ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 17
उ॒त त्या तु॒र्वशा॒यदू॑ अस्ना॒तारा॒ शची॒पतिः॑। इन्द्रो॑ वि॒द्वाँ अ॑पारयत् ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्या । तु॒र्वशा॒यदू॒ इति॑ । अ॒स्ना॒तारा॑ । शची॒ऽपतिः॑ । इन्द्रः॑ । वि॒द्वान् । अ॒पा॒र॒य॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः। इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठउत। त्या। तुर्वशायदू इति। अस्नातारा। शची३ऽपतिः। इन्द्रः। विद्वान्। अपारयत् ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 17
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
विषय - 'शचीपति इन्द्र विद्वान्' आचार्य
पदार्थ -
[१] (शचीपतिः) = कर्म व प्रज्ञान का स्वामी (इन्द्रः) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष (उत) = निश्चय से (त्या) = उन (तुर्वशायदू) = शीघ्रता से शत्रुओं को वश में करनेवाले तथा यत्नशील पुरुषों को, (अस्नातारा) = जो ज्ञान समुद्र में स्वयं स्नान नहीं कर सके, (अपारयत्) = इस समुद्र में स्नान कराके पार लगाता है। [२] आचार्य की विशेषताएँ 'शचीपति, इन्द्र व विद्वान्' शब्दों से व्यक्त की गई हैं। आचार्य को [क] कर्म व प्रज्ञान का स्वामी होना चाहिए, [ख] यह जितेन्द्रिय हो, [ग] अत्यन्त ज्ञानी हो । विद्यार्थी को तुर्वश व यदु बनना है । [क] यह शीघ्रता से काम-क्रोध आदि को वशीभूत करनेवाला हो, [ख] यत्नशील हो-आलस्य शून्य । ऐसे ही विद्यार्थी को आचार्य ज्ञानसमुद्र के पार लगाने में समर्थ होता है। अस्नात को स्नात बनाता है। उस समय इसका नाम 'स्नातक' हो जाता है।
भावार्थ - भावार्थ–'शचीपति इन्द्र विद्वान्' आचार्य 'तुर्वश यदु' विद्यार्थी को ज्ञान समुद्र में स्नान कराके स्नातक बनाता है।
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