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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    कया॑ नश्चि॒त्र आ भु॑वदू॒ती स॒दावृ॑धः॒ सखा॑। कया॒ शचि॑ष्ठया वृ॒ता ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कया॑ । नः॒ । चि॒त्रः । आ । भु॒व॒त् । ऊ॒ती । स॒दाऽवृ॑धः । सखा॑ । कया॑ । शचि॑ष्ठया । वृ॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा। कया शचिष्ठया वृता ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कया। नः। चित्रः। आ। भुवत्। ऊती। सदाऽवृधः। सखा। कया। शचिष्ठया। वृता ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (चित्रः) = वे (चायनीय) = पूजनीय, (सदावृधः) = सदा से बढ़े हुए (सखा) = हमारे मित्र प्रभु (कया ऊती) = कल्याणकारक रक्षण द्वारा (नः आभुवत्) = हमारे अभिमुख होते हैं- प्रभु हमें आभिमुख्येन प्राप्त होते हैं। [२] वे प्रभु (कया) = कल्याणकारक (शचिष्ठया) = प्रज्ञावत्तम-अधिक से अधिक बुद्धि से युक्त, (वृता) = आवर्तन द्वारा हमें आभिमुख्येन प्राप्त होते हैं। प्रातः से सायं तक समस्त दैनिक कार्यक्रम 'वृत्' कहलाता है। इस समस्त कार्यक्रम को बुद्धिमता से करें, तो यह वृत् 'शचिष्ठा' होता है। प्रभु उपासक को इस 'शचिष्ठ वृत्' में चलाते हैं। इस 'शचिष्ठवृत्' द्वारा ही प्रभु उपासक का कल्याण करते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु का कल्याणकारक रक्षण हमें प्राप्त हो । प्रभुकृपा से हम प्रज्ञापूर्वक दैनिक कार्य चक्र को करनेवाले बनें ।

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