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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 40

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - बृहस्पतिः, विश्वे देवाः छन्दः - पुरःककुम्मत्युपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - मेधा सूक्त

    मा न॑ आपो मे॒धां मा ब्रह्म॒ प्र म॑थिष्टन। सु॑ष्य॒दा यू॒यं स्य॑न्दध्व॒मुप॑हूतो॒ऽहं सु॒मेधा॑ वर्च॒स्वी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। नः॒। आपः॑। मे॒धाम्। मा। ब्रह्म॑। प्र। म॒थि॒ष्ट॒न॒। सु॒ऽस्य॒दाः। यू॒यम्। स्य॒न्द॒ध्व॒म्। उप॑ऽहूतः। अ॒हम्। सु॒ऽमे॑धाः। व॒र्च॒स्वी ॥४०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा न आपो मेधां मा ब्रह्म प्र मथिष्टन। सुष्यदा यूयं स्यन्दध्वमुपहूतोऽहं सुमेधा वर्चस्वी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। आपः। मेधाम्। मा। ब्रह्म। प्र। मथिष्टन। सुऽस्यदाः। यूयम्। स्यन्दध्वम्। उपऽहूतः। अहम्। सुऽमेधाः। वर्चस्वी ॥४०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 40; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (आपः) = शरीरस्थ रेत:कणो! तुम (न:) = हमारी (मेधाम्) = बुद्धि को (मा) = मत (प्रमथिष्टन) = हिंसित होने दो और इसप्रकार ब्रह्म-हमारे ज्ञान को (मा) = मत नष्ट होने दो। ये रेत:कण ही तो ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर बुद्धि व ज्ञान का वर्धन करते हैं। २. (यूयम्) = हे रेत:कणो! तुम हमारे शरीरों में (शुष्यदा) = उत्तम प्रवाहोंवाले होकर (स्यन्दध्वम्) = प्रवाहित होओ। इन रेत:कों की सदा ऊर्ध्वगति हो और इसप्रकार दीप्त बुद्धि बनकर (उपहुत:) = आचार्यों से उनके समीप बुलाया गया (अहम्) = मैं (सुमेधाः) = उत्तम बुद्धिवाला (वर्चस्वी) = रोगापहारक प्राणशक्तिवाला बनें। सुरक्षित वीर्यकण हमें मस्तिष्क में 'सुमेधाः' तथा शरीर में 'वर्चस्वी' बनाते हैं।

    भावार्थ - रेत:कणों के शरीर में ही ऊर्ध्वगतिवाला होने से हमारी बुद्धि व ज्ञान हिंसित नहीं होते। हम सुमेधा व वर्चस्वी बनते हैं।

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