ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
स प॒वित्रे॑ विचक्ष॒णो हरि॑रर्षति धर्ण॒सिः । अ॒भि योनिं॒ कनि॑क्रदत् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । प॒वित्रे॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । हरिः॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । ध॒र्ण॒सिः । अ॒भि । योनि॑म् । कनि॑क्रदत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः । अभि योनिं कनिक्रदत् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । पवित्रे । विऽचक्षणः । हरिः । अर्षति । धर्णसिः । अभि । योनिम् । कनिक्रदत् ॥ ९.३७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(अभियोनिम्) प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त होकर (कनिक्रदत्) शब्दायमान (सः) वह परमात्मा (पवित्रे अर्षति) पवित्र हृदयों में निवास करता है और (विचक्षणः) सर्वद्रष्टा है (हरिः) पापों का हरनेवाला तथा (धर्णसिः) सबको धारण करनेवाला है ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा ही इन सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का अधिष्ठाता तथा विधाता है ॥२॥
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