ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
स सु॒तः पी॒तये॒ वृषा॒ सोम॑: प॒वित्रे॑ अर्षति । वि॒घ्नन्रक्षां॑सि देव॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । सु॒तः । पी॒तये॑ । वृषा॑ । सोमः॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । वि॒ऽघ्नन् । रक्षां॑सि । दे॒व॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुतः पीतये वृषा सोम: पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षांसि देवयुः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । सुतः । पीतये । वृषा । सोमः । पवित्रे । अर्षति । विऽघ्नन् । रक्षांसि । देवऽयुः ॥ ९.३७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
विषय - अब परमात्मा दुराचारियों से रक्षा का कथन करते हैं।
पदार्थ -
(सुतः) स्वयम्भू (वृषा) सर्वकामप्रद (सः सोमः) वह परमात्मा (रक्षांसि विघ्नन्) राक्षसों का हनन करता हुआ और (देवयुः) देवताओं को चाहता हुआ (पीतये) विद्वानों की तृप्ति के लिये (पवित्रे अर्षति) उनके अन्तःकरण में विराजमान होता है ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा दैवी सम्पत्तिवाले पुरुषों के हृदय में आकर विराजमान होता है और उनके सव विघ्नों को दूर करके उनको कृतकार्य बनाता है। यद्यपि परमात्मा सर्वत्र विद्यमान है, तथापि वह देवभाव को धारण करनेवाले मनुष्यों को ज्ञान द्वारा प्रतीत होता है, अन्यों को नहीं। इस अभिप्राय से यहाँ देवताओं के हृदय में उसका निवास कथन किया गया है, अन्यों के हृदयों में नहीं ॥१॥
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