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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - लिङ्गोक्ताः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    द॒धि॒क्रावा॑ प्रथ॒मो वा॒ज्यर्वाग्रे॒ रथा॑नां भवति प्रजा॒नन्। सं॒वि॒दा॒न उ॒षसा॒ सूर्ये॑णादि॒त्येभि॒र्वसु॑भि॒रङ्गि॑रोभिः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒धि॒ऽक्रावा॑ । प्र॒थ॒मः । वा॒जी । अर्वा॑ । अग्रे॑ । रथा॑नाम् । भ॒व॒ति॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । स॒म्ऽवि॒दा॒नः । उ॒षसा॑ । सूर्ये॑ण । आ॒दि॒त्येभिः॑ । वसु॑ऽभिः । अङ्गि॑रःऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधिक्रावा प्रथमो वाज्यर्वाग्रे रथानां भवति प्रजानन्। संविदान उषसा सूर्येणादित्येभिर्वसुभिरङ्गिरोभिः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधिऽक्रावा। प्रथमः। वाजी। अर्वा। अग्रे। रथानाम्। भवति। प्रऽजानन्। सम्ऽविदानः। उषसा। सूर्येण। आदित्येभिः। वसुऽभिः। अङ्गिरःऽभिः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    पदार्थ- दधिक्रावा का स्वरूप (रथानाम् अग्रे वाजी) = रथों के आगे जैसे वेगवान् अश्व मुख्य होता है वह (दधिक्रावा) = रथी, सारथी तथा अन्यों के धारक रथ को लेकर चलने से 'दधिक्रावा' है, वैसे (प्रजानन्) = उत्तम ज्ञानवान् पुरुष भी (रथानां) = रमणीय, व्यवहारों के (अग्रे) = मुख्य पद पर (प्रथमः) = सर्वप्रथम, (भवति) = होता है, वह भी (दधिक्रावा) = कार्य-भार को उठानेवाले पुरुषों को उपदेश देकर ठीक राह पर ले चलने से 'दधिक्रावा' है। वह (उषसा) = प्रभात -तुल्य कान्तियुक्त, (सूर्येण) = सूर्यवत् तेजस्वी राजा (आदित्येभिः) = १२ मासों के समान नाना प्रकृति के विद्वान् अमात्यों, (वसुभिः) = वा प्रजा में बसे, ब्रह्मचारी आठ विद्वानों और (अंगरिभिः) = अंगारों के समान तेजस्वी या बलस्वरूप प्राणोवत् देश के प्रिय पुरुषों से (संविदान:) = ज्ञान की वृद्धि करे।

    भावार्थ - भावार्थ - राजा ऐसे ज्ञानवान्, व्यवहार कुशल पुरुष को अपना प्रधानमन्त्री नियुक्त करे जो राज्य के समस्त कार्यभार को अपने ऊपर उठाने में समर्थ हो तथा अपने अन्य सहयोगी मन्त्रियों को उपदेश देकर ठीक राह पर चला सके। राजा अन्य मन्त्री पदों पर भी विभिन्न विषयों वा विद्याओं के विद्वानों को नियुक्त करे जो राष्ट्र की प्रजा में ज्ञान की वृद्धि करने में समर्थ तथा प्रजाप्रिय हों।

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