अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
सूक्त - वाक्
देवता - आसुरी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
निर्दु॑रर्म॒ण्यऊ॒र्जा मधु॑मती॒ वाक् ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । दु॒:ऽअ॒र्म॒ण्य᳡: । ऊ॒र्जा । मधु॑ऽमती । वाक् ॥२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्दुरर्मण्यऊर्जा मधुमती वाक् ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । दु:ऽअर्मण्य: । ऊर्जा । मधुऽमती । वाक् ॥२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
विषय - मधुरवाणी
पदार्थ -
१. गतसूक्त के भाव के अनुसार कामाग्नि के शान्त होने पर तथा रेत:कणों के रक्षित होने पर (दुःअर्मण्यः) = [a disease of the eye]-जीवन को दु:खमय बनानेवाला आँख का रोग (नि:) = हमसे दूर हो। ये रेत:कण हमें 'शिवचक्षु' प्राप्त कराएँ। हम आँखों से मृदु को ही देखें। न हमारी आँखें अभद्र को देखें और न ही हम अशुभ बाणी बोलें। हमारी (वाक्) = वाणी (ऊर्जा) = बल व प्राणशक्ति के साथ (मधुमती:) = अत्यन्त माधुर्य को लिये हुए हो। २. हे शरीरस्थ रेत:कण! [आपः] तुम (मधुमती: स्थ) = अत्यन्त माधुर्यवाले हो-शरीर में सुरक्षित होकर तुम सारे जीवन को मधुर बनाते हो। तुम्हारा रक्षण होने पर (मधुमती वाचम् उदेयम्) = अत्यन्त मधुर ही वाणी को बोलूँ।
भावार्थ -
रेत:कणों के रक्षण के द्वारा हमारे चक्षु आदि इन्द्रियों के रोग दूर हों। हम शिव ही देखें और हमारी वाणी ओजस्विनी व मधुर हो। रेत:कण हमारे जीवन को अतिशयेन मधुर बनाते हैं। मैं मधुर ही वाणी बोलूँ।
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