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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृगुः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त

    द॒र्भेण॒ त्वं कृ॑णवद्वी॒र्याणि द॒र्भं बिभ्र॑दा॒त्मना॒ मा व्य॑थिष्ठाः। अ॑ति॒ष्ठाय॒ वर्च॒साधा॒न्यान्त्सूर्य॑ इ॒वा भा॑हि प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒र्भेण॑। त्वम्। कृ॒ण॒व॒त्। वी॒र्या᳡णि। द॒र्भम्। बिभ्र॑त्। आ॒त्मना॑। मा। व्य॒थि॒ष्ठाः॒। अति॑ऽस्थाय। वर्च॑सा। अध॑। अ॒न्यान्। सूर्यः॑ऽइव। आ। भा॒हि॒। प्र॒ऽदिशः॑। चत॑स्रः ॥३३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दर्भेण त्वं कृणवद्वीर्याणि दर्भं बिभ्रदात्मना मा व्यथिष्ठाः। अतिष्ठाय वर्चसाधान्यान्त्सूर्य इवा भाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दर्भेण। त्वम्। कृणवत्। वीर्याणि। दर्भम्। बिभ्रत्। आत्मना। मा। व्यथिष्ठाः। अतिऽस्थाय। वर्चसा। अध। अन्यान्। सूर्यःऽइव। आ। भाहि। प्रऽदिशः। चतस्रः ॥३३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 33; मन्त्र » 5

    टिप्पणीः - ५−(दर्भेण) शत्रुविदारकेण परमेश्वरेण (त्वम्) (कृणवत्) लेटि मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। त्वं कृणवः। कुर्याः (वीर्याणि) वीरकर्माणि (दर्भम्) शत्रुविदारकं परमात्मानम् (बिभ्रत्) धारयन् (आत्मना) स्वात्मबलेन (मा व्यथिष्ठाः) व्यथ ताडने। व्यथां मा कुरु (अतिष्ठाय) अतिक्रम्य। अभिभूय (वर्चसा) तेजसा (अन्यान्) शत्रून् (सूर्यः) (इव) यथा (आ) समन्तात् (भाहि) दीप्यस्व (प्रदिशः) अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। प्रकृष्टाः प्रागादिदिशाः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥

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