अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
द॒र्भेण॒ त्वं कृ॑णवद्वी॒र्याणि द॒र्भं बिभ्र॑दा॒त्मना॒ मा व्य॑थिष्ठाः। अ॑ति॒ष्ठाय॒ वर्च॒साधा॒न्यान्त्सूर्य॑ इ॒वा भा॑हि प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥
स्वर सहित पद पाठद॒र्भेण॑। त्वम्। कृ॒ण॒व॒त्। वी॒र्या᳡णि। द॒र्भम्। बिभ्र॑त्। आ॒त्मना॑। मा। व्य॒थि॒ष्ठाः॒। अति॑ऽस्थाय। वर्च॑सा। अध॑। अ॒न्यान्। सूर्यः॑ऽइव। आ। भा॒हि॒। प्र॒ऽदिशः॑। चत॑स्रः ॥३३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
दर्भेण त्वं कृणवद्वीर्याणि दर्भं बिभ्रदात्मना मा व्यथिष्ठाः। अतिष्ठाय वर्चसाधान्यान्त्सूर्य इवा भाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥
स्वर रहित पद पाठदर्भेण। त्वम्। कृणवत्। वीर्याणि। दर्भम्। बिभ्रत्। आत्मना। मा। व्यथिष्ठाः। अतिऽस्थाय। वर्चसा। अध। अन्यान्। सूर्यःऽइव। आ। भाहि। प्रऽदिशः। चतस्रः ॥३३.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (त्वम्) तू (दर्भेण) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर] के साथ (वीर्याणि) वीरताएँ (कृणवत्) करता रहे और (दर्भम्) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर] को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ तू (आत्मना) अपने आत्मा से (मा व्यथिष्ठाः) मत व्याकुल हो। (अध) और (वर्चसा) तेज के साथ (अन्यान्) दूसरों से (अतिष्ठाय) बढ़-जाकर, (सूर्यः इव) सूर्य के समान (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाओं में (आ) सर्वथा (भाहि) प्रकाशमान हो ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा को हृदय में धारण करके आत्मबल बढ़ाते हुए पराक्रमी होकर सब संसार में कीर्त्ति पावें ॥५॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
५−(दर्भेण) शत्रुविदारकेण परमेश्वरेण (त्वम्) (कृणवत्) लेटि मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। त्वं कृणवः। कुर्याः (वीर्याणि) वीरकर्माणि (दर्भम्) शत्रुविदारकं परमात्मानम् (बिभ्रत्) धारयन् (आत्मना) स्वात्मबलेन (मा व्यथिष्ठाः) व्यथ ताडने। व्यथां मा कुरु (अतिष्ठाय) अतिक्रम्य। अभिभूय (वर्चसा) तेजसा (अन्यान्) शत्रून् (सूर्यः) (इव) यथा (आ) समन्तात् (भाहि) दीप्यस्व (प्रदिशः) अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। प्रकृष्टाः प्रागादिदिशाः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥
विषय
सुर्यः इव
पदार्थ
१.(दर्भेण) = शरीर में सुरक्षित इस वीर्यमणि से (त्वम् वीर्याणि कृणवत) = त् शक्तिशाली कर्मों को करनेवाला हो। (दर्भम) = दर्भ को (आत्मना बिभ्रत्) = अपने में धारण करता हुआ तू (मा व्यथिष्ठा:) = मत व्यथित हो। सुरक्षित वीर्य हमें रोगों से व्यथित नहीं होने देता। २. (अध) = अब (वर्चसा) = वर्चस के द्वारा (अन्यान् अतिष्ठाय) = औरों से उन्नत स्थिति में होकर तु चतस्त्रः प्रदिशा चारों दिशाओं को (सूर्यः इव) = सूर्य की भाँति (आभाहि) = आभासित कर डाल। तू सर्वत्र प्रकाश फैलानेवाला हो।
भावार्थ
शरीर में वीर्य को सुरक्षित करके हम शक्तिशाली कमों को कर पाते हैं-रोगों से व्यथित नहीं होते। जीवन संघर्ष में आगे बढ़ते हुए सूर्य की भाँति प्रकाश फैलानेवाले होते शरीर में सुरक्षित वीर्य से अंग-प्रत्यंग में रसवाला यह 'अङ्गिराः' बनता है। अगले दो सूक्कों का ऋषि 'अङ्गिरा' ही है। यह वीर्य को 'जङ्गिड' नाम से स्मरण करता है 'जङ्गम्यते शत्रून् बाधितम'-रोगरूप शत्रओं को बाधित करने के लिए शरीर में खूब गतिवाला होता है अथवा 'जंगिरति उत्पन्न हुए-हुए रोगों को निगल जाता है। यह कहता है कि -
भाषार्थ
हे विजयेच्छो! (त्वम्) तू (दर्भेण) भयविदारक परमेश्वर के सहारे (वीर्याणि) वीरकर्म (कृणवत्) किया कर। (दर्भम्) भयविदारक परमेश्वर को (बिभ्रद्) जीवन में धारण करता हुआ तू (आत्मना) आत्मा द्वारा (व्यथिष्ठाः मा) व्यथा को प्राप्त न हो। (अध) तदनन्तर (वर्चसा) निज आध्यात्मिक तेज द्वारा (अन्यान्) अन्य सब से (अतिष्ठाय) बढ़ कर (सूर्य इव) सूर्य के सदृश (चतस्रः प्रदिशः) चारों विस्तृत दिशाओं को (आ भाहि) चमका दे॥
इंग्लिश (4)
Subject
Darbha
Meaning
O man, with Darbha by you, do heroic deeds. Bearing Darbha by heart and soul, suffer no fear and despair. Surpassing others with your power and lustre, shine like the sun over all the four directions and sub¬ directions.
Translation
Perform valorous deed with the darbha; putting darbha on you, may you never suffer any pain; then surpassing others i with lustre, may you shine like the sun in the four regions.
Translation
This Darbha is sharp, splendid in effect, over- powering, qualler of malignancies, favorable to all and it is the splendor of luminous rays and their mighty power. I, the bind on you, Q man for maturity and happiness.
Translation
O king, or man, achieving various powers with the help of darbha and bearing thyself, dost not thou worry at all. Overpowering all others with thy glory and splendour, shine like the Sun in all quarters of the world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(दर्भेण) शत्रुविदारकेण परमेश्वरेण (त्वम्) (कृणवत्) लेटि मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। त्वं कृणवः। कुर्याः (वीर्याणि) वीरकर्माणि (दर्भम्) शत्रुविदारकं परमात्मानम् (बिभ्रत्) धारयन् (आत्मना) स्वात्मबलेन (मा व्यथिष्ठाः) व्यथ ताडने। व्यथां मा कुरु (अतिष्ठाय) अतिक्रम्य। अभिभूय (वर्चसा) तेजसा (अन्यान्) शत्रून् (सूर्यः) (इव) यथा (आ) समन्तात् (भाहि) दीप्यस्व (प्रदिशः) अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। प्रकृष्टाः प्रागादिदिशाः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥
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