अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - वाक्
देवता - निचृत विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
ऋषी॑णांप्रस्त॒रोऽसि॒ नमो॑ऽस्तु॒ दैवा॑य प्रस्त॒राय॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऋषी॑णाम् । प्र॒ऽस्त॒र: । अ॒सि॒ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । दैवा॑य । प्रऽस्त॒राय॑ ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋषीणांप्रस्तरोऽसि नमोऽस्तु दैवाय प्रस्तराय ॥
स्वर रहित पद पाठऋषीणाम् । प्रऽस्तर: । असि । नम: । अस्तु । दैवाय । प्रऽस्तराय ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
विषय - ऋषि-प्रस्तर
पदार्थ -
१. उल्लिखित मन्त्रों की भावना के जीवन में अनूदित होने पर यह (प्रस्तरः) = पत्थर के समान दढ शरीर [अश्मा भवतु नस्तन:] (प्रषीणाम्) = ऋषियों का शरीर हो जाता है। 'सप्त ऋषयः प्रतिहिता: शरीरे -इस शरीर में सात ऋषि [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] प्रभु ने रक्खे ही हैं। हे मेरे शरीर! तू ऋषियों का (प्रस्तरः) = प्रस्तर (असि) = है। २. (दैवाय) = उस महान् देव से दिये गये अथवा उस महान् देव की प्राप्ति के साधनभूत इस (प्रस्तराय) = प्रस्तर-तुल्य शरीर के लिए (नमः अस्तु) = उचित आदर का भाव हो। इसकी शक्तियों को हम पवित्र समझें, उन्हें कभी विनष्ट न होने दें। इस शरीर के प्रति आदर का भाव होने पर हम इसकी शक्तियों को भोग विलास में व्ययित न करेंगे।
भावार्थ -
इस शरीर को हम ऋषियों का आश्रम समझें। इसे देव मन्दिर जानकर इसमें प्रभु का पूजन करें। इसकी शक्तियों को विलास में विनष्ट न कर डालें। इसप्रकार इस शरीर को 'ऋषियों का आश्रम' व 'दैव-मन्दिर' बनानेवाला व्यक्ति 'ब्रह्मा' बनता है-सर्वमहान्। अगले दो सूक्त इस ब्रह्मा के ही है -
इस भाष्य को एडिट करें