons, endowed with diverse qualities, as described in all the seventeen fold Jagati metre, should be offered the food cooked in twelve pot-herds. To Pran and Udan delineated in Anushtup and twenty-one fold virat metres, should be offered a mess of curdled milk. To the protectors of the great, sublime in assemblies, renowned in action, contemplation and knowledge, celebrated for strength should be offered special food. To the man acquiring supremacy, coupled with thirty three kinds of wealth, mentioned in Ushnik metre, should be offered the food cooked in twelve pot-herds. To father and mother should be offered the food prepared in the cooking pot ; the same be offered to the entire space protected by the All-pervading God. To the brilliant amongst all men, shining like lightning, be offered the food cooked in twelve pot-herds. For the follower, refined food should be prepared in eight pot-herds.
Meaning
For Agni, sung in Gayatri metre and worshipped in three-part Stoma Rathantara Sama, eight-bowl oblations. For Indra, sung in Trishtubh metre and worshipped in fifteen part Stoma Brihat Sama, eleven- jar oblations. For Vishvedevas, sung in jagati metre and worshipped in seventeen-part Stoma Vairupa Sama, twelve-bowl oblations. For Mitra and Varuna, sung in Anushtubh metre and worshipped in twenty-one part Stoma Vairaja Sama, milky oblations. For Brihaspati, sung in Pankti verses and worshipped in twenty-seven part Stoma Shakvara Sama, charu oblations of rice, barley and pulses boiled in milk and butter. For Savita, sung in Ushnik metre and worshipped in thirty-three part Stoma Raivata Sama, twelve-bowl oblations. For Prajapati, earn oblations. For Aditi, sustained by Vishnu, earn oblations. For Vaishvanara Agni, twelve-bowl oblations. For Anumati, eight-bowl oblations. Note: For practical application, Swami Dayananda interprets the Devatas as Agni: brilliant scholar of science with knowledge of matter, energy and mind, specialist in modes of travel over land, sea and sky. Indra: man of power and glory who is dedicated to the power and glory of humanity. Vishvedevas: generous brilliant people. Mitra-Varuna: pranic energies. Brihaspati: guardian of the great and seniors. Shakvara: man of potential and action. Raivata: relating to wealth. Savita: creator, producer, sustainer. Prajapatya: relating to the guardian of creation. Aditi: earth and sky. Vishnu: of extensive power and potential. Vaishvanara Agni: universal vitality. Anumati: social discussion, agreement, approval.
Translation
For the adorable Lord, praised with the gayatri metre, the trivrt stoma and the rathantara saman, rice-cake on eight earthen plates is offered; for the resplendent Lord, praised with the tristubh metre, the pancadasa stoma and the brhat saman, rice-cake on eleven earthern plates is offered; for all the bounties of Nature, praised with the jagati metre, the saptadasa stoma, and the vairupa saman, rice-cake on twelve earthern plates is offered; for the sun and the ocean, praised with the anustup metre, the ekavimsa stoma and the vairaja saman, rice boiled in milk is offered; for the Lord supreme, praised with the pankti metre, the saptavimsa stoma and the sakvara saman boiled rice is offered; for the impeller Lord, praised with the usnik metre, the tryastrimsa stoma and the raivata saman, rice-cake on twelve earthen plates is offered; for the Lord of Creatures, boiled rice is offered; for the adorable Lord, the benefactor of all men, rice on twelve earthern plates is offered and for accordancy (anumati) on eight earthern plates. (1)
Notes
Dedications of oblations to various divinities praised with the metres, hymns and sämans named in the verses. Agni, Indra, Viśvedevas, Miträvaruņa, Brhaspati, Savitā, Aditi, Vaiśvānara Agni and Anumati are the deities mentioned here. Anumati, the grace Divine. Adityai vişnupatnyai, Aditi is the mother of all the Adityas, and wife of Kasyapa, the Prajapati. Thus Viṣṇu is the son of Aditi. But here and in a passage of Taittiriya Samhita only Aditi is men tioned as his wife.
बंगाली (1)
विषय
কীদৃশা জনাঃ কার্য়াণি সাদ্ধুং শক্নুবন্তীত্যাহ ॥
কেমন মনুষ্য কার্য্যসিদ্ধি করিতে পারে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমাদের উচিত য়ে, (ত্রিবৃতে) সত্ত্ব, রজ ও তমোগুণ এই তিন গুণ দ্বারা যুক্ত (রাথন্তরায়) রথ অর্থাৎ জলযান দ্বারা সমুদ্রাদিকে তরণকারী (গায়ত্রায়) গায়ত্রী ছন্দ দ্বারা বিজ্ঞাপিত (অগ্নয়ে) অগ্নির অর্থ (অষ্টাকপালাঃ) অষ্ট কপালে সংস্কৃত (পঞ্চদশায়) পনের প্রকারের (ত্রৈষ্টুভায়) ত্রিষ্টুপ্ ছন্দ দ্বারা প্রখ্যাত (বার্হতায়) বড়দের সঙ্গে সম্পর্ক রক্ষাকারী (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্য্য হেতু (একাদশকপালঃ) একাদশ কপালে সংস্কৃত পাক (বিশ্বেভ্যঃ) সকল (জগতেভ্যঃ) জগতী ছন্দ দ্বারা বিজ্ঞাপিত (সপ্তদশেভ্যঃ) সতেরতম (বৈরূপেভ্যঃ) বিবিধ রূপ যুক্ত (দেবেভ্যঃ) দিব্য গুণযুক্ত মনুষ্যদিগের জন্য (দ্বাদশকপালঃ) দ্বাদশ কপালে সংস্কৃত পাক (আনুষ্টুভাভ্যাম্) অনষ্টুপ্ ছন্দ দ্বারা প্রকাশিত (একবিংশাভ্যাম্) একুশতম (বৈরাজাভ্যাং) বিরাট্ ছন্দ দ্বারা বিজ্ঞাপিত (মিত্রাবরুণাভ্যাম্) প্রাণ ও উদানের অর্থ (পয়স্যা) জল ক্রীড়ায় কুশল বিদ্বান্ (বৃহস্পতয়ে) বড়দের রক্ষক (পাঙ্ক্তায়) পঙ্ক্তিতে শ্রেষ্ঠ (ত্রিণবায়) কর্ম, উপাসনা ও জ্ঞান দ্বারা স্তুত্য (শাক্বরায়) শক্তি হইতে প্রকট তাহাদের জন্য (চরুঃ) পাকবিশেষ (ঔষ্ণিহায়) উষ্ণিক্ ছন্দ দ্বারা জ্ঞাপিত (ত্রয়স্ত্রিংশায়) তেত্রিশতম (রৈবতায়) ধনসম্পর্কীয় (সবিত্রে) ঐশ্বর্য্য উৎপন্নকারীদিগের জন্য (দ্বাদশকপালঃ) দ্বাদশ কপালে সংস্কৃত (প্রাজাপত্যঃ) প্রজাপতি দেবতাযুক্ত (চরুঃ) পাত্রে রন্ধিত অন্ন (অদিতৈ) অখন্ডিত (বিষ্ণুপত্ন্যৈ) বিষ্ণু ব্যাপক ঈশ্বর দ্বারা রক্ষিত অন্তরিক্ষ রূপের জন্য (চরুঃ) পাক (বৈশ্বানরায়) সকল মনুষ্যে প্রকাশমান (অগ্নয়ে) বিদ্যুৎরূপ অগ্নির জন্য (দ্বাদশকপালঃ) দ্বাদশ কপালে রন্ধিত এবং (অনুমত্যৈ) পশ্চাৎ স্বীকারকারীদের জন্য (অষ্টাকপালঃ) অষ্ট কপালে সংসাধিত পাক তৈরী করা উচিত ॥ ৬০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যে সব মনুষ্য অগ্নি আদিতে প্রযুক্ত করিবার জন্য আট প্রকারাদির যন্ত্র নির্মিত করিবে তাহারা রচিত প্রসিদ্ধ পদার্থ দ্বারা অনেক কার্য্যকে সম্পাদন করিতে পারিবে ॥ ৬০ ॥
এই অধ্যায়ে অগ্নি, বিদ্বান্, গৃহ, প্রাণ, অপান, অধ্যাপক, উপদেশক, বাণী, অশ্ব, অগ্নি, বিদ্বান্, প্রশস্ত পদার্থ, গৃহ, দ্বার, রাত্রি, দিন, শিল্পী, শোভা, শস্ত্র, সেনা, প্রাণীদের রক্ষা, সৃষ্টি হইতে উপকার গ্রহণ, বিঘ্ন নিবারণ, শত্রুসেনার পরাজয়, স্বীয় সেনার সঙ্গ ও রক্ষা, পশুদের গুণ ও যজ্ঞের নিরূপণ হওয়ায় এই অধ্যায়ের অর্থের পূর্ব অধ্যায়ে কথিত অর্থের সঙ্গে সঙ্গতি জানা উচিত ॥
ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
য়জুর্বেদভাষ্যে একোনত্রিংশোऽধ্যায়ঃ পূর্তিং প্রাপৎ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্নয়ে॑ গায়॒ত্রায়॑ ত্রি॒বৃতে॒ রাথ॑ন্তরায়া॒ষ্টাক॑পাল॒ऽইন্দ্রা॑য়॒ ত্রৈষ্টু॑ভায় পঞ্চদ॒শায়॒ বার্হ॑তা॒য়ৈকা॑দশকপালো॒ বিশ্বে॑ভ্যো দে॒বেভ্যো॒ জাগ॑তেভ্যঃ সপ্তদ॒শেভ্যো॑ বৈরূ॒পেভ্যো॒ দ্বাদ॑শকপালো মি॒ত্রাবর॑ুণাভ্যা॒মানু॑ষ্টুভাভ্যামেকবি॒ꣳশাভ্যাং॑ বৈরা॒জাভ্যাং॑ পয়॒স্যা᳕ বৃহ॒স্পত॑য়ে॒ পাঙ্ক্তা॑য় ত্রিণ॒বায়॑ শাক্ব॒রায়॑ চ॒রুঃ স॑বি॒ত্রऽঔষ্ণি॑হায় ত্রয়স্ত্রি॒ꣳশায়॑ রৈব॒তায়॒ দ্বাদ॑শকপালঃ প্রাজাপ॒ত্যশ্চ॒রুরদি॑ত্যৈ॒ বিষ্ণু॑পত্ন্যৈ চ॒রুর॒গ্নয়ে॑ বৈশ্বান॒রায়॒ দ্বাদ॑শকপা॒লোऽনু॑মত্যাऽ অ॒ষ্টাক॑পালঃ ॥ ৬০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নয় ইত্যস্য ভারদ্বাজ ঋষিঃ । অগ্ন্যাদয়ো দেবতাঃ । পূর্বস্য বিরাট্ প্রকৃতিঃ, বৈরাজাভ্যামিত্যুত্তরস্য প্রকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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