अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
यत्स॑मु॒द्रो अ॒भ्यक्र॑न्दत्प॒र्जन्यो॑ वि॒द्युता॑ स॒ह। ततो॑ हिर॒ण्ययो॑ बि॒न्दुस्ततो॑ द॒र्भो अ॑जायत ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। स॒मु॒द्रः। अ॒भि॒ऽक्र॑न्दत्। प॒र्जन्यः॑। वि॒ऽद्युता॑। स॒ह। ततः॑। हि॒र॒ण्ययः॑। बि॒न्दुः। ततः॑। द॒र्भः। अ॒जा॒य॒त॒ ॥३०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्समुद्रो अभ्यक्रन्दत्पर्जन्यो विद्युता सह। ततो हिरण्ययो बिन्दुस्ततो दर्भो अजायत ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। समुद्रः। अभिऽक्रन्दत्। पर्जन्यः। विऽद्युता। सह। ततः। हिरण्ययः। बिन्दुः। ततः। दर्भः। अजायत ॥३०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
विषय - समुद्रः-पर्जन्य:
पदार्थ -
१. (यत्) = जब (समुन्द्रः) = [स-मुद्] मन:प्रसाद से युक्त यह (पर्जन्य:) = [परां तृप्ति जनयति] अपने अन्दर परापृप्ति को अनुभव करनेवाला आत्मतृप्त पुरुष (विद्युता सह) = विशिष्ट युति के साथ होता है और (अभ्यक्रन्दत्) = प्रभु का लक्ष्य करके आह्वान करता है-प्रभु का आराधन करता है, (तत:) = तभी यह (बिन्दुः) = रेत:कण (हिरण्यय:) = इसके लिए हितरमणीय व ज्योतिर्मय होता है। २. शरीर में वीर्यरक्षण के लिए साधन हैं [१] मन को प्रसन्न रखना [समुद्रः], [२] प्रभु का आराधन [अभ्यक्रन्दत्], [३] अपने अन्दर तृप्ति अनुभव करना-विषयों की ओर न जाना [पर्जन्यः], [४] ज्ञानप्रधान बनना [विद्युता सह]। (ततः) = ऐसा होने पर यह वीर्य (दर्भ:) = अजायत शत्रुओं का हिंसन करनेवाला हो जाता है। इससे रोग भयभीत हो उठते हैं [दुभ-to be afraid of] |
भावार्थ - मन:प्रसाद से युक्त होकर हम प्रभु का आह्वान करें। यह प्रभु-स्मरण हमारे वीर्य का रक्षण करेगा और सुरक्षित वीर्य हमारे शत्रुओं को भयभीत करनेवाला होगा। प्रभु-स्मरणपूर्वक अपने जीवन में वीर्य का सम्पादन करनेवाला 'सविता' अगले सूक्त का ऋषि है। यह वीर्यशक्ति को 'औदुम्बरमणि' के रूप में स्मरण करता है 'सोऽब्रवीत् अयं वाव स मा सर्वस्मात् पाप्मन् उद् अभाजीत् तस्मात् उदुम्भरः। उदुम्बर इति आचक्षते परोक्षम् शत०७.४.१.२२' शरीर में सुरक्षित वीर्य सब पापों व रोगों से बचाता है -
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